भाग:292) देवाधिदेव महादेव भगवान शिव का वैज्ञानिक दृष्टिकोण : शिवोहम् में समाहित सारी सृष्टि
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
नई दिल्ली। शिव आदि योगी हैं, प्रथम गुरु हैं और प्रथम योगी हैं। बहुत कम अवसर होते हैं, जब शिव क्रोध करते हैं, परन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो वे विनाश कर देते हैं।
भगवान शिव सनातन धर्म के सर्वशक्तिमान देवों में से एक हैं। शिव ऐसे अद्भुत देव हैं जो सभी को प्रिय हैं। न तो उन्होंने स्वर्णाभूषण और सुनहरे परिधान पहने हैं, न ही उन्हें विलासितापूर्ण जीवन प्रिय है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि भगवान शिव को संहारक भी कहा गया है। क्या यह विचित्र नहीं है कि वे संहारकर्ता हैं लेकिन सदा ध्यान मुद्रा में लीन रहते हैं? शिव आदि योगी हैं, प्रथम गुरु हैं और प्रथम योगी हैं। बहुत कम अवसर होते हैं, जब शिव क्रोध करते हैं, परन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो वे विनाश कर देते हैं।
प्रश्न यह है कि एक विनाशक के प्रति अत्यधिक प्रेम व श्रद्धा क्यों? वे क्या विनाश करते हैं? भगवान शिव अज्ञान, कामनाओं, मृत्यु, पीड़ा, अहंकार, वासना, मोह-माया और क्रोध का नाश करते हैं। इसलिए भक्त भगवान शिव की शरण में जाते हैं, जो सदा शांत एवं सच्चिदानंद स्वरूप हैं। भगवान शिव को त्रिमूर्ति का महत्त्वपूर्ण देव माना गया है। दो अन्य देव ब्रह्मा एवं विष्णु हैं।
आइए शिव के व्यापक स्वरूप को जानें-समझें। ब्रह्मा इस भौतिक जगत के सृजनकर्ता हैं और ब्रह्मांड के वैज्ञानिक नियमों के जनक हैं। विष्णु संसार के पालनकर्ता हैं। ब्रह्मा द्वारा रचित इस संसार को नष्ट करना उनके लिए असंभव था क्योंकि यह ब्रह्मा के बताए गए सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल होता। इसीलिए ब्रह्मा व विष्णु दोनों अपने-अपने कत्र्तव्यों सृष्टि के सृजन और पालन के लिए प्रतिबद्ध थे। दूसरी ओर महेश यानी शिव सृष्टि के सभी नियमों से परे हैं। विश्व के सभी बंधनों से मुक्त वे परम वैरागी हैं। इसलिए संहार करने की शक्ति शिव में निहित है। ब्रह्मांड में एकमात्र शिव हैं जो द्रव्य को ऊर्जा में बदल सकते हैं।
अल्बर्ट आइंसटीन के वैज्ञानिक सूत्र ई = एमसी2 का अभिप्राय भी यही है कि द्रव्य को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, जब सृष्टि का संहार होता है तो वह ऊर्जा रूप ले लेती है और यह ऊर्जा भगवान शिव है। परस्पर विनिमेय की यह अवस्था ‘शिवोहम्’ कहलाती है। इस प्रकार ब्रह्मांड की सारी ऊर्जाओं का परम स्रोत शिव ही हैं। इसलिए जब हम ब्रह्मांड की बात करते हैं तो व्यापक स्तर पर हम भगवान शिव की ही बात करते हैं।
अब सूक्ष्म परिप्रेक्ष्य में भगवान शिव को समझते हैं। एक चर ब्रह्मांड में ही जीवन की निरंतरता संभव है, अचर ब्रह्मांड में ऐसा संभव नहीं है। ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि उस समय स्थायी नहीं थी। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु ने शिव से आग्रह किया कि वे इस चराचर जगत को स्थायित्व प्रदान करें और शिव ने उनकी विनती स्वीकार ली। जगत को स्थिरता प्रदान करने के लिए भगवान शिव ने द्वैत रूप धारण किया। यह है शिवऔर शक्ति(भगवान शिव की द्विध्रुवीय प्रकृति)। यह भगवान शिव की तरंग-कण द्वैत प्रकृति है, जो भौतिक यथार्थ में विद्यमान है। इस रूप में शिव एक कण हैं और देवी शक्ति एक तरंग। दोनों इस जगत की स्थिरता बनाए रखने के लिए एक-दूसरे को पकड़े हुए हैं। शिव, शक्ति से कभी अलग नहीं हैं। भगवान शिव के इस स्वरूप के कारण ही जीवन सृष्टि का अनिवार्य अंग है।
भगवान शिव हैं योग के आदि प्रवर्तक, शास्त्रों के अनुसार जानिए इतिहास और महत्व भगवान शिव को योग का प्रवर्तक माना जाता है. शिव ने ही मानव मन में योग का बीज बोया. इसलिए शिव को आदियोगी और योग का जन्मदाता या जनक कहा जाता है.
