मनुष्य के किए हुए शुभ या अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है! : गोस्वामी जी के विचार

मनुष्य के रूप में अच्छे कर्म के अभ्यास के द्वारा हमारे पास हमारी आध्यात्मिक प्रगति की गति को त्वरित करने के अवसर हैं। ज्ञान और स्पष्टता की हमारी कमी के कारण हम नकारात्मक कर्म को जन्म देते हैं। दयाहीनता खराब फल पैदा करती है, जिसे पाप कहते हैं और अच्छे कर्म से मीठे फलों की प्राप्ति होती है, जिसे पुण्य कहते हैं।
कर्म का सिद्धांत अत्यंत कठोर है। जहां अच्छे कर्म व्यक्ति के जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं, वहीं बुरे कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं। धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य को किए हुए शुभ या अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने बताया है कि मनुष्य को किए हुए शुभ या अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है
धर्म शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को किए हुए शुभ या अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित मानस के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि

*कर्म प्रधान विश्व करि राखा।। जो जस करहि तो फल चाखा।।*
*सकल पदारध है जग माही।।कर्म हीन नर पावत नाही*

*अर्धात जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भुगतना पड़ता है। इस संसार मे सभी प्रकार के पदार्थ उपलव्ध हैं। परंतु कर्महीन मनुष्य उसे प्राप्त नहीं कर सकता है*
इसलिए सत्कर्म नितांत आवश्यक है कि हम अपने कर्मो का लेखा-जोखा करें। हमारा अगला जन्म किस प्राणी के रूप में होगा, यह सब कुछ हमारे कर्मो पर सकता है निर्भर करता है।
अनेक जन्मों में किए हुए कर्म हमारे अंत:करण में संग्रहीत रहते हैं। वे संचित कर्म कहलाते हैं और उनसे ही प्रारब्ध बनता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म को प्रधानता देते हुए यहां तक स्पष्ट किया है कि व्यक्ति की यात्र जहां से छूटती है, अगले जन्म में वह वहीं से प्रारंभ होती है। जो प्रकृति के नियमों का पालन करता है। वह परमात्मा के करीब है, लेकिन ध्यान रहे यदि परमात्मा भी मनुष्य के रूप में अवतरित होता है तो वह उन सारे नियमों का पालन करता है जो सामान्य मनुष्यों के लिए हैं। लौकिक और पारमार्थिक कर्मो के द्वारा उस परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए, पर उन किए हुए कर्मो और संसाधनों के प्रति अपनी आसक्ति न बढ़ाएं।
मात्र यह मानें कि मेरे पास जो कुछ है, उस परमात्मा का दिया हुआ है। हम निमित्त मात्र हैं। तो बात बनते देर नहीं लगती है। कर्म को पूजा मानते हुए व्यक्ति जब राग-द्वेष को मिटा देता है तब उसके स्वभाव की शुद्धि होती है। उसके लिए समूची वसुधा एक परिवार दिखती है। उसका हर कर्म समाज के हित के लिए होता है। साधारण तौर पर हम कह सकते हैं कि कर्म किए बगैर व्यक्ति किसी भी क्षण नहीं रह सकता है। कर्म हमारे अधीन हैं, उसका फल नहीं। महापुरुष और ज्ञानी जन हमेशा से कहते रहे हैं कि अच्छे कर्र्मो को करने और बुरे कर्मो का परित्याग करने में ही हमारी भलाई है। किसी संत से एक व्यक्ति ने पूछा कि आपके जीवन में इतनी शांति, प्रसन्नता और उल्लास कैसे है? इस पर संत ने मुस्कराते हुए कहा था कि अपने कर्मो के प्रति यदि आप आज से ही सजग और सतर्क हो जाते हैं, तो यह सब आप भी पा सकते हैं। सारा खेल कर्र्मो का है। हम कर्म अच्छा करते नहीं और फल बहुत अच्छा चाहते हैं। यह भला कैसे संभव होगा?

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