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मीडिया और राजनीति का गठजोड़: लोकतंत्र के लिए वरदान या अभिशाप?

मीडिया और राजनीति का गठजोड़: लोकतंत्र के लिए वरदान या अभिशाप?

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

 

नई दिल्ली। लोकतंत्र में मीडिया को भारतीय संविधान अनुच्छेद के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है, जिसका मुख्य कार्य जनता तक निष्पक्ष जानकारी पहुँचाना और सत्ता पर निगरानी रखना है। किंतु जब मीडिया और राजनीति के बीच अत्यधिक घनिष्ठता बढ़ जाती है, तो यह गठजोड़ लोकतंत्र की पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए चुनौती बन सकता है। यह गठजोड़ लोकतंत्र के लिए वरदान भी हो सकता है और अभिशाप भी हो सकता है. यह इस पर निर्भर करता है कि मीडिया किस हद तक निष्पक्ष रहकर जनता के हितों की रक्षा कर क्यों नहींकर पा रहा है।

मीडिया और राजनीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत में मीडिया और राजनीति का संबंध अत्यंत पुराना है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समाचार पत्र और पत्रिकाएँ ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनमत तैयार करने का एक प्रमुख साधन बने।

 

1. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मीडिया की भूमिका

स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से जनता को जागरूक किया। बाल गंगाधर तिलक का ‘केसरी’, महात्मा गांधी का ‘हरिजन’, गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’, मदन मोहन मालवीय का ‘अभ्युदय’ और राजा राममोहन राय का ‘संवाद कौमुदी’ जैसे प्रकाशनों ने जनता को संगठित किया और ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों का पर्दाफाश किया।

 

उदाहरण:

तिलक के केसरी अखबार ने 1908 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक तीखा लेख प्रकाशित किया, जिसके परिणामस्वरूप तिलक को देशद्रोह के आरोप में कारावास हुआ। इसी प्रकार, गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ में लगातार किसानों और मजदूरों की आवाज उठाई, जिससे उन्हें कई बार सरकार के कोप का शिकार होना पड़ा।

 

2. आपातकाल (1975-77) और प्रेस पर नियंत्रण

इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल (1975-77) के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता पर कठोर प्रतिबंध लगा दिए गए। कई अखबारों को जबरन बंद कर दिया गया, और संपादकों पर सरकार विरोधी सामग्री प्रकाशित करने पर कठोर कार्रवाई की गई।

 

उदाहरण:

‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप के खिलाफ लड़ाई लड़ी। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने अपने संपादकीय पृष्ठ को खाली छोड़कर विरोध प्रदर्शित किया, जो प्रेस की स्वतंत्रता के दमन का एक प्रतीक बन गया।

 

3. 1990 के बाद मीडिया का व्यावसायीकरण और राजनीतिक प्रभाव

 

1990 के बाद, उदारीकरण के चलते मीडिया का बड़े कॉर्पोरेट समूहों के हाथों में केंद्रीकरण होने लगा। इससे मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगे क्योंकि अब इसके मालिकाना हक़ बड़े औद्योगिक घरानों और राजनीतिक दलों से जुड़ने लगे।

 

उदाहरण:

राडिया टेप विवाद (2010) ने यह दिखाया कि कैसे बड़े पत्रकार, उद्योगपति और राजनेता एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं। इस विवाद ने मीडिया की निष्पक्षता पर गहरे सवाल उठाए।

आधुनिक मीडिया और राजनीति का गठजोड़

आज का मीडिया पहले की तुलना में अधिक शक्तिशाली, लेकिन अधिक प्रभावित भी हो चुका है। समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों के स्वामित्व बड़े औद्योगिक घरानों के पास हैं, जिनके व्यवसायिक हित सरकार की नीतियों से जुड़े होते हैं। ऐसे में समाचारों की निष्पक्षता पर संदेह उठना स्वाभाविक है।

 

1. एजेंडा सेटिंग और नैरेटिव बिल्डिंग

समाचार माध्यमों का प्राथमिक कार्य तटस्थ रूप से सूचना प्रदान करना होना चाहिए, किंतु आज मीडिया का एक वर्ग एक विशेष एजेंडा के अनुरूप खबरों का चयन और प्रसारण करता है।

