वैकुण्ठ साकेतधाम से इस भूधरा मे प्रथम देव श्रीगणेश भगवान के आगमन से उत्साह
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
साकेत से इस पावन पुनीत भूधरा यानी मृत्यू लोक में प्रथम देवता श्रीगणेश भगवान का आगमन हो गया है। तो आइये हम सब सभी मतभेद ऊंच-नीच और जाति लिंग भेद को भुलाकर भगवान श्रीगणेश की आराधना वन्दन अभिनंदन और सुस्वागम करते हैं।
भगवान श्री गणेशजी की वंदना ,आरती, प्रार्थना और आराधना निम्नलिखित अनुसार है:-
मनुष्य भगवन श्री गणेश उपासना कर रिद्धि सिद्धि सद बुद्धि प्राप्त करता है जिनकी कृपा से मोक्ष की इच्छा रखने वालों की अज्ञानमय बुद्धि का नाश होता है, जिनसे भक्तों को संतोष पहुंचाने वाली संपदाएं प्राप्त होती हैं, जिनसे विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं और कार्य में सफलता मिलती है, ऐसे गणेश जी का हम सदैव नमन करते हैं, उनका भजन करते हैं।
|| गणेश स्तोत्र||
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी विनायकम् । भक्तावासं स्मेर नित्यमाय्ः कामार्थसिद्धये ॥१॥
प्रथमं वक्रतुडं च एकदंत द्वितीयकम् । तृतियं कृष्णपिंगाक्षं गजववत्रं चतुर्थकम् ॥२॥
लंबोदरं पंचम च पष्ठं विकटमेव च । सप्तमं विघ्नराजेंद्रं धूम्रवर्ण तथाष्टमम् ॥३॥
नवमं भाल चंद्रं च दशमं तु विनायकम् । एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजानन् ॥४॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यंयः पठेन्नरः । न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो ॥५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् । पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥ ६ ॥
जपेद्णपतिस्तोत्रं षडिभर्मासैः फलं लभते । संवत्सरेण सिद्धिंच लभते नात्र संशयः ॥७॥
अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा फलं लभते । तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥८॥
॥ इति श्री नारद पुराणे संकष्टनाशनं नाम श्री गणपति स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
|| श्री गणेश वंदना||
हे गणपति देव
तुम्हें प्रणाम।हे धूम्रवर्ण
जीवन के आधार
तेरी जय हो।
हे भालचन्द्र
विघ्न के विनाशक
मोदक भोग।
हे गौरी सुत
रिद्धि-सिद्धि के भर्ता
नमस्करोमि।
कृष्णपिंगाक्ष
सुर: प्रियाय: नम:
लम्बोदराय।
हे महाकाय
सर्व विघ्नशामक
रक्षा कवच।
एकदन्ताय
सर्व शांतिकारक
शुभं करोति।
गणाधिपति
आत्मा के मूर्तिमान
स्वरूप तुम।
गजमस्तक
बुद्धि बल के स्वामी
विस्तीर्ण कर्ण।
हे विनायक
ज्ञान, विवेक, शील
साक्षात ब्रह्म।
विघ्नराजेन्द्रं
मस्तक है विशाल
कुशाग्र बुद्धि।
उन विघ्न-विनाशक गणाधिपति (गणेश) देव के प्रति मैं नमन करता हूं । गणेश (= गण+ईश) को भगवान् शिव के गणों (अनुचरों) का अधिपति या स्वामी कहा जाता है ।
स जयति सिन्धुरवदनो देवो यत्पादपङ्कजस्मरणम् ।
वासरमणिरिव तमसां राशीन्नाशयति विघ्नानाम् ॥
(सः जयति सिन्धुर-वदनः देवः यत्-पाद-पङ्कज-स्मरणम् वासर-मणिः-इव तमसाम् राशीन् नाशयति विघ्नानाम् ।)
जिस प्रकार सूर्य अंधकार को दूर भगाता है वैसे ही जिसके चरण-कमलों का स्मरण विघ्नों के समूह का नाश करता है, हाथी के मुख वाले ऐसे देव (गणेश) की जय हो । वासरमणि का अर्थ वस्तुतः क्या है यह मुझे नहीं मालूम, किंतु मैंने इसका अर्थ दिन की मणि अथवा सूर्य माना है । सिंधुर = हाथी, वदन = मुख ।
गजाननं भूतगणाधिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् ।
उमासुतं शोकविनाशकारकम् नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥
(गज-आननम् भूत-गण-अधिसेवितम् कपित्थ-जम्बू-फल-चारु-भक्षणम् उमा-सुतम् शोक-विनाश-कारकम् नमामि विघ्नेश्वर-पाद-पङ्कजम् ।)
हाथी के मुख वाले, भूत-गणों के द्वारा सेवित, कैथ एवं जामुन का चाव से भक्षण करने वाले, शोक (दुःख या कष्ट) के नाशकर्ता, उमा-पुत्र का मैं नमन करता हूं, विघ्नों के नियंता श्री गणेश के चरण-कमलों के प्रति मेरा प्रणमन । भूतगण = भगवान् शिव के अनुचर । गणेश को मोदकप्रिय (लड्डुओं के शौकीन) तो कहा ही जाता है, इस श्लोक से प्रतीत होता है कि उन्हें कैथ तथा जामुन के फल भी प्रिय हैं ।
