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(भाग-16) पृथ्वी पर अधर्म और अन्याय बढता है तब अधर्मियों का नाश करने भगवान अवतरित होते है

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श्रीमद् भगवत गीता मे भगवान श्री कृष्णचंद्र ने ये ज्ञान सूर्य को बताया था, और वो बताते है कि ये ज्ञान बहुत ही गुप्त है। ये ज्ञान करोड़ो वर्ष पहले सूर्य को दिया था और “समय के साथ अधर्म के बढ़ते” हुए ये ज्ञान विलुप्त हो गया।

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ये ज्ञान बहुत ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है। दोस्तो यहाँ गुप्त से मतलब है कि इस ज्ञान का अनादर नही होना चाहिए अर्थात हमें इस ज्ञान को जानने के बाद अपने जीवन में लागू करना चाहिए। ये ज्ञान भगवान अर्जुन को उनका भक्त होने के कारण देते हैं। और ये ज्ञान आज हम तक आ रहा है ये भी श्री कृष्ण कृपा हि है की हमे ये गुप्त रहस्य मिला है तो हमे अवश्य इसका लाभ उठाना चाहिए ।

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जब भगवान अर्जुन को बताते है कि ये ज्ञान पहले उन्होंने सूर्य को दिया था तो अर्जुन के मन एक संशय उत्तपन्न होता है। वो पूछते है, हे मधुसूदन ! आपका जन्म तो अर्वाचीन- हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में ही हो चुका था। भगवन कहते अर्जुन ये तू जनता है की मेरा जनम अभी का है परन्तु यह अधूरा सत्य है। भगवान अर्जुन की दुविधा दूर करते हुए एक ओर रहस्य बताते हैं। वह बताते है कि मैं अजन्मा, अविनाशी और समस्त प्राणियों का ईश्वर हूँ। और मैं हर युग में अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ। अर्थात श्री गीता ज्ञान भगवान पहले भी दे चुके है और आगे भी समय समय पर अधर्म बढ़ने पर जन कल्याण के लिए देते रहेंगे।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिभर्वति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम

जब जब धर्म की हानि होती है और नीच, अहंकारी व्यक्ति बढ़ जाते हैं, और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि
वर्णन नहीँ हो सकता,तथा असहाय व्यक्ति,पशु आदि कष्ट पाते हैं, तब तब वे कृपा निधान प्रभु, अपनी योग माया से दिव्य शरीर धारण कर,समाज की पीड़ा को हरते हैं। सृष्टि में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते है जो भ्रष्टाचारी (Corrupted) होते हैं और खुद को ईश्वर समझते हैं और किसी भी गलत काम से नही डरते हैं। तो इस प्रकार के व्यक्ति को दंड देने के लिए भगवान आते हैं।

अब भगवान बताते है कि जब व्यक्ति काम, क्रोध, मद और लोभ में फंसकर दूसरे लोगो का अहित शुरू कर देता है। वो तीनो लोकों में सजा पाता है। लेकिन यदि व्यक्ति काम, क्रोध, मद और लोभ को खत्म कर खुद को श्रीकृष्ण को समर्पित कर देते है तो वो मोक्ष प्राप्त करते हैं। भगवान अर्जुन से कहते है कि जो मनुष्य मुझे निरन्तर ध्यान करते हैं उनके सभी अवगुणों को हर लेता हूँ।

मन की शांति कैसे पाएं
भगवान बताते है कि मन की शांति पाने के लिए कर्म के फल से बचना चाहिए। उदारहण से समझते है मान लीजिये आपकी दस दिन बाद परीक्षा है, तो भगवान हमें यहाँ समझते है कि हमें परीक्षा के परिणाम के विषय न सोच कर, परीक्षा के लिए मेहनत करनी चाहिए। क्योंकि हम परीक्षा के परिणाम के बारे में सोचते हैं तो हपरीक्षा की तैयारी नष्ट हो जाती है और बुद्धि विचलित हो जाती है। इसलिए भगवान हमें बताते हैं कि हमें निष्काम कर्म करना चाहिए। निष्काम कर्म वो कर्म होता है जिस कर्म को भगवान का समरण करके उसके फल में आसक्ति न रख कर किया जाता है। ये कर्म सदैव भगवन की सेवा में होता है और ऐसे कर्मो का फल भी भगवन स्वयं भक्त को देते है।

