भाग:271) संसार क्षणभंगुर है, संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
योग वशिष्ठ एक हिंदू आध्यात्मिक ग्रंथ है, जो पवित्र ग्रंथ रामायण के लेखक महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह मानव मन में उठने वाले सभी सवालों के जवाब यह ग्रंथ दे सकता है और मोक्ष पाने में इंसान की मदद कर सकता है। इसमें वशिष्ठ ऋषि के द्वारा प्रभु श्रीराम को दिए गए प्रवचनों का वर्णन है।
संसार क्षणभंगुर है, संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है
इस नश्वर संसार का सृजनकर्ता कौन है, जो इस सृष्टि के विराट आयोजन को संचालित कर रहा है?
यह संसार क्षणभंगुर है। संपूर्ण सृष्टि परिवर्तन और विनाश के मूलाधार पर टिकी है। इस तथ्य पर यकीन करने के लिए हमें किसी मत-मतांतर या साक्ष्यों की कोई आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह कि हम नित्य जन्म-मृत्यु के साथ-साथ बच्चे को युवा और युवावस्था को वृद्धावस्था में परिवर्तित होते देखते हैं। फिर भी हम संसार की क्षणभंगुरता का अहसास किए बगैर जन्म पर खुशी, वृृद्धावस्था पर क्षुब्धता व मृत्यु पर शोक मनाए चले जाते हैं। हमें इस कटु यथार्थ का बोध भी नहीं होता कि प्रकृति द्वारा युग-युगांतरों से खेला जा रहा परिवर्तन व विनाश का खेल लगातार चलता रहता है। राम हों या कृष्ण, जीसस हों या बुद्ध व महावीर, सबको एक अवधि के बाद शरीर छोड़ना पड़ा। इस संदर्भ में प्रश्न यह उठता है कि इस नश्वर संसार का सृजनकर्ता कौन है, जो इस सृष्टि के विराट आयोजन को संचालित कर रहा है? फिलहाल आदि काल से लगातार फैल रहे इस अनंत ब्रह्मांड और संपूर्ण सृष्टि को संचालित करने वाला कोई नश्वर तत्व तो हो नहीं सकता। हां, नश्वर में निहित ज्ञान स्वरूप परब्रह्म ही माला के मनकों को संभालने वाले धागे की तरह सक्रिय हो सकता है।
इस पूरी सृष्टि में सृष्टा ही समाया हुआ है। समस्त जड़-चेतन में उसी का वास है। जिस प्रकार गतिमान पहिया अपरिवर्तनशील कील पर ठहरा हुआ होता है, उसी प्रकार सारे परिवर्तन मृण्मय (सृष्टि के समस्त जड़ चेतन) रूपी परिधि पर होते हैं, जबकि भीतर मौजूद चिन्मय (ज्ञान स्वरूप परब्रह्म) सदा स्थिर रहता है। जिस प्रकार हम ईंट-पत्थरों से मकान (दीवारें) बनवाते हैं, किंतु हम दीवारों में नहीं रहते, बल्कि भीतर स्थित शून्य (रिक्त स्थान) में रहते हैं। यही नहीं, हमारा प्रवेश भी शून्य रूपी दरवाजे से होता है। इसी प्रकार हमारी हृदय गुफा में मौजूद अंतराकाश में आत्मा सतत् विराजमान है। चूंकि हमने उसे कभी क्षणभर के लिए भी नहीं खोया है, इसलिए उसकी प्रतीति नहीं होती है। जैसे अपना बिंब देखने के लिए आईने से फासले की जरूरत होती है। परमात्मा को हमें अन्यत्र खोजना है, यह धारणा ही भ्रांत है। परमात्मा हम सब के भीतर मौजूद है और हमें केवल बाहर जाती चेतना की दिशा परिवर्तित करके उसका रुख भीतर की ओर करना होगा, तभी हमें परमात्म तत्व की प्राप्ति हो सकेगी।
