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लोकसभा का कांग्रेस चाहती थी उपाध्यक्ष पद : ओम बिरला बने लोकसभा अध्यक्ष

लोकसभा का कांग्रेस चाहती थी उपाध्यक्ष पद : ओम बिरला बने लोकसभा अध्यक्ष

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

नई दिल्ली• 18वीं लोकसभा की शुरुआत ही असहमति और मतभेद से हुई है. एनडीए सरकार चाहती थी कि विपक्षी इंडिया गठबंधन लोकसभा स्पीकर के लिए ओम बिरला का समर्थन करे लेकिन सहमति नहीं बन पाई.

हालांकि बुधवार को ओम बिरला स्पीकर पद के लिए चुन लिए गए और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने बधाई दी. ओम बिरला स्पीकर चुन लिए जाएंगे, यह पहले से ही पता था क्योंकि संख्या बल एनडीए के पास था.

वहीं इंडिया ब्लॉक ने कांग्रेस से अपने सबसे अनुभवी सांसद कोडिकुन्निल सुरेश को स्पीकर पद के लिए आगे किया था

मंगलवार को विपक्ष की ओर से कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल और डीएमके के टीआर बालू की मुलाक़ात रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा से हुई ताकि स्पीकर पद के लिए दोनों ही खेमों के बीच सहमति बनाई जा सके लेकिन सहमति नहीं बनी थी.

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इसके बाद वेणुगोपाल ने सरकार पर आरोप लगाया कि वो संसदीय परंपरा को मानने से इनकार कर रही है, ये आम समझ है कि डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को दिया जाता है.

कोडिकुन्निल सुरेश केरल से आठ बार सांसद रहे हैं और दलित समुदाय आते हैं. ओम बिरला राजस्थान के कोटा से तीन बार सांसद बने हैं

संख्या के अनुसार, तेलुगू देशम पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जैसे सहयोगियों वाले एनडीए के पास 543 में से 293 वोट हैं.

वहीं इंडिया ब्लॉक के पास 236 सदस्य हैं और इसे कुछ छोटे संगठनों और निर्दलीयों का समर्थन मिल है. इस समय लोकसभा में 16 सीटें निर्दलीय और छोटी क्षेत्रीय पार्टियों के पास हैं.

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सिर्फ़ तीन बार ही ऐसा हुआ है, जब स्पीकर के पद के लिए मतदान हुए हों, वरना इस पद पर हमेशा ही पक्ष और विपक्ष के बीच सहमति बन जाया करती है. इससे पहले 1952, 1967 और 1976 में स्पीकर के पद के लिए मतदान किए गए.

मंगलवार को राहुल गांधी ने संसद से बाहर मीडिया से बात करते हुए कहा था, “मोदी जी कहते हैं कि हमें मिल कर काम करना चाहिए. हम मिल कर काम करने को तैयार हैं लेकिन उनकी कथनी और करनी में फ़र्क़ है. हम सत्ता पक्ष के स्पीकर उम्मीदवार को समर्थन देने के लिए तैयार हैं, लेकिन जब मल्लिकार्जुन खड़गे ने डिप्टी स्पीकर विपक्ष को देने को कहा तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी ने उन्हें कॉल बैक करने को कहा था अब तक वो कॉल बैक नहीं आया है.”

एनडीए ने विपक्ष पर इस तरह की ‘शर्तें’ रखने का आरोप लगाते हुए पलटवार किया.

संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा, “अध्यक्ष किसी एक पार्टी का नहीं होता… बल्कि सदन चलाने के लिए सर्वसम्मति से चुना जाता है. यह दुखद है कि कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के लिए अपना उम्मीदवार नामित किया है.”

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और जेडीयू के ललन सिंह ने कहा है कि विपक्ष ‘दबाव की राजनीति’ कर रहा हैं ।

लोकसभा की वेबसाइट पर जाएंगे तो लिखा मिलेंगा कि ‘17वीं लोकसभा में डिप्टी स्पीकर का पद मई 2019 से ख़ाली है.’

आज़ाद भारत के इतिहास में 17वीं लोकसभा पहली लोकसभा थी, जब डिप्टी स्पीकर का पद ख़ाली रहा. संविधान का अनुच्छेद 93 कहता है कि डिप्टी स्पीकर का चयन होना ही चाहिए. सदन के दो सदस्यों का चयन स्पीकर और डिप्टी स्पीकर के रूप में होना संविधान के अनुसार अनिवार्य है.

1969 तक कांग्रेस की सत्ता में भी कांग्रेस ये दोनों पद अपने पास ही रखती थी लेकिन साल 1969 में ये चलन बदल गया. कांग्रेस ने ऑल पार्टी हिल लीडर्स के नेता गिलबर्ट जी स्वेल, जो उस समय शिलॉन्ग से सांसद थे, उन्हें ये पद दिया.

संविधान के अनुच्छेद 95 के अनुसार, डिप्टी स्पीकर, स्पीकर की अनुपस्थिति में उनकी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करता है. अगर डिप्टी स्पीकर का पद ख़ाली रहा तो उस स्थिति में राष्ट्रपति लोकसभा के एक सांसद को ये काम करने के लिए चुनते हैं.

अनुच्छेद 94 के मुताबिक़ अगर स्पीकर अपने पद से इस्तीफ़ा देते हैं तो इसे इस्तीफ़े में उन्हें डिप्टी स्पीकर को संबोधित करना होता है.

