भाग:97) सांसारिक माया मोह से विरक्ति पर ही ध्यान जप तप और भक्ति संभव है
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट
श्रावण भादव मास में देश के कोने कोने में चल रहे रूद्र महायज्ञ धार्मिक आध्यात्मिक उत्सव आयोजित हैं इसी दौरान आयोजित श्रीमद्भागवत में प्रवचन करते प्रयाग से आये सांतनु जी महाराज ने कहा कि माया मोह से विरक्त रहने वाला व्यक्ति ही भक्ति मार्ग को प्राप्त कर पाता है। इसके लिए एकाग्रचित मना का होना जरूरी है। संसार के माया मोह की तरफ यदि जाता है तो जीव विषयानंद हो जाता है और यही मन यदि ब्रहम की ओर गया तो ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है।
सांतनु जी महाराज ने कहा कि इंद्रियां शिथिल होती हैं और विषयानंद इन्हीं से जुड़ा है। नतीजतन हम सभी के मन को यह विचलित करता रहता है। लेकिन ब्रह्मानंद निरंतर प्रतिक्षण बढ़ता है। उन्होंने अलग अलग काल में ईश्वर की प्राप्ति के साधन का उल्लेख करते हुए कहा कि सतयुग तप, त्रेता में यज्ञ, द्वापर में सेवा व कलयुग में सत्संग एवं भजन कीर्तन से ही ईश्वर की प्राप्ति संभव हो सकती है। श्रीमद्भागवत में प्रयुक्त हुए अवधूत शब्द पर व्याख्यान देते हुए कथा वाचक ने कहा कि यह दो लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है। प्रथम ऋषभ देव व दूसरे शुकदेव जी के लिए। कलयुग में नाम जप की सर्वाधिक महत्ता है। पूरे जीवन में दो ही समय ऐसा आता है जब मनुष्य संसार के विरक्त रहता है। प्रथम जब पैदा होता है तथा दूसरा जब वह मृत शैया पर लेटा होता है। उन्होंने कहा कि हर युग में प्राण के निवास का भी अलग अलग स्थान रहा है। सतयुग में यह हड्डियों में, त्रेता में धमनियों, द्वापर में सांस पेशियों एवं कलयुग में यही अन्न में निवास करता है। मनुष्य का शरीर मिलते ही उसके साथ सुख- दुख व मृत्यु की साझेदारी हो जाती है।
हम सांसारिक मोह माया में फंसे प्राणी मनुष्य जन्म लेकर भी अपने जीवन के उद्देश्य को भूल जाते हैं!भगवान का भजन सिमरण भूल कर दुनिया की चकाचौंध में उलझ जाते हैं, वासनाओं के चक्कर में फंस कर रह जाते हैं! अभी भी समय है —हमें अपने आप को सम्भालना होगा ! इस झूठी सांसारिक मोह-माया की नींद से खुद को जगाना होगा ! कोई दूसरा हमें जगाने , समझाने नहीं आएगा ! सिर्फ हम ही अपने आप को जगा सकते हैं ! सच्चे मन से परमात्मा की, सतगुरु की शरण में जाएंगे तो अवश्य ही वे हमें इस योग्य बना देंगे कि हम तन मन से भगवान का भजन सिमरण ध्यान कर सकें!