कहा जाता हैं प्रतिदिन योग करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है और आयु में वृद्धि होती है. यह योग का ज्ञान हमें साक्षात भगवान शंकर ने दिया था. चालिए उस पर अब एक शास्त्रीय दृष्टि डालते हैं-
शिव अंक अनुसार, भगवान शिव ही योग के आदिप्रवर्तक हैं, चार मुख्य हैं:– मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग इन चारों के रचेता साक्षात महादेव हैं. शंकर जी के शिक्षा लेने से से मत्स्येन्द्र–नाथ, गोरक्ष–नाथ, शावर–नाथ, तारा–नाथ और गैनी–नाथ आदि अनेक महात्मा एवं योगी, योगबल से सिद्धि को प्राप्त हुए हैं. चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं. शिव अंक अनुसार, ”मनोनाशः परमं पदम्,” मन का नाश ही परमपद हैं. कठोपनिषद् में भी कहा गया है-
“यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्भिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् ॥ मनो जानीहि संसारं तस्मिन् सत्ति जगत्त्रयम् । तस्मिन् क्षीणे जगत् क्षीणं तश्चिकिरस्यं प्रयक्षतः ॥”
अर्थ – जिस काल में योगबल से पांचों ज्ञानेन्द्रियां, छठा मन और सातर्वी बुद्धि सब शिवपद में लय हो जाती हैं, उसे परम गति, मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य और ब्राह्मी स्थिति कहते हैं. मन के उदय से जगत का उदय और मन के लय से जगत का लय होता है.
कुछ योगिक शब्दावली अग्नि पुराण अध्याय क्रमांक 371—376 में वर्णित हैं: –
1) प्राणायाम – भीतर रहने वाली वायु को ‘प्राण’ कहते हैं. उसे रोकने का नाम है- ‘आयाम’. अतः ‘प्राणायाम का अर्थ हुआ – ‘प्राणवायु को रोकना.
2) ध्यान – ‘ध्यैचिन्तायाम्’– यह धातु है. अर्थात ‘ध्यै’ धातु का प्रयोग चिन्तन के अर्थ में होता है. (‘ध्यै ‘से ही ‘ध्यान’ शब्द की सिद्धि होती है) अतः स्थिर चित्त से भगवान विष्णु का बारंबार चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता है. समस्त उपाधियों से मुक्त मानस्वरूप आत्मा का ब्रह्मविचार में परायण होना भी ‘ध्यान’ ही है. ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ‘ध्यान’ कहते हैं. जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिन्तन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ‘ध्यान’ है.
3)समाधि – अग्नि देव कहते हैं- जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशान्त समुद्र की भांति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवा अन्य किसी वस्तु की प्रतीति न होती हो, उस ध्यान को ‘समाधि’ कहते हैं. जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय में लगाकर वायुहीन प्रदेश में जलती हुई अग्निशिखा की भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है, वह योगी ‘समाधिस्थ’ कहा गया है. जो न सुनता है, न सूंघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से दूसरी किसी वस्तु को जानता ही है केवल काष्ठ की भांति अविचलभाव से ध्यान में स्थित रहता है, ऐसे ईश्वर चिन्तन परायण पुरुष को ‘समाधिस्थ’ कहते हैं.
4) आसन- पद्मासन आदि नाना प्रकार के ‘आसन’ बताए गए हैं. आसन बांधकर परमात्मा का चिन्तन करना चाहिए.