1949 में संविधान सभा में इसे लेकर बहस हुई थी. डॉ. भीमराव आंबेडकर का कहना था कि स्पीकर का पद डिप्टी स्पीकर के पद से बड़ा होता है, ऐसे में उन्हें डिप्टी स्पीकर को संबोधित नहीं करना चाहिए बल्कि राष्ट्रपति को संबोधित करना चाहिए.

लेकिन ये तर्क दिया गया कि चूंकि स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चयन सदन के सदस्य करते हैं इसलिए इस पद की जवाबदेही सदस्यों के प्रति है.

चूंकि सदन के हर सदस्य को इस्तीफ़े में संबोधित नहीं किया जा सकता ऐसे में स्पीकर और डिप्टी स्पीकर को ही संबोधित करना चाहिए क्योंकि वो सदन का ही प्रतिनिधत्व करते हैं.

इसके साथ तय हुआ कि अगर स्पीकर इस्तीफ़ा देते हैं तो डिप्टी स्पीकर को संबोधित करेंगे और अगर डिप्टी स्पीकर के इस्तीफ़े की स्थिति आती है तो वो स्पीकर को संबोधित किया जाएगा.

टकराव के साथ 18वीं लोकसभा की शुरुआत

अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू से बात करते हुए इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवार कोडिकुन्निल सुरेश ने कहा है, “यह जीत या हार का सवाल नहीं है, बल्कि यह एक परंपरा है कि स्पीकर सत्ता पक्ष से होगा और उपाध्यक्ष विपक्ष से.”

“अब हमें विपक्ष के रूप में पहचान दी गई है तो डिप्टी स्पीकर पद हमारा अधिकार है.”

अख़बार ने सत्ता और विपक्ष के बीच के इस टकराव पर एक संपादकीय भी लिखा है.

इसमें कहा गया है कि भले सरकार और विपक्ष दोनों ही पक्षों का कहना है कि वो आम सहमति चाहते हैं और संविधान के प्रति वफ़ादार हैं, लेकिन अब तक शासन, राजनीति के किसी भी प्रमुख सवाल पर उनके बीच किसी भी तरह की सहमति का नहीं दिख रही है. एनडीए और इंडिया स्पीकर के पद को लेकर आमने सामने हैं.

विपक्ष ने डिप्टी स्पीकर पद के बदले एनडीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की इच्छा जताई थी. अतीत में भी डिप्टी स्पीकर का पद ज्यादातर विपक्ष के सदस्य को ही मिला है.

16वीं लोकसभा में यह पद एआईएडीएमके को मिला था और 17वीं लोकसभा में यह पद पूरे कार्यकाल के लिए ख़ाली रहा. ये भी भारतीय संसद के इतिहास में अप्रत्याशित था.

इस बार भी बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए विपक्ष को डिप्टी स्पीकर पद ना देने के अपने फ़ैसले पर अड़ी हुई है.

18वीं लोकसभा की शुरुआत के साथ ही नरेंद्र मोदी का सर्वसम्मति और संसदीय बहस की अपील करना स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत तो देता है लेकिन ये तभी होगा जब बयान एक्शन में भी बदले.

केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह जो मोदी 3.0 सरकार के प्रमुख वार्ताकार के रूप में उभरे हैं, उन्होंने स्पीकर पद के लिए भी विपक्षी नेताओं से संपर्क किया. ये बातचीत ये तो दिखाती है कि सरकार अहम फ़ैसलों पर विपक्ष से राम मश्वरा कर रही है और ये बातचीत अक्सर होनी चाहिए.

कई मामलों में दोनों पक्षों के बीच सर्वसम्मति हासिल करना असंभव हो सकता है और कुछ मामलों में तो इसकी ज़रूरत भी हो लेकिन अगर ये दिखता रहेगा कि सत्तारूढ़ दल विपक्ष के साथ लागातार संवाद कर रहा है तो इससे नरेंद्र मोदी की राजनीतिक वैधता को भी विस्तार मिलेगा.

स्पीकर का पद अहम क्यों हैं?

सदन में बहुमत साबित करने या दलबदल विरोधी क़ानून लागू होने की स्थिति में स्पीकर की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है. सदन में विवाद होने पर अध्यक्ष का फ़ैसला अंतिम होता है.

लोकसभा के प्रमुख के रूप में, स्पीकर सदन का प्रमुख और मुख्य प्रवक्ता होता है. स्पीकर को सदन में व्यवस्था और मर्यादा बनाए रखना होता है और वह सदन की कार्यवाही स्थगित या निलंबित कर सकता है.

स्पीकर को भारत के संविधान के संसद से जुड़े प्रावधानों, लोकसभा की प्रक्रिया और संचालन करने के नियमों की अंतिम व्याख्या करने वाला माना जाता है. यानी सदन के संदर्भ में उसकी जो भी व्याख्या होगी वही मान्य होगी.

स्पीकर किसी सदस्य की अयोग्यता, संविधान के दसवीं अनुसूची के प्रावधानों के तहत दलबदल के आधार किसी सांसद की सदस्यता ख़त्म करने की शक्ति अध्यक्ष के पास होती है. हालाँकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया थआ कि स्पीकर का फ़ैसला न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है.

18वीं लोकसभा की शुरुआत देखकर ये तो लग रहा है कि इस सत्र में बहस और ज़्यादा दिखेगी, असहमतियां दिखेंगी और सभी पार्टियों को एक आम सहमति पर लाने की कोशिशें भी दिखेंगी, यानी वो होता दिखेगा जो बीते दो लोकसभा में नहीं दिखा या बहुत कम दिखा. ऐसा इसलिए है कि बीजेपी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है.

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