मोह माया के नींद से जगने की है जरूरत है।
अमृत नगर में दिव्य ज्योति जागृति संस्था द्वारा आयोजित पांच दिवसीय रामचरित मानस एवं गीता विवेचना के दूसरे दिन गुरुवार को स्वामी धनंजयानंद ने कहा है कि यह संसार मोह माया का है। मोह माया से लोग अपने में भी कष्ट में रहते हैं और दूसरों को भी कष्ट देते हैं। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के वाणी कि उठो जागो और तब तक न रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए की चर्चा करते हुए कहा कि यह वाक्य नींद से सोए व्यक्ति को जगने के लिए नहीं बल्कि मोह माया रूपी नींद से उठने और जगने का संदेश दिया। कहा कि यह माया का संसार है। माया के कारण अर्जुन ने अपने गांडीव रख दिए। श्री कृष्ण के गीता सार ने धर्म के प्रति अर्जुन को पाठ पढ़ाया और धर्म के रक्षा के लिए गांडीव उठाने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने अपने प्रवचन में धर्म की रक्षा के लिए लोगों को जगने के लिए प्रेरित किया। इस अवसर पर साध्वी सोनिया और साध्वी भारती ने संगीतमयी भजन से दर्शकों को भावविभोर कर दिए। इस अवसर पर गोपाल प्रसाद साहु, राकेश कुमार, नीलम देवी, कलावती देवी, कृष्णा यादव, अवधेश महापात्र आदि उपस्थित थे।
इस जगत में हर व्यक्ति किसी न किसी प्रयोजन से जुड़ा है, हर व्यक्ति के जीवन का अपना उद्देश्य है। प्रत्येक मनुष्य के लिए उसका कर्त्तव्य उसे पुकारता रहता है। व्यक्ति अपने कर्त्तव्य का चयन कर जब अपनी ऊर्जा को उस ओर लगाता है, तब उसके जीवन का नया रूप संसार के सामने आता है। जीवन उसी दिन मूल्यवान बनता है, जिस दिन हम अपने जीवन के उद्देश्य को पहचानते और सही ढंग से चयन करते हैं। किसी को पर्वत की ऊंची चोटी पुकारती है, किसी को सिंहासन पुकारता है, किसी को धन पुकारता है, किसी को युगधर्म पुकारता है, लेकिन ये पुकार इसलिये है कि इन्हें लेकर आप दुनिया के सामने एक प्रेरक व्यक्ति बन सकें। एक आदर्श समाज खड़ा कर सकें, जिससे लोग प्रेरणा लें। वास्तव में हमारे चयन में ही हमारी सार्थकता है। कर्त्तव्य पथ भी हमें श्रेय तब दिला पाता है, जब हमारे चयन में दूरदर्शिता हो। कर्त्तव्य चयन से लेकर संगी-साथी के चयन में दूरदर्शिता।
जीवन में चयन की इसी दूरदर्शितापूर्ण प्रेरणा जगाती है गीता। सावधानीपूर्वक उसी का संग करे जो अच्छाई के लिये हो, विचारों में शक्ति भरे, अच्छी सोच शुरू करे, सकारात्मक चिन्तन बने, सेहत, परिवार, व्यक्ति के बारे में अच्छे भाव पैदा करे। यही दूरदर्शिता भरा संग है। इसके विपरीत जिसके साथ बैठने से जीवन पर ऐब लगता हो, वह कुसंग माना जाता है।
ऋषि कहते हैं सद्विचार, सत्कर्म, सतचिन्तन, सद्व्यवहार, सदाचार, सद्आहार, सत्संग (अच्छी संगत) ही जीवन की श्रेष्ठता का मूल है। इस सद्-असद् के बीच हम क्या चयन करते हैं, उसी पर जीवन के परिणाम निर्भर करते हैं।
महाभारत के 18वें पर्व में कृष्ण अर्जुन संवाद रूप में स्थित गीता के 18 अध्यायों से स्पष्ट होता है कि महाभारत 18 अक्षौहिणी सेना के मध्य चला, पर किसी को श्रेय व कीर्ति मिली, किसी को अपयश। इसका कारण था उनके चयन की धारणा।
कहते हैं व्यक्ति की जिंदगी में उठे नकारात्मक विचार जब उसे गलत दिशा में ले आते हैं, तो वह कौरवी वृत्ति कही जाती है। कौरव सेना को चलाने वाला है दुर्योधन। दुर्योधन ही कभी सुयोधन था। सुयोधन वह व्यक्ति जो अच्छी तरह पुरुषार्थ करना जानता है। लेकिन बुरे चयन के कारण उसका नाम दुर्योधन पड़ गया।