5) धारणा- ध्येय वस्तु में जो मन की स्थिति होती है, उसे ‘धारणा’ कहते हैं. ध्यान की ही भांति उसके भी दो भेद है-‘साकार’ और ‘निराकार’. भगवान के ध्यान में जो मन को लगाया जाता है, उसे क्रमशः ‘मूर्त’ और ‘अमूर्त’ धारणा कहते हैं. इस धारणा से भगवान्की प्राप्ति होती है. जो बाहर का लक्ष्य है, उससे मन जबतक विचलित नहीं होता, तब तक किसी भी प्रदेश में मन की स्थिति को ‘धारणा’ कहते हैं.
योग दर्शन 2.29 अनुसार योग के 8 अंग है:– “यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के आठ अंग हैं.”
योगी जिसको ’अनहद’ शब्द कहते हैं, वेदान्ती उसी को ’सूक्ष्म’ नाद कहते हैं, हम उसी को शुद्ध वेद कहते हैं, यह ईश्वर के नाम की महिमा और अनुवाद है. नाम में अनन्त शक्तियां हैं. गुरु के बतलाये मार्ग से जो पुरुष नाम-जप करता है, यह परमानन्दरूपी मुक्ति को पाता है. शिव अंक के अनुसार, शिवजी ने मन के लय होने के सवा लाख साधन बतलाए हैं, उनमें नाम सहित नादानुसन्धान श्रेष्ठ हैं. साक्षात श्रीशियरूप शङ्कराचार्यजी के योगतारावली ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि-
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष-
लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसन्धानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ॥
नादानुसन्धान ! नमोऽस्तु तुभ्यं
त्वां मन्महे तरवपदं लयानाम् । भवत्प्रसादात् पवनेन सार्क
विलीयते विष्णुपदे मनो मे ॥ नासनं सिद्धसदृशं न कुम्भकसमं बलम् ।
न खेचरीसमा मुद्दा न नादसदृशो लयः ॥ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।
अर्थ-भगवान शंकर ने मन लय होने के जो सवा लाख साधन बतलाए हैं उन सब में नाम सहित नादानुसन्धान ही परमोत्तम है. हे नादानुसन्धान ! तुम्हें नमस्कार है. तुम परम पद में स्थित कराते हो. तुम्हारे ही प्रसाद से मेरे प्राणवायु और मन विष्णुपद में लय हो जाएंगे. सिद्धासन से श्रेष्ठ कोई आसन नहीं है. कुम्भक के समान कोई बल नहीं है, खेचरी मुद्रा के तुल्य मुद्रा नहीं है. मन और प्राण को लय करने में नाद के तुल्य कोई सुगम साधन नहीं हैं. योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो सावधान होकर एकाग्र मन से नाद को सुनो.
हे प्रभो ! मेरा चित्त आपके चेतन स्वरूप में लय हो जाय, यही वरदान चाहता हूं. शिवजीकृत ज्ञानसङ्कलिनी ग्रंथ में लिखा है कि-
दृष्टिः स्थिरा यस्य विनैव दृश्यात् वायुः स्थिरो यस्य विना निरोधात् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बात् स एव योगी स गुरु स सेय्यः ॥
अन्तर्लक्ष्यं बहिर ष्टिर्नि में पोन्मेषवर्जिता ।
एषा सा शाम्भवी मुद्रा बेदशास्त्रेषु गोपिता ॥
अर्थ – जिस महापुरुष के नेत्र और पलकें दृश्य का आभय न लेकर भी स्थिर हैं, निरोध के बिना वायु स्थिर है, चित्त बिना अवलम्बन के स्थिर है, इन लक्षणों वाला पुरुष ही योगी हैं. वही गुरु होने योग्य है तथा सेवा करने योग्य हैं. जब मन हृदय में ईश्वर के ध्यान में संलग्न होता है, तथा ध्यान के बलसे नेत्र निमेष-उन्मेष से रहित हो स्थिर हो जाते हैं तो उसको शाम्भवी मुद्रा कहते हैं. शिवजी ने इस मुद्रा का चिरकाल तक अभ्यास किया है, इसी कारण यह उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है.