योगवशिष्ठ महारामायण संस्कृत साहित्य में अद्वैत वेदांत का सबसे महत्वपूर्ण पवित्र ग्रंथ है। इस महारामायण में महर्षि वशिष्ठ भगवान श्रीराम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देते हैं।
विद्वानों के मत के अनुसार आत्मा और ईश्वर, लोक और परलोक, सुख और दुःख, जरा और मृत्यु, बंधन और मोक्ष, जीव और जगत, जड़ और चेतन, ब्रह्म और आत्मा, आत्मज्ञान और अज्ञान, सत्य और असत्य, मन और इंद्रियां, धारणा और वासना आदि विषयों पर शायद ही कोई ऐसा ग्रंथ हो जिसमें ‘योगवशिष्ठ महारामायण’ से अधिक गंभीर चिंतन और व्याख्यान किया गया हो।
परंपरा के अनुसार महर्षि वाल्मिकी को योगवशिष्ठ महारामायण का रचयिता माना जाता है, लेकिन वास्तव में ये महर्षि वशिष्ठ हैं। महर्षि वाल्मिकी इस पवित्र ग्रंथ के एकमात्र संकलनकर्ता हैं। योगवशिष्ठ महारामायण में संसार के अस्तित्व और ईश्वर के अस्तित्व को उदाहरणों सहित अच्छी तरह समझाया गया है। इस ग्रंथ में भारद्वाज द्वारा मोक्ष प्राप्ति के लिए किये गये प्रश्नोत्तर का भी वर्णन है।
परिचय:-
योगविशिष्ठ महारामायण 6 कांडों और 458 सर्गों में संपूर्ण है। योगविशिष्ठ की श्लोक संख्या 27687 है। यह ग्रंथ महाभारत, स्कंद पुराण और पद्म पुराण के बाद चौथा सबसे बड़ा हिंदू धर्मग्रंथ है। योगवासिष्ठ ग्रंथ को आर्ष-रामायण, ज्ञानवासिष्ठ, महारामायण, योगवासिष्ठ महारामायण, वशिष्ठ-गीता आदि नामों से भी जाना जाता है।
योगवासिष्ठ की पुस्तक के 6 प्रकरण निम्नलिखित हैं-
वैराग्यप्रकरण (33 सर्ग),
मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण (20 सर्ग),
उत्पत्ति प्रकरण (सर्ग 122),
स्थिति प्रकरण (62 सर्ग),
उपशम प्रकरण (93 सर्ग) और
निर्वाण प्रकरण (प्रारंभिक 128 सर्ग और उत्तरार्ध 216 सर्ग),
योगविशिष्ठ महारामायण में वाल्मिकी रामायण से 4000 श्लोक अधिक हैं, अत: इस ग्रंथ को महारामायण शब्द हर दृष्टि से सार्थक है। इस पुस्तक में भगवान श्री राम के जीवन वृत्तान्त के स्थान पर भगवान द्वारा दिये गये आध्यात्मिक सन्देश दिये गये हैं।
अध्यात्म का अंतिम सोपान श्री वसिष्ठ जी की शिक्षाएं हैं। योगवासिष्ठ संस्कृत साहित्य में अद्वैत वेदांत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें ऋषि वसिष्ठ भगवान राम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देते हैं। यदि न सुलझे तो सुनने की बात बने और न सुलझे तो बार-बार सुनने से बहुत लाभ होगा। अमीर या गरीब होना, विद्वान या अशिक्षित होना, सुंदर या कुरूप होना – ये शाश्वत नहीं हैं।
योगविशिष्ठ महारामायण अत्यधिक आदरणीय है क्योंकि इसमें किसी संप्रदाय विशेष का उल्लेख नहीं है। भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक इसका पाठ मूल और अनुवादित रूप में अनादि काल से चला आ रहा है। भगवद्भक्तों के लिए जो महत्व भागवतपुराण और रामचरितमानस का तथा कर्मयोगियों के लिए भगवद्गीता का है, वही ज्ञानियों के लिए योगवासिष्ठ का है।