महाभारत की 18 अक्षौहिणी सेना के मध्य भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए समझाया कि दैवी सम्पदा और आसुरी सम्पदा प्रत्येक व्यक्ति के अंदर है। अच्छाई और बुराई की लड़ाई प्रत्येक व्यक्ति के अंदर सदैव चल रही है। यही कौरवी सेना और पाण्डव सेना का आंतरिक महाभारत है। प्रश्न यह है कि हम किस पक्ष का चयन करते हैं। पाण्डव सेना को हांकने वाले श्रीकृष्ण हैं और अर्जुन पाण्डव योद्धा सेनापति बनकर लड़ने वाला है।
चयन की श्रेष्ठ दृष्टि देखिये कि अर्जुन ने अपने गोविन्द को चुना। इस संकल्प से कि कृष्ण भले ही मेरी तरफ से न लड़ें, अपनी लड़ाई हमें खुद लड़नी ही पड़ेगी, लेकिन जिस दिशा में मेरे रथ को जाना चाहिये, श्रीकृष्ण ही मेरे रथ की सही दिशा को संभालें।
वास्तव में जिस व्यक्ति ने अपनी बुद्धि के रथ को भगवान को सौंप दिया, उस व्यक्ति की दुनिया में जीत निश्चित है। इसके विपरीत जिसने गलत को अपना सारथी बना लिया, अर्थात् अपना नेतृत्व दुर्योधन जैसे व्यक्ति के हाथ दे दिया, उसकी कितनी ही बड़ी शक्ति क्यों न हो, वह व्यक्ति अपना जीवन समर हारता ही है।
यही कारण है जिन श्रेष्ठ व्यक्तियों ने अपना प्रतिनिधि दुर्योधन को चुना, विनाश को प्राप्त हुए ही, कलंक के भागीदार भी बनें। अनन्तकाल से संसार में उन्हें तिरस्कृत होना पड़ा रहा है।
इसी प्रकार अश्वथामा का चयन भी अनन्तकाल तक के लिये उसे अपयशी बना गया। वह चयन का दर्प ही था कि उसने पाण्डवों के बच्चों को रात में सोते हुए मार दिये। लड़ाई भाइयों की थी, मारे गये बच्चे। दुर्भाग्य देखिये कि यह खबर सुनकर प्राण निकलते वक्त भी दुर्योधन के चेहरे पर अनाचक मुस्कुराहट ले आती हैं, वह ईर्ष्याभरी मुस्कुराहट लेकर दुनिया से गया। गीता संदेश देती है कि बुरा व्यक्ति जब भी दुनिया से जाता है, तो उसे खुशी भी ईर्ष्या व दूसरे के विनाश से ही मिलती है। यहां भी वही सूत्र है कि चयन हमें करना है, हम प्रेम चयन करते हैं या द्वेष-घृणा-ईर्ष्या।
कर्ण ने भी चयन ही तो किया था। दुर्योधन जैसा दम्भी, मिथ्याचारी किस प्रकार एक व्यक्ति को अपना बना लेता है। कहते हैं भीष्म और द्रोणाचार्य ने मिलकर एक स्वयंवर से कर्ण को बाहर इसलिए रखा, क्योंकि उस प्रतियोगिता में राजा या राजकुमार ही शामिल हो सकते थे। कर्ण राजा थे नहीं, अतः इस प्रतियोगिता से बाहर माने गये। तभी दुर्योधन ने देखा कि अर्जुन को हराने वाला सामर्थ्यवान कर्ण सामने है। उसने तुरन्त पिता द्वारा दिया अंग देश का राज मुकुट उठाकर कर्ण के सिर पर रख दिया और कहा आज से और अभी से आप अंग देश के राजा हो गये। दुर्योधन ने कहा मैं तुम्हें राजा बनाता हूँ, तुम अंग देश के राजा हो, अब तुम स्वयंवर में इन्हें ललकारो। कर्ण ने आश्चर्यभाव से दुर्योधन से पूछा कि आपने मेरे सिर पर मुकुट रख करके मान तो दिया, अब बदले में आप क्या चाहेंगे, अपनी शर्त बतायें। दुर्योधन ने कहा, सिर्फ दोस्ती। यहीं से कर्ण के चयन विधान ने कर्ण के साथ काम करना शुरू कर दिया।
इसीलिये कर्ण मरा तो श्रीकृष्ण को कहना पड़ा, अर्जुन याद करो वह दिन जब दुर्योधन ने इसे मुकुट पहनाया था। कर्ण ने अब तक जो कुछ भी गलत किया, वह इसका स्वभाव नहीं था, अपितु हर गलत कार्य दोस्ती के कारण। चयन के चलते ही हर जगह दुर्योधन के साथ खड़ा रहा। यद्यपि एक व्यक्ति के रूप में यह ऊंचा इंसान था, लेकिन गलत जगह खड़ा था। गलत चयन कर चुका था।