शिव अंक अनुसार : –
कुण्डलिन्यां समुद्धता गायत्री प्राणधारिणी । प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित् ॥ अनया सदशी विया अनया सदशो जपः । अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ॥ अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी । अस्याः स्मरणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥
अर्थ – कुण्डलिनी शक्ति से गायत्री उत्पन्न होकर प्राण को धारण कर रही है, जो इस गायत्री रूपी प्राण विद्या, महाविद्या को जानता है, वही वेद का ज्ञाता हैं. इसके सदृश विद्या नहीं, इसके तुल्य जप नहीं, इसके समान अपरोक्ष ब्रह्म का अद्वैत ज्ञान करानेवाला सुगम साधन कोई न हुआ है, न है और न होगा. यह अजपा गायत्रीरूपी ईश्वर का नाम, साधक को जीवन्मुक्त कर देता है.
जब साधक सवा कोटि ईश्वर का नाम जप लेता हैं, तब पहले अनहद नाद खुलता है, पीछे शनैः शनैः अभ्यास के बल से दसों नाद खुल जाते हैं. नौ नादों को त्यागकर, दसवें नाद में जो बादल की गर्जना के तुल्य गम्भीर है, साधक का मन पूर्ण लय हो जाता है और उसे ब्रह्म का अपरोक्ष-ज्ञान हो जाता है.
श्रीकृष्ण भगवान ने भागवत में स्पष्ट कहा है कि- विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषजते । मामनुस्मरतधितं सख्येव प्रविलीयते॥
अर्थ- “जो चित्त विषयों का चिन्तन करता है वह चौरासी लाख योनियों में जन्म लेता है और जो चित्त मेरा स्मरण करेगा वह मुझमें लय हो जायगा.” यही मुक्ति है. योग की कलाएं अनन्त हैं. उन सबके पूर्ण ज्ञाता, दया के समुद्र शिवजी हैं. उनमें से कुछ ही योगाधिकारियों के लाभार्थ लिखी जाती हैं. जिससे शरीर निरोग रहे, वीर्य की गति ऊर्ध्व हो, अनि दीप्त हो, नाद प्रकट हो, प्राण-अपान- की एकता हो और नामका निर्विघ्न जप हो.
श्रीकृष्ण भगवान (श्रीमद्भगवतगीता 6.4) के आज्ञानुसार ‘सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते’ (जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता हैं.), इन लक्षणों वाला शम-दमादिसम्पन्न पुरुष योग का अधिकारी हैं. योग के 84 आसन हैं. उनमें सिद्धासन और पद्मासन- ये दो योग साधक हैं, शेष 82 रोग-नाशक हैं. हठयोग के सिद्धासन, प्राणायाम, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, उड्डियानबन्ध, महामुद्रा, विपरीतकरणी आदि मुद्राओं का गुरुदेव के समीप रहकर अभ्यास करना चाहिए.
योग वाशिष्ठ में वशिष्ठजी ने नीचे लिखा हुआ रोगनाशक साधन बतलाया है-
सर्वथाश्मनि तिष्ठेचेत् युक्त्वोर्ध्वाधोगमागमौ । ब्याधिरन्तर्मारुतरोधतः ॥
तजन्तोर्दीयते
अर्थ – जिसका प्राणवायु पूरक-रेचक को त्यागकर कुम्भक में स्थित है, ऐसा आत्मारामी महापुरुष, वायु को अन्दर रोकने से सर्व रोगों के नाश करने में समर्थ हैं.