यतो बुद्धिरज्ञाननाशो मुमुक्षोः यतः सम्पदो भक्तसन्तोषिकाः स्युः ।
यतो विघ्ननाशो यतः कार्यसिद्धिः सदा तं गणेशं नमामो भजामः ॥
(यतः बुद्धिः-अज्ञान-नाशः मुमुक्षोः यतः सम्पदः भक्त-सन्तोषिकाः स्युः यतः विघ्न-नाशः यतः कार्य-सिद्धिः सदा तम् गणेशम् नमामः भजामः ।)
जिनकी कृपा से मोक्ष की इच्छा रखने वालों की अज्ञानमय बुद्धि का नाश होता है, जिनसे भक्तों को संतोष पहुंचाने वाली संपदाएं प्राप्त होती हैं, जिनसे विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं और कार्य में सफलता मिलती है, ऐसे गणेश जी का हम सदैव नमन करते हैं, उनका भजन करते हैं।
॥ गणेश जी की आरती ॥
शिवनंदन दीनदयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
महाराज तुम्हारी जय होवे,
शिव नंदन दीन दयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे ||
इक छत्र तुम्हारे सिर सोहे,
एकदंत तुम्हारा मन मोहे,
शुभ लाभ सभी के दाता हो,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
शिव नंदन दीन दयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे ||
ब्रम्हा बन कर्ता हो तुम ही,
विष्णु बन भर्ता हो तुम ही,
शिव बन करके संहार हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
शिव नंदन दीन दयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे ||
हर डाल में तुम हर पात में तुम,
हर फूल में तुम हर मूल में तुम,
संसार में बस एक सार हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
शिव नंदन दीन दयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे ||
शिवनंदन दीनदयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे,
शिव नंदन दीन दयाल हो तुम,
गणराज तुम्हारी जय होवे ||
॥ गणेश जी की आरती ॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा माता जाकी पार्वती पिता महादेवा ॥
एकदन्त दयावन्त चारभुजाधारी माथे पर तिलक सोहे मूसे की सवारी माथे पर सिन्दूर सोहे, मूसे की सवारी पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा हार चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा लड्डुअन का भोग लगे सन्त करें सेवा ॥ जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा
अँधे को आँख देत कोढ़िन को काया बाँझन को पुत्र देत निर्धन को माया । ‘सूर’ श्याम शरण आए सफल कीजे सेवा माता जाकी पार्वती पिता महादेवा ॥
दीनन की लाज राखो, शम्भु सुतवारी कामना को पूर्ण करो, जग बलिहारी ॥
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती पिता महादेवा ॥
॥ गणेश जी की आरती ॥
गणपति की सेवा मंगल मेवा,
सेवा से सब विध्न टरें |
तीन लोक तैतिस देवता,
द्वार खड़े सब अर्ज करे ||
ऋद्धि-सिद्धि दक्षिण वाम विराजे,
अरु आनन्द सों चवर करें |
धूप दीप और लिए आरती,
भक्त खड़े जयकार करें ||
गुड़ के मोदक भोग लगत है,
मुषक वाहन चढ़ा करें |
सौम्यरुप सेवा गणपति की,
विध्न भागजा दूर परें ||
भादों मास और शुक्ल चतुर्थी,
दिन दोपारा पूर परें |
लियो जन्म गणपति प्रभुजी ने,
दुर्गा मन आनन्द भरें ||
अद्भुत बाजा बजा इन्द्र का,
देव वधू जहँ गान करें |
श्री शंकर के आनन्द उपज्यो,
नाम सुन्या सब विघ्न टरें ||
आन विधाता बैठे आसन,
इन्द्र अप्सरा नृत्य करें |
देख वेद ब्रह्माजी जाको,
विघ्न विनाशक नाम धरें ||
एकदन्त गजवदन विनायक,
त्रिनयन रूप अनूप धरें |
पगथंभा सा उदर पुष्ट है,
देख चन्द्रमा हास्य करें ||
दे श्राप श्री चंद्रदेव को,
कलाहीन तत्काल करें |
चौदह लोक मे फिरे गणपति,
तीन लोक में राज्य करें ||
उठ प्रभात जो आरती गावे,
ताके सिर यश छत्र फिरें |
गणपति जी की पूजा पहले करनी,
काम सभी निर्बिघ्न करें |
श्री गणपति जी की
हाथ जोड़कर स्तुति करें |
गणपति की सेवा मंगल मेवा,
सेवा से सब विध्न टरें |