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(भाग:173) हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है? अभिभूत नाम से क्या कहा जाता है! अधिदेव किसे कहते है!!

भाग:173) हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है कर्म क्या है? अभिभूत नाम से क्या कहा जाता है! अधिदेव किसे कहते है!!

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

अध्याय 8 का श्लोक अर्जुन उवाच)

किम्, तत्, ब्रह्म, किम्, अध्यात्मम्, किम्, कर्म, पुरुषोत्तम्,
अधिभूतम्, च, किम्, प्रोक्तम्, अधिदैवम्, किम्, उच्यते।।1।।

अनुवाद: (पुरुषोत्तम) हे पुरुषोत्तम! (तत्) वह (ब्रह्म) ब्रह्म (किम्) क्या है (अध्यात्मम्) अध्यात्म (किम्) क्या है? (कर्म) कर्म (किम्) क्या है? (अधिभूतम्) अधिभूत नामसे (किम्) क्या (प्रोक्तम्) कहा गया है (च) और (अधिदैवम्) अधिदैव (किम्) किसको (उच्यते) कहते हैं?(1)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नामसे क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते हैं?(1)

अध्याय 8 का श्लोक 2
अधियज्ञः, कथम्, कः, अत्र, देहे, अस्मिन्, मधुसूदन,
प्रयाणकाले, च, कथम्, ज्ञेयः, असि, नियतात्मभिः।।2।।

अनुवाद: (मधुसूदन) हे मधुसूदन! (अत्र) यहाँ (अधियज्ञः) अधियज्ञ (कः) कौन है और वह (अस्मिन्) इस (देहे) शरीरमें (कथम्) कैसे है? (च) तथा (नियतात्मभिः) युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा (प्रयाणकाले) अन्त समयमें (कथम्) किस प्रकार (ज्ञेयः) जाननेमें आते (असि) हैं। (2)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस शरीरमें कैसे है? तथा युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा अन्त समयमें किस प्रकार जाननेमें आते हैं। (2)

(श्री भगवान उवाच)

अध्याय 8 का श्लोक 3
अक्षरम्, ब्रह्म, परमम्, स्वभावः, अध्यात्मम्, उच्यते,
भूतभावोद्भवकरः, विसर्गः, कर्मस×िज्ञतः।। 3।।

अनुवाद: ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह (परमम्) परम (अक्षरम्) अक्षर (ब्रह्म) ‘ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है (स्वभावः) उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा (अध्यात्मम्) ‘अध्यात्म‘ नामसे (उच्यते) कहा जाता है तथा (भूतभावोद्भवकरः) जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो (विसर्गः) त्याग है वह (कर्मस×िजतः) ‘कर्म‘ नामसे कहा गया है। ( 3)

केवल हिन्दी अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह परम अक्षर ‘ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा ‘अध्यात्म‘ नामसे कहा जाता है तथा जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो त्याग है वह ‘कर्म‘ नामसे कहा गया है। (3)

अध्याय 8 का श्लोक 4
अधिभूतम्, क्षरः, भावः, पुरुषः, च, अधिदैवतम्,
अधियज्ञः, अहम्, एव, अत्र, देहे, देहभृताम्, वर।।4।।

अनुवाद: (अत्र) इस (देहभृताम् वर) देह धारियों में श्रेष्ठ अर्थात् मानव (देहे) शरीर में (क्षरः भावः) नाश्वान स्वभाव वाले (अधिभूतम्) अधिभूत जीव का स्वामी (च) और (अधिदैवतम्) अधिदैव दैवी शक्ति का स्वामी (अधियज्ञः) यज्ञ का स्वामी अर्थात् यज्ञ में प्रतिष्ठित अधियज्ञ (पुरूषः) पूर्ण परमात्मा है(एव) इसी प्रकार इस मानव शरीर में (अहम्) मैं हूँ। (4)

केवल हिन्दी अनुवाद: इस देह धारियों में श्रेष्ठ अर्थात् मानव शरीर में नाश्वान स्वभाव वाले अधिभूत जीव का स्वामी और अधिदैव दैवी शक्ति का स्वामी यज्ञ का स्वामी अर्थात् यज्ञ में प्रतिष्ठित अधियज्ञ पूर्ण परमात्मा है इसी प्रकार इस मानव शरीर में मैं हूँ। (4)

भावार्थ:- सर्व देहधारी प्राणियों में श्रेष्ठ शरीर मानव शरीर है। इस मानव शरीर में सर्व प्रभुओं का वास है। जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि मैं सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है कि वह पूर्ण ब्रह्म ज्योतियों का ज्योति माया से अति परे कहा जाता है। वह तत्वज्ञान से जानने योग्य है और सब के हृदय में विशेष रूप से स्थित है। इसी प्रकार गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है शरीर रूपी यन्त्र में अन्र्तयामी परमेश्वर अपनी माया से भ्रमण कराता हुआ (सर्वभूतानाम्) सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। {इससे सिद्ध हुआ कि शरीर में दोनों प्रभुओं (ब्रह्म तथा पूर्ण ब्रह्म) का वास है}

नोट:- गीता अ. 3 के श्लोक 14,15 में स्पष्ट है कि सर्वव्यापक परमात्मा पूर्णब्रह्म ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् अधियज्ञ है।

अध्याय 8 का श्लोक 5
अन्तकाले, च, माम्, एव, स्मरन्, मुक्त्वा, कलेवरम्,
यः, प्रयाति, सः, मद्भावम्, याति, न, अस्ति, अत्र, संशयः।।5।।