आज पूरी दुनिया योग को अपना रही हैं जबसे योग फायदे मालूम हुए हैं. योग मोटापा, शुगर, बीपी, हृदय रोग, मानसिक तनाव, आदि सभी रोग ठीक करता है
शिव आदि योगी हैं, प्रथम गुरु हैं और प्रथम योगी हैं। बहुत कम अवसर होते हैं, जब शिव क्रोध करते हैं, परन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो वे विनाश कर देते हैं।
भगवान शिव सनातन धर्म के सर्वशक्तिमान देवों में से एक हैं। शिव ऐसे अद्भुत देव हैं जो सभी को प्रिय हैं। न तो उन्होंने स्वर्णाभूषण और सुनहरे परिधान पहने हैं, न ही उन्हें विलासितापूर्ण जीवन प्रिय है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि भगवान शिव को संहारक भी कहा गया है। क्या यह विचित्र नहीं है कि वे संहारकर्ता हैं लेकिन सदा ध्यान मुद्रा में लीन रहते हैं? शिव आदि योगी हैं, प्रथम गुरु हैं और प्रथम योगी हैं। बहुत कम अवसर होते हैं, जब शिव क्रोध करते हैं, परन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो वे विनाश कर देते हैं।
प्रश्न यह है कि एक विनाशक के प्रति अत्यधिक प्रेम व श्रद्धा क्यों? वे क्या विनाश करते हैं? भगवान शिव अज्ञान, कामनाओं, मृत्यु, पीड़ा, अहंकार, वासना, मोह-माया और क्रोध का नाश करते हैं। इसलिए भक्त भगवान शिव की शरण में जाते हैं, जो सदा शांत एवं सच्चिदानंद स्वरूप हैं। भगवान शिव को त्रिमूर्ति का महत्त्वपूर्ण देव माना गया है। दो अन्य देव ब्रह्मा एवं विष्णु हैं।
आइए शिव के व्यापक स्वरूप को जानें-समझें। ब्रह्मा इस भौतिक जगत के सृजनकर्ता हैं और ब्रह्मांड के वैज्ञानिक नियमों के जनक हैं। विष्णु संसार के पालनकर्ता हैं। ब्रह्मा द्वारा रचित इस संसार को नष्ट करना उनके लिए असंभव था क्योंकि यह ब्रह्मा के बताए गए सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल होता। इसीलिए ब्रह्मा व विष्णु दोनों अपने-अपने कत्र्तव्यों सृष्टि के सृजन और पालन के लिए प्रतिबद्ध थे। दूसरी ओर महेश यानी शिव सृष्टि के सभी नियमों से परे हैं। विश्व के सभी बंधनों से मुक्त वे परम वैरागी हैं। इसलिए संहार करने की शक्ति शिव में निहित है। ब्रह्मांड में एकमात्र शिव हैं जो द्रव्य को ऊर्जा में बदल सकते हैं।
अल्बर्ट आइंसटीन के वैज्ञानिक सूत्र ई = एमसी2 का अभिप्राय भी यही है कि द्रव्य को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार, जब सृष्टि का संहार होता है तो वह ऊर्जा रूप ले लेती है और यह ऊर्जा भगवान शिव है। परस्पर विनिमेय की यह अवस्था ‘शिवोहम्’ कहलाती है। इस प्रकार ब्रह्मांड की सारी ऊर्जाओं का परम स्रोत शिव ही हैं। इसलिए जब हम ब्रह्मांड की बात करते हैं तो व्यापक स्तर पर हम भगवान शिव की ही बात करते हैं।
अब सूक्ष्म परिप्रेक्ष्य में भगवान शिव को समझते हैं। एक चर ब्रह्मांड में ही जीवन की निरंतरता संभव है, अचर ब्रह्मांड में ऐसा संभव नहीं है। ब्रह्मा द्वारा रचित सृष्टि उस समय स्थायी नहीं थी। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु ने शिव से आग्रह किया कि वे इस चराचर जगत को स्थायित्व प्रदान करें और शिव ने उनकी विनती स्वीकार ली। जगत को स्थिरता प्रदान करने के लिए भगवान शिव ने द्वैत रूप धारण किया। यह है शिवऔर शक्ति(भगवान शिव की द्विध्रुवीय प्रकृति)। यह भगवान शिव की तरंग-कण द्वैत प्रकृति है, जो भौतिक यथार्थ में विद्यमान है। इस रूप में शिव एक कण हैं और देवी शक्ति एक तरंग। दोनों इस जगत की स्थिरता बनाए रखने के लिए एक-दूसरे को पकड़े हुए हैं। शिव, शक्ति से कभी अलग नहीं हैं। भगवान शिव के इस स्वरूप के कारण ही जीवन सृष्टि का अनिवार्य अंग है।
भगवान शिव हैं योग के आदि प्रवर्तक, शास्त्रों के अनुसार जानिए इतिहास और महत्व भगवान शिव को योग का प्रवर्तक माना जाता है. शिव ने ही मानव मन में योग का बीज बोया. इसलिए शिव को आदियोगी और योग का जन्मदाता या जनक कहा जाता है.