आगे भगवान कर्म और अकर्म में भेद बताते हैं। कर्म का अर्थ होता है कुछ करना और अकर्म का अर्थ होता है कुछ करके भी न करना अर्थात कर्म तथा कर्म के फल को, दोनो श्री भगवान के चरणों में समर्पित कर देना, अकर्म कहलाता है। और अकर्म करने वाले व्यक्ति से भगवान विकर्म करवाते है, यहाँ विकर्म का अर्थ विशेष कर्म से है।

योगी की सम्पूर्ण अवस्था
जो व्यक्ति शास्त्रों के अनुआर कर्म करता है वह यानि पंडित होते है ऐसे व्यक्ति के सभी कर्म शून्य हो जाते है। अर्थात ऐसा व्यक्ति खूब उन्नति तो पाता है लेकिन उस पर अंहकार न करते हुए उस कर्म को और उसके फल को, दोनो को श्री भगवान के चरणों रखता है वो मोक्ष की प्राप्ति करता है और तीनो लोकों का सुख पाता है। ऐसे व्यक्ति आशा रहित होते है और मन पर विजय पाकर कर्तव्य कर्म ही करते है। कुछ योगी इतने श्रेष्ठ होते हैं कि वो परब्रह्म की स्थिति को समझ लेते हैं और अपनी श्वास के आने और जाने पे नियत्रण पा लेते हैं।

इस भाग के सार को समझे तो उसका अर्थ है की कर्तव्य कर्म और भौतिकता वाद हि संसार से जोड़ते है अब इससे बचने के लिए अर्थार्थ जनम मरण से बचने के लिए भगवान ज्ञान देते है। जो मनुष्य सन्यास को समझ लेता है अर्थार्थ जान जाता है की संसार की विषय वास्तु सिर्फ माया मात्रा है और उसमे रूचि नहीं लेता है तो ऐसा वियति कर्म से मुक्त हो जाता है और ईश्वर के तत्त्व को समझ लेता है। उसी प्रकार कर्म योगी निष्काम कर्म के द्वारा भौतिक जगत के विषय भोगो में रूचि नहीं रखता क्योकि वह सभी कर्मो का फल भगवान को सोप देता है और सामाजिक हित के उद्देश्य से कर्म करता है और मोक्ष की प्राप्ति करता है। भगवान श्री कृष्ण के अनुसार भी कर्म योगी बन्ना हि आसान और श्रेष्ठ है।

गुरु की आवश्यकता क्यों
श्री कृष्ण के अनुसार यह सभी विषय रहस्यात्मक विषय है जिसे समझना कठिन है इसके लिए हमें समर्थ गुरु की शरण में जाना चाहिए क्योंकि वो हमें ज्ञान को जानने में सहायता करते हैं और सभी पापो से मुक्त कराते है। और भगवान पर श्रद्धा भक्ति करना सिखाते हैं। गुरुजनों की सहायता से व्यक्ति सही गलत का चुनाव करने योग्य बनाता है और अधर्म करने से बचता है।

भगवान अर्जुन को चेतवानी देते हैं कि अपने मन से शंका को दूर कर क्योंकि शंका जन्म देती है अज्ञानता को अर्थात ज्ञान व कर्म योग को जान कर युद्ध में लग जा और गांडीव को उठा और युद्ध कर। जब भगवान की शरण को पालोगे तो ना तो युद्ध से भागने देंगे ना हारने। क्योंकि भक्त की हार में भगवान की हार है।

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