अनुवाद: (यः) जो (अन्तकाले,च) अन्तकालमें भी (माम्) मुझको (एव) ही (स्मरन्) सुमरण करता हुआ (कलेवरम्) शरीरको (मुक्त्वा) त्यागकर (प्रयाति) जाता है (सः) वह (मद्भावम्) शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को (याति) प्राप्त होता है (अत्र) इसमें कुछ भी (संशयः) संश्य (न) नहीं (अस्ति) है। (5)

केवल हिन्दी अनुवाद: जो अन्तकालमें भी मुझको ही सुमरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है वह शास्त्रनुकूल भक्ति ब्रह्म तक की साधना के भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संश्य नहीं है। (5)

अध्याय 8 का श्लोक 6
यम्, यम्, वा, अपि, स्मरन्, भावम्, त्यजति, अन्ते, कलेवरम्,
तम्, तम्, एव, एति, कौन्तेय, सदा, तद्भावभावितः।।6।।

अनुवाद: (कौन्तेय) हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य (अन्ते) अन्तकालमें (यम् यम्) जिस-जिस (वा, अपि) भी (भावम्) भावको (स्मरन्) सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ (कलेवरम्) शरीरका (त्यजति) त्याग करता है (तम् तम्) उस-उसको (एव) ही (एति) प्राप्त होता है क्योंकि वह (सदा) सदा (तद्भावभावितः) उसी भक्ति भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है। (6)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावको सुमरण करता हुआ अर्थात् जिस भी देव की उपासना करता हुआ शरीरका त्याग करता है उस-उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भक्ति भाव को अर्थात् स्वभाव को प्राप्त होता है। (6)

(श्लोक 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है)
अध्याय 8 का श्लोक 7
तस्मात्, सर्वेषु, कालेषु, माम्, अनुस्मर, युध्य, च,
मयि, अर्पितमनोबुद्धिः, माम्, एव, एष्यसि, असंशयम्।।7।।

अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये हे अर्जुन! तू (सर्वेषु) सब (कालेषु) समयमें निरन्तर (माम्) मेरा (अनुस्मर) सुमरण कर (च) और (युध्य) युद्ध भी कर इस प्रकार (मयि) मुझमें (अर्पितमनोबुद्धिः) अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू (असंशयम्) निःसन्देह (माम्) मुझको (एव) ही (एष्यसि) प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा। (7)

केवल हिन्दी अनुवाद: इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा सुमरण कर और युद्ध भी कर इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निःसन्देह मुझको ही प्राप्त होगा अर्थात् जब कभी तेरा मनुष्य का जन्म होगा मेरी साधना पर लगेगा तथा मेरे पास ही रहेगा। (7)

(निम्न 8, 9, 10 श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है )
अध्याय 8 का श्लोक 8
अभ्यासयोगयुक्तेन, चेतसा, नान्यगामिना।
परमम्, पुरुषम्, दिव्यम्, याति, पार्थ, अनुचिन्तयन्।।8।।

अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (अभ्यासयोगयुक्तेन) परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन (नान्यगामिना) दूसरी ओर न जानेवाले (चेतसा) चित्तसे (अनुचिन्तयन्) निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त (परमम्) परम (दिव्यम्) दिव्य (पुरुषम्) परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही (याति) प्राप्त होता है। (8)

केवल हिन्दी अनुवाद: हे पार्थ! परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण परमात्मा की पूजा में लीन दूसरी ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त परम दिव्य परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही प्राप्त होता है। (8)

अध्याय 8 का श्लोक 9
कविम्, पुराणम् अनुशासितारम्, अणोः, अणीयांसम्, अनुस्मरेत्,
यः, सर्वस्य, धातारम्, अचिन्त्यरूपम्, आदित्यवर्णम्, तमसः, परस्तात्।।9।।

अनुवाद: (कविम्) कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप में प्रसिद्ध होता है वह (पुराणम्) अनादि, (अनुशासितारम्) सबके नियन्ता (अणोः, अणीयांसम्) सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, (सर्वस्य) सबके (धातारम्) धारण-पोषण करने वाला (अचिन्त्यरूपम्) अचिन्त्य-स्वरूप (आदित्यवर्णम्) सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है (यः) जो साधक (तमसः) उस अज्ञानरूप अंधकारसे (परस्तात्) अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका (अनुस्मरेत्) सुमरण करता है। (9)

केवल हिन्दी अनुवाद: कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप से प्रसिद्ध होता है वह अनादि, सबके नियन्ता सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले अचिन्त्य-स्वरूप सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है। जो उस अज्ञानरूप अंधकारसे अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका सुमरण करता है। (9)

अध्याय 8 का श्लोक 10
प्रयाणकाले, मनसा, अचलेन, भक्त्या, युक्तः, योगबलेन, च, एव, भ्रुवोः, मध्ये, प्राणम्, आवेश्य, सम्यक्, सः, तम्, परम् पुरुषम्, उपैति, दिव्यम्।।10।।

अनुवाद: (सः) वह (भक्त्या, युक्तः) भक्तियुक्त साधक (प्रयाणकाले) अन्तकालमें (योगबलेन) नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे (भ्रुवोः) भृकुटी के (मध्ये) मध्यमें (प्राणम्) प्राणको (सम्यक्) अच्छी प्रकार (आवेश्य) स्थापित करके (च) फिर (अचलेन) निश्चल (मनसा) मनसे (तम्) अज्ञात (दिव्यम्) दिव्यरूप (परम्) परम (पुरुषम्) भगवानको (एव) ही (उपैति) प्राप्त होता है। (10)

केवल हिन्दी अनुवाद: वह भक्तियुक्त साधक अन्तकालमें नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे भृकुटीके मध्यमें प्राणको अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मनसे अज्ञात दिव्यरूप परम भगवानको ही प्राप्त होता है। (10

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