कहा जाता हैं प्रतिदिन योग करने से स्वास्थ्य ठीक रहता है और आयु में वृद्धि होती है. यह योग का ज्ञान हमें साक्षात भगवान शंकर ने दिया था. चालिए उस पर अब एक शास्त्रीय दृष्टि डालते हैं-
शिव अंक अनुसार, भगवान शिव ही योग के आदिप्रवर्तक हैं, चार मुख्य हैं:– मंत्रयोग, हठयोग, लययोग और राजयोग इन चारों के रचेता साक्षात महादेव हैं. शंकर जी के शिक्षा लेने से से मत्स्येन्द्र–नाथ, गोरक्ष–नाथ, शावर–नाथ, तारा–नाथ और गैनी–नाथ आदि अनेक महात्मा एवं योगी, योगबल से सिद्धि को प्राप्त हुए हैं. चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं. शिव अंक अनुसार, ”मनोनाशः परमं पदम्,” मन का नाश ही परमपद हैं. कठोपनिषद् में भी कहा गया है-
“यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्भिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् ॥ मनो जानीहि संसारं तस्मिन् सत्ति जगत्त्रयम् । तस्मिन् क्षीणे जगत् क्षीणं तश्चिकिरस्यं प्रयक्षतः ॥”
अर्थ – जिस काल में योगबल से पांचों ज्ञानेन्द्रियां, छठा मन और सातर्वी बुद्धि सब शिवपद में लय हो जाती हैं, उसे परम गति, मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य और ब्राह्मी स्थिति कहते हैं. मन के उदय से जगत का उदय और मन के लय से जगत का लय होता है.
कुछ योगिक शब्दावली अग्नि पुराण अध्याय क्रमांक 371—376 में वर्णित हैं: –
1) प्राणायाम – भीतर रहने वाली वायु को ‘प्राण’ कहते हैं. उसे रोकने का नाम है- ‘आयाम’. अतः ‘प्राणायाम का अर्थ हुआ – ‘प्राणवायु को रोकना.
2) ध्यान – ‘ध्यैचिन्तायाम्’– यह धातु है. अर्थात ‘ध्यै’ धातु का प्रयोग चिन्तन के अर्थ में होता है. (‘ध्यै ‘से ही ‘ध्यान’ शब्द की सिद्धि होती है) अतः स्थिर चित्त से भगवान विष्णु का बारंबार चिन्तन करना ‘ध्यान’ कहलाता है. समस्त उपाधियों से मुक्त मानस्वरूप आत्मा का ब्रह्मविचार में परायण होना भी ‘ध्यान’ ही है. ध्येय रूप आधार में स्थित एवं सजातीय प्रतीतियों से युक्त चित्त को जो विजातीय प्रतीतियों से रहित प्रतीति होती है, उसको भी ‘ध्यान’ कहते हैं. जिस किसी प्रदेश में भी ध्येय वस्तु के चिन्तन में एकाग्र हुए चित्त को प्रतीति के साथ जो अभेद-भावना होती है, उसका नाम भी ‘ध्यान’ है.
3)समाधि – अग्नि देव कहते हैं- जो चैतन्य स्वरूप से युक्त और प्रशान्त समुद्र की भांति स्थिर हो, जिसमें आत्मा के सिवा अन्य किसी वस्तु की प्रतीति न होती हो, उस ध्यान को ‘समाधि’ कहते हैं. जो ध्यान के समय अपने चित्त को ध्येय में लगाकर वायुहीन प्रदेश में जलती हुई अग्निशिखा की भांति अविचल एवं स्थिर भाव से बैठा रहता है, वह योगी ‘समाधिस्थ’ कहा गया है. जो न सुनता है, न सूंघता है, न देखता है, न रसास्वादन करता है, न स्पर्श का अनुभव करता है, न मन में संकल्प उठने देता है, न अभिमान करता है और न बुद्धि से दूसरी किसी वस्तु को जानता ही है केवल काष्ठ की भांति अविचलभाव से ध्यान में स्थित रहता है, ऐसे ईश्वर चिन्तन परायण पुरुष को ‘समाधिस्थ’ कहते हैं.
4) आसन- पद्मासन आदि नाना प्रकार के ‘आसन’ बताए गए हैं. आसन बांधकर परमात्मा का चिन्तन करना चाहिए.
