(भाग:339) साधू संत-मुनि महात्माओं को भोजन प्रसाद करवाने के नियम
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
चातुर्मासीय संतों के आहार नियम इतने सख्त कि आधे समय उपवास पर ही रहते हैं
चातुर्मासीय संतों के आहार नियम इतने सख्त कि आधे समय उपवास पर ही रहते हैं
समग्र जैन समाज इन दिनों चातुर्मास में व्यस्त है। शहर में 8 दिगंबर संत व 23 श्वेतांबर संत व साध्वियां चातुर्मास कर रहे हैं। चातुर्मास ही एक ऐसा पर्व आता है जब संत विहार नहीं करते बल्कि एक ही जगह रहते हैं। ताकि बारिश के दिनों में जीव हिंसा नहीं हो। संत जहां रह रहे हैं वहां के लोगों के लिए संतों को भोजन करवाना बड़ा पुण्य तो है ही साथ ही चुनौती भरा भी है। कारण, संतों व साध्वियों ने आहार नियम इतने कड़े बनाए हुए हैं कि उन्हें आसानी से पूरे ही नहीं किए जा सकते। यानि संतों के लिए भोजन के लिए नहीं बल्कि सिर्फ जीवन जीने का माध्यम है। जैन साधुओं ने कंद मूल व फल का त्याग किया हुआ है। हरी सब्जियां निषेध है। दही भी चांदी का सिक्का अथवा नारियल का टुकड़ा डालकर जमाया जाता है। साधुओं ने घी, तेल, नमक, मीठा व तीखा का त्याग किया हुआ है। खड़े होकर 24 घंटे में एक बार आंदली में आहार लेते हैं। तभी उबला हुआ पानी पीते हैं, उसके बाद कुछ भी सेवन नहीं करते। यही नहीं कुछ साधु व साध्वियां तो उन घरों पर आहार नहीं लेते जिनके घरों में बाहर खाना पीने का चलन हो।
विधि लेकर ही आहार के लिए निकले हैं संत, अन्यथा उपवास
दिगंबर संत आहार के लिए मंदिर जाते हैं तो जो विधि लेते हैं। जिसमें अपने मन में एक छवि सोच लेते हैं, मंदिर में आहार करवाने वाले लोग उस तरह के मिलते हैं तभी संत आहार ग्रहण करेंगे अन्यथा उपवास ही कर लेंगे। जैसे मुनिश्री ने सोच लिया कि कोई व्यक्ति हाथ में कलश लेकर मिलेगा उसी के यहां आहार लेंगे अथवा किसी ने विधि ले ली कि मंदिर से दसवें घर पर ही आहार लेंगे और वहां व्यक्ति मिला ही नहीं तो वापस लौट जाएंगे और व्रत पर ही रहेंगे। श्रावक गण अलग अलग सामग्री व विधि से पडगाहन (आमंत्रण) करते हैं। विधि मिलने पर आहार के लिए चौके में जाते हैं।
हमारे लिए भोजन व व्यंजन स्वाद के लिए, जैन संतों के लिए सिर्फ जीवन जीने के लिए ही जरूरी, 24 घंटे में एक बार अल्प आहार ही लेते हैं साधु साध्वी और मुनियों का शहर में संतों के आहार चर्या के नियम कायदे
आर्यिका गौरवमती माताजी के संघ का चातुर्मास ज्योति नगर के जनकपुरी में
आहारचर्या : माताजी केवल सिगड़ी पर पका हुआ भोजन ही करती हैं। उसमें भी कुएं के पानी से बना आहार लेती है। साथ ही जिन श्रावकों ने आजीवन सूतक जल (बाहर के बने खाने)का त्याग किया हुआ है केवल उन्हीं के यहां आहार लेती है। जबकि चूल्हे व बोरिंग के पानी से बने खाने का आजीवन त्याग, ड्राय फ्रूट का त्याग है।