 

उदाहरण:

 

कुछ समाचार चैनल किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में रिपोर्टिंग करते हैं, जबकि कुछ विपक्ष की नीतियों को अधिक महत्व देते हैं।

कई बार, 2019 के आम चुनावों में, कुछ चैनलों ने केवल एक ही दल के पक्ष में खबरें दिखाई, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठे।

2. राजनीतिक विज्ञापन और फंडिंग का प्रभाव

सरकारें मीडिया को विज्ञापन देकर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करने की कोशिश करती हैं, जबकि मीडिया भी व्यावसायिक दबाव में सत्ता के प्रति नरमी बरतने लगता है।

 

उदाहरण:

 

भारत में चुनावी समय में समाचार चैनलों पर राजनीतिक दलों के विज्ञापन की भरमार रहती है, जिससे उनकी निर्भरता बढ़ती है।

पेड न्यूज (Paid News) एक बड़ी समस्या बन चुकी है, जहाँ पैसे लेकर खबरें प्रकाशित की जाती हैं।

3. चुनावी कवरेज और मीडिया ट्रायल

चुनावों के दौरान मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। लेकिन जब मीडिया निष्पक्ष रिपोर्टिंग करने के बजाय किसी विशेष दल का प्रचार करने लगे, तो यह लोकतंत्र की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगा देता है।

 

उदाहरण:

 

2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान, कई न्यूज़ चैनलों ने केवल एक ही दल के प्रचार को अधिक महत्व दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार मीडिया ट्रायल की आलोचना की है, जहाँ किसी मामले की कानूनी प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही मीडिया आरोपी को दोषी ठहराने लगता है।

4. फेक न्यूज़ और सूचना का युद्ध

सोशल मीडिया के युग में फेक न्यूज़ और प्रोपेगेंडा एक गंभीर चुनौती बन चुके हैं।

 

उदाहरण:

 

2019 में ‘बालाकोट एयरस्ट्राइक’ से जुड़ी कई झूठी खबरें वायरल हुईं, जिनमें से कई प्रमुख मीडिया चैनलों ने बिना सत्यापन के प्रसारित कीं।

लोकतंत्र के लिए वरदान या अभिशाप?

इस गठजोड़ के दोनों पक्ष हैं। यदि मीडिया अपनी शक्ति का सदुपयोग करे, तो यह लोकतंत्र के लिए एक वरदान साबित हो सकता है। यह सरकारों की जवाबदेही सुनिश्चित कर सकता है, नीतियों की आलोचना कर सकता है, और जनता को जागरूक कर सकता है।

 

समाधान और आगे की राह

स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा देना – मीडिया संस्थानों को आत्मनियंत्रण की नीति अपनानी होगी और निष्पक्ष पत्रकारिता की ओर लौटना होगा।

सरकारी दबाव से स्वतंत्रता – सरकार को प्रेस की स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिए और मीडिया पर अनावश्यक नियंत्रण करने से बचना चाहिए।

नागरिकों की भूमिका – जनता को भी सतर्क रहना होगा और मीडिया में प्रस्तुत खबरों का विश्लेषण करके ही अपनी राय बनानी होगी।

नैतिक पत्रकारिता के लिए सख्त कानून – मीडिया नियमन के लिए कुछ सख्त कानून आवश्यक हैं, जो प्रेस की स्वतंत्रता के साथ-साथ उसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित करें।

निष्कर्ष

मीडिया और राजनीति का संबंध जितना पुराना है, उतना ही जटिल भी। यदि यह गठजोड़ पारदर्शी और जनहितकारी हो, तो यह लोकतंत्र के लिए एक वरदान है, लेकिन यदि यह केवल सत्ता और लाभ के समीकरण में उलझ जाए, तो यह एक अभिशाप से कम नहीं। मीडिया को चाहिए कि वह अपने मूल उद्देश्य—जनता की आवाज़ बनने और सत्ता को जवाबदेह बनाने—की ओर लौटे। लोकतंत्र की सफलता इस पर निर्भर करती है कि जनता कितनी सूचित है और मीडिया कितना निष्पक्ष। निष्पक्ष पत्रकारिता के बिना एक मजबूत लोकतंत्र की कल्पना अधूरी ही रहेगी।

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