5) धारणा- ध्येय वस्तु में जो मन की स्थिति होती है, उसे ‘धारणा’ कहते हैं. ध्यान की ही भांति उसके भी दो भेद है-‘साकार’ और ‘निराकार’. भगवान के ध्यान में जो मन को लगाया जाता है, उसे क्रमशः ‘मूर्त’ और ‘अमूर्त’ धारणा कहते हैं. इस धारणा से भगवान्की प्राप्ति होती है. जो बाहर का लक्ष्य है, उससे मन जबतक विचलित नहीं होता, तब तक किसी भी प्रदेश में मन की स्थिति को ‘धारणा’ कहते हैं.
योग दर्शन 2.29 अनुसार योग के 8 अंग है:– “यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के आठ अंग हैं.”
योगी जिसको ’अनहद’ शब्द कहते हैं, वेदान्ती उसी को ’सूक्ष्म’ नाद कहते हैं, हम उसी को शुद्ध वेद कहते हैं, यह ईश्वर के नाम की महिमा और अनुवाद है. नाम में अनन्त शक्तियां हैं. गुरु के बतलाये मार्ग से जो पुरुष नाम-जप करता है, यह परमानन्दरूपी मुक्ति को पाता है. शिव अंक के अनुसार, शिवजी ने मन के लय होने के सवा लाख साधन बतलाए हैं, उनमें नाम सहित नादानुसन्धान श्रेष्ठ हैं. साक्षात श्रीशियरूप शङ्कराचार्यजी के योगतारावली ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा है कि-
सदाशिवोक्तानि सपादलक्ष-
लयावधानानि वसन्ति लोके ।
नादानुसन्धानसमाधिमेकं मन्यामहे मान्यतमं लयानाम् ॥
नादानुसन्धान ! नमोऽस्तु तुभ्यं
त्वां मन्महे तरवपदं लयानाम् । भवत्प्रसादात् पवनेन सार्क
विलीयते विष्णुपदे मनो मे ॥ नासनं सिद्धसदृशं न कुम्भकसमं बलम् ।
न खेचरीसमा मुद्दा न नादसदृशो लयः ॥ सर्वचिन्तां परित्यज्य सावधानेन चेतसा ।
नाद एवानुसन्धेयो योगसाम्राज्यमिच्छता ।
अर्थ-भगवान शंकर ने मन लय होने के जो सवा लाख साधन बतलाए हैं उन सब में नाम सहित नादानुसन्धान ही परमोत्तम है. हे नादानुसन्धान ! तुम्हें नमस्कार है. तुम परम पद में स्थित कराते हो. तुम्हारे ही प्रसाद से मेरे प्राणवायु और मन विष्णुपद में लय हो जाएंगे. सिद्धासन से श्रेष्ठ कोई आसन नहीं है. कुम्भक के समान कोई बल नहीं है, खेचरी मुद्रा के तुल्य मुद्रा नहीं है. मन और प्राण को लय करने में नाद के तुल्य कोई सुगम साधन नहीं हैं. योग-साम्राज्य में स्थित होने की इच्छा हो तो सावधान होकर एकाग्र मन से नाद को सुनो.
हे प्रभो ! मेरा चित्त आपके चेतन स्वरूप में लय हो जाय, यही वरदान चाहता हूं. शिवजीकृत ज्ञानसङ्कलिनी ग्रंथ में लिखा है कि-
दृष्टिः स्थिरा यस्य विनैव दृश्यात् वायुः स्थिरो यस्य विना निरोधात् ।
चित्तं स्थिरं यस्य विनावलम्बात् स एव योगी स गुरु स सेय्यः ॥
अन्तर्लक्ष्यं बहिर ष्टिर्नि में पोन्मेषवर्जिता ।
एषा सा शाम्भवी मुद्रा बेदशास्त्रेषु गोपिता ॥
अर्थ – जिस महापुरुष के नेत्र और पलकें दृश्य का आभय न लेकर भी स्थिर हैं, निरोध के बिना वायु स्थिर है, चित्त बिना अवलम्बन के स्थिर है, इन लक्षणों वाला पुरुष ही योगी हैं. वही गुरु होने योग्य है तथा सेवा करने योग्य हैं. जब मन हृदय में ईश्वर के ध्यान में संलग्न होता है, तथा ध्यान के बलसे नेत्र निमेष-उन्मेष से रहित हो स्थिर हो जाते हैं तो उसको शाम्भवी मुद्रा कहते हैं. शिवजी ने इस मुद्रा का चिरकाल तक अभ्यास किया है, इसी कारण यह उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध है.