आर्यिका विज्ञाश्री माताजी का चातुर्मास वरुण पथ दिगंबर जैन मंदिर मानसरोवर
आहारचर्या : करेला, कद्दू, भिंडी, गवार फल्ली, राजमा, खिन्नी, तेंदुफ़ल, अखरोट, रामफल, आइसक्रीम, सोयाबीन, कुन्दरू, तेल, दही, फ्रिज में रखी गई हर वस्तु, चीकू, आलूबुखारा, कमरख, अंगीठा, अष्टमी व चतुर्दर्शी को दूध, छाछ व हरी का त्याग, सभी प्रकार की हरी पत्ती वाली सब्जियों का त्याग, चार रसों में से किसी एक रस का त्याग, शीतल जल ग्रहण नहीं करती।
व्रत व उपवास : आर्यिका विज्ञाश्री माताजी त्याग को अधिक महत्व देती है वे अब तक कर्म दहन के 148 उपवास, णमोकार मंत्र के 35, भक्तामर के 48, सहस्त्रनाम के 11, तत्वार्थसूत्र के 10, आकाश पंचमी के 5, जिन गुण सम्पति के 63, गणधरवलय के 48, मोक्ष सप्तमी के 7 उपवास कर चुकी है। इसी तरह अष्टाह्निका पर्व (तीनों शाखा) में आठ दिनों तक अनाज के आहार का त्याग रखती है, तथा एक दिन छोड़ कर उपवास करती है।
मुनि निर्मोह सागर महाराज का चातुर्मास बरकत नगर के णमोकार भवन में
आहारचर्या : वे अन्न में गेहूं, मक्का, ज्वार, चना, जौ व बाजरा व इससे बनी वस्तुएं ग्रहण नहीं करते। इसी तरह फलों में आम, जामुन, कच्चा नारियल, अमरुद नहीं खाते। साथ ही सब्जी में चवला फली, गंवार फली, भिंडी, टमाटर, हरी मिर्च व भुट्टा आदि का सेवन नहीं करते। रविवार को नमक और अष्टमी व चतुर्दशी को हरी सब्जियां व फल का पूर्ण त्याग कर रखा है। इसी तरह कूकर में बना हुअा भोजन निषेध है। महाराज दिन में एक बार एक ही आसन्न में एक बार भोजन व पानी ग्रहण करते हैं। सुबह साढ़े 9 बजे शुद्धि करके मंदिर जाते हैं वहां अपने नियम व विधि के मुताबिक ही भोजन लेते हैं।
पारस मुनि का चातुर्मास वर्धमान स्थानकवासी संघ के लाल भवन में
आहार चर्या : 67 वर्षीय पारस मुनि श्वेतांबर परिवारों के घरों पर जाते हैं। घर का मुख्यद्वार बंद मिलता है तो लौट जाते हैं। जिस घर में सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं वहां आहार नहीं लेते। आहार के रूप में घरों में बना हुआ भोजन उसमें भी प्रत्येक घर से आधी अथवा एक रोटी लेते हैं। उबला हुआ पानी ग्रहण करते हैं और घी बिल्कुल भी नहीं लेते।
ऐसे लिया जाता है आहार
जैन धर्म में दिगंबर मुनिराज प्रतिदिन एक बार निर्दोष चर्या से पाणि पात्र व करपात्र (दोनों हाथों की अंजुली बनाकर) अर्थात हाथ में खड़े खड़े आहार और पानी ग्रहण करते हैं। इनका पडगाहन जैन श्रावकों द्वारा नवधा भक्ति पूर्वक किया जाता है। इसमें किसी प्रकार का अंतराय आने पर वह आहार और पानी का अगले दिन पर्यंत त्याग कर देते हैं और उसके पश्चात दूसरे दिन आहार और पानी इसी विधि से ग्रहण करते हैं। जबकि आर्यिका माताजी बैठकर आहार ग्रहण करती हैं और वह भी चौबीस घंटे में एक ही बार अन्न व जल लेती हैं। और इसी प्रकार का अंतराय (विघ्न) आदि आने पर अगले दिवस अन्न जल ग्रहण करती हैं।