शिव अंक अनुसार : –
कुण्डलिन्यां समुद्धता गायत्री प्राणधारिणी । प्राणविद्या महाविद्या यस्तां वेत्ति स वेदवित् ॥ अनया सदशी विया अनया सदशो जपः । अनया सदृशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति ॥ अजपा नाम गायत्री योगिनां मोक्षदायिनी । अस्याः स्मरणमात्रेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥
अर्थ – कुण्डलिनी शक्ति से गायत्री उत्पन्न होकर प्राण को धारण कर रही है, जो इस गायत्री रूपी प्राण विद्या, महाविद्या को जानता है, वही वेद का ज्ञाता हैं. इसके सदृश विद्या नहीं, इसके तुल्य जप नहीं, इसके समान अपरोक्ष ब्रह्म का अद्वैत ज्ञान करानेवाला सुगम साधन कोई न हुआ है, न है और न होगा. यह अजपा गायत्रीरूपी ईश्वर का नाम, साधक को जीवन्मुक्त कर देता है.
जब साधक सवा कोटि ईश्वर का नाम जप लेता हैं, तब पहले अनहद नाद खुलता है, पीछे शनैः शनैः अभ्यास के बल से दसों नाद खुल जाते हैं. नौ नादों को त्यागकर, दसवें नाद में जो बादल की गर्जना के तुल्य गम्भीर है, साधक का मन पूर्ण लय हो जाता है और उसे ब्रह्म का अपरोक्ष-ज्ञान हो जाता है.
श्रीकृष्ण भगवान ने भागवत में स्पष्ट कहा है कि- विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषजते । मामनुस्मरतधितं सख्येव प्रविलीयते॥
अर्थ- “जो चित्त विषयों का चिन्तन करता है वह चौरासी लाख योनियों में जन्म लेता है और जो चित्त मेरा स्मरण करेगा वह मुझमें लय हो जायगा.” यही मुक्ति है. योग की कलाएं अनन्त हैं. उन सबके पूर्ण ज्ञाता, दया के समुद्र शिवजी हैं. उनमें से कुछ ही योगाधिकारियों के लाभार्थ लिखी जाती हैं. जिससे शरीर निरोग रहे, वीर्य की गति ऊर्ध्व हो, अनि दीप्त हो, नाद प्रकट हो, प्राण-अपान- की एकता हो और नामका निर्विघ्न जप हो.
श्रीकृष्ण भगवान (श्रीमद्भगवतगीता 6.4) के आज्ञानुसार ‘सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते’ (जब (साधक) न इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में आसक्त होता है तब सर्व संकल्पों के संन्यासी को योगारूढ़ कहा जाता हैं.), इन लक्षणों वाला शम-दमादिसम्पन्न पुरुष योग का अधिकारी हैं. योग के 84 आसन हैं. उनमें सिद्धासन और पद्मासन- ये दो योग साधक हैं, शेष 82 रोग-नाशक हैं. हठयोग के सिद्धासन, प्राणायाम, मूलबन्ध, जालन्धरबन्ध, उड्डियानबन्ध, महामुद्रा, विपरीतकरणी आदि मुद्राओं का गुरुदेव के समीप रहकर अभ्यास करना चाहिए.
योग वाशिष्ठ में वशिष्ठजी ने नीचे लिखा हुआ रोगनाशक साधन बतलाया है-
सर्वथाश्मनि तिष्ठेचेत् युक्त्वोर्ध्वाधोगमागमौ । ब्याधिरन्तर्मारुतरोधतः ॥
तजन्तोर्दीयते
अर्थ – जिसका प्राणवायु पूरक-रेचक को त्यागकर कुम्भक में स्थित है, ऐसा आत्मारामी महापुरुष, वायु को अन्दर रोकने से सर्व रोगों के नाश करने में समर्थ हैं.
आज पूरी दुनिया योग को अपना रही हैं जबसे योग फायदे मालूम हुए हैं. योग मोटापा, शुगर, बीपी, हृदय रोग, मानसिक तनाव, आदि सभी रोग ठीक करता है