(भाग:81)गीता के अनुसार सर्वव्यापी परमात्मा ना किसी का पाप ग्रहण करते हैं, ना किसी का पुण्य

 

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्त मज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ १३-११॥ अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम ‘अध्यात्म ज्ञान’ है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है- ऐसा कहा है

गीता(मूल संस्कृत) गीता (हिंदी भावानुवाद)
श्रीभगवानुवाच –
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुःक्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥१३- १॥

श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम ‘क्षेत्र’ ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं॥1॥
The Lord says – This, the body, O son of Kunti, is called Kshetra; him who knows it, they who know of them call Kshetrajna.

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्-ज्ञानं मतं मम ॥१३- २॥

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को अर्थात विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्व से जानना है, वह ज्ञान है- ऐसा मेरा मत है॥2॥ And do thou also know Me as Kshetrajna in all Kshetras, O Bharata. The knowledge of Kshetra and Kshetrajna is deemed by Me as the knowledge.
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च
यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च
तत्समासेन मे शृणु ॥१३- ३॥

वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाववाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन॥3॥ And what that Kshetra is and of what nature and what its changes; and whence is what; and who He is and what His powers; this hear thou briefly from Me.
ऋषिभिर्बहुधा गीतं
छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुम-
द्भिर्विनिश्चितैः ॥१३- ४॥

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व ऋषियों द्वारा बहुत प्रकार से कहा गया है और विविध वेदमन्त्रों द्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किए हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है॥4॥ Sung by sages, in many ways and distinctly, in various hymns, as also in the suggestive words about Brahman, full of reasoning and decisive.
महाभूतान्यहंकारो
बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च
पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥१३- ५॥
पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति भी तथा दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच इन्द्रियों के विषय अर्थात शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध॥5॥ The Great Elements, Egoism, Reason, as also the Un-manifested, the ten senses and one and the five objects of the senses.
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं
संघातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन
सविकारमुदाहृतम् ॥१३- ६॥

तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना (शरीर और अन्तःकरण की एक प्रकार की चेतन-शक्ति।) और धृति (गीता अध्याय 18 श्लोक 34 व 35 तक देखना चाहिए।)–
इस प्रकार विकारों (पाँचवें श्लोक में कहा हुआ तो क्षेत्र का स्वरूप समझना चाहिए और इस श्लोक में कहे हुए इच्छादि क्षेत्र के विकार समझने चाहिए।) के सहित यह क्षेत्र संक्षेप में कहा गया॥6॥ Desire, hatred, pleasure, pain, the aggregate, intelligence, courage- the Kshetra has been thus briefly described with its modifications.
अमानित्वमदम्भित्व-
महिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं
स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥१३- ७॥

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह॥7॥ Humility, modesty, innocence, patience, uprightness, service of the teacher, purity, stead-fastness, self-control;
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम-
नहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधि
दुःखदोषानुदर्शनम् ॥१३- ८॥
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना॥8॥ Absence of attachment for objects of the senses and also absence of egoism; perception of evil in birth, death and old age, in sickness and pain;
असक्तिरनभिष्वङ्गः
पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्व-
मिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१३- ९॥

पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना॥9॥

Un-attachment, absence of affection for son, wife, home and the like and constant equanimity on the attainment of the desirable and the undesirable;
मयि चानन्ययोगेन
भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्व-
मरतिर्जनसंसदि ॥१३- १०॥

मुझ परमेश्वर में अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति (केवल एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके, श्रद्धा और भाव सहित परमप्रेम से भगवान का निरन्तर चिन्तन करना ‘अव्यभिचारिणी’ भक्ति है) तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना॥10॥
Unflinching devotion to Me in Yoga of non-separation, resort to solitary places, distaste for the society of men;
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं
तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्त-
मज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३- ११॥

अध्यात्म ज्ञान में (जिस ज्ञान द्वारा आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम ‘अध्यात्म ज्ञान’ है) नित्य स्थिति और तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना- यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है- ऐसा कहा है॥11॥ Constancy in Self-knowledge, perception of the end of the knowledge of truth. This is declared to be knowledge and what is opposed to it is ignorance.
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि
यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।
अनादि मत्परं ब्रह्म
न सत्तन्नासदुच्यते ॥१३- १२॥

जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहूँगा। वह अनादिवाला परमब्रह्म न सत्‌ ही कहा जाता है, न असत्‌ ही॥12॥ That which has to be known I shall describe; knowing which one attains the Immortal. Beginning-less is the Supreme Brahman. It is not said to be ‘sat’ or ‘asat’.
सर्वतः पाणिपादं
तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके
सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३- १३॥

वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। (आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण रूप होने से उनको व्याप्त करके स्थित है, वैसे ही परमात्मा भी सबका कारण रूप होने से सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त करके स्थित है) ॥13॥

With hands and feet everywhere, with eyes and heads and mouths everywhere, with hearing everywhere, That exists enveloping all.
सर्वेन्द्रियगुणाभासं
सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव
निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१३- १४॥

वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परन्तु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है॥14॥

Shining by the function of all the senses, (yet) without the senses; unattached, yet supporting all; devoid of qualities.
बहिरन्तश्च भूतानाम-
चरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं
दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१३- १५॥

वह चराचर सब भूतों के बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचर भी वही है। और वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय (जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है, वैसे ही सर्वव्यापी परमात्मा भी सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता है) है तथा अति समीप में (वह परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण और सबका आत्मा होने से अत्यन्त समीप है) और दूर में (श्रद्धारहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है) भी स्थित वही है॥15॥

Without and within (all) beings; the unmoving as also the moving. Because subtle, That is incomprehensible; and near and far away is That.
अविभक्तं च भूतेषु
विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं
ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१३- १६॥

वह परमात्मा विभागरहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है (जैसे महाकाश विभागरहित स्थित हुआ भी घड़ों में पृथक-पृथक के सदृश प्रतीत होता है, वैसे ही परमात्मा सब भूतों में एक रूप से स्थित हुआ भी पृथक-पृथक की भाँति प्रतीत होता है) तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णुरूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करने वाला है॥16॥

And undivided, yet remaining divided as it were in beings; supporter of beings, too is That, the Knowable; devouring, yet generating.
ज्योतिषामपि तज्ज्योति-
स्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं
हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१३- १७॥

वह परब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है॥17॥

The Light even of lights, That is said to be beyond darkness. Knowledge, the Knowable, the Goal of knowledge, (It) is implanted in the heart of every one.
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं
ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय
मद्भावायोपपद्यते ॥१३- १८॥ इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और जानने योग्य परमात्मा का स्वरूप संक्षेप में कहा गया। मेरा भक्त इसको तत्व से जानकर मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है॥18॥

Thus the Kshetra, as well as knowledge and the Knowable, have been briefly set forth. My devotee, on knowing this, is fitted for My state.
प्रकृतिं पुरुषं चैव
विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव
विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥१३- १९॥

प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक सम्पूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान॥19॥ Know thou that Prakriti as well as Purusha are both beginning-less; and know thou also that all forms and qualities are born of Prakriti.
कार्यकरणकर्तृत्वे
हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां
भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥१३- २०॥

कार्य (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध -इनका नाम ‘कार्य’ है) और करण (बुद्धि, अहंकार और मन तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और घ्राण एवं वाक्‌, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- इन 13 का नाम ‘करण’ है) को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुःखों के भोक्तपन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है॥20॥
As the producer of the effect and the instruments, Prakriti is said to be the cause; as experiencing pleasure and pain, Purusha is said to be the cause.
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि
भुङ्‌क्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु ॥१३- २१॥

प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। (सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और तमो गुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।)॥21॥ Purusha, when seated in Prakriti, experiences the qualities born of Prakriti. Attachment to the qualities is the cause of his birth in good and evil wombs.
उपद्रष्टानुमन्ता च
भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो
देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥१३- २२॥
इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥
Spectator and Permitter, Supporter, Enjoyer, the Great Lord and also spoken of as the Supreme Self, (is) the Purusha Supreme in this body.
य एवं वेत्ति पुरुषं
प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि
न स भूयोऽभिजायते ॥१३- २३॥

इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है (दृश्यमात्र सम्पूर्ण जगत माया का कार्य होने से क्षणभंगुर, नाशवान, जड़ और अनित्य है तथा जीवात्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी एवं शुद्ध, बोधस्वरूप, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का ही सनातन अंश है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण मायिक पदार्थों के संग का सर्वथा त्याग करके परम पुरुष परमात्मा में ही एकीभाव से नित्य स्थित रहने का नाम उनको ‘तत्व से जानना’ है) वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता॥23॥

He who thus knows Purusha and Prakriti together with qualities, whatever his conduct, he is not born again.
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति
केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये सांख्येन योगेन
कर्मयोगेन चापरे ॥१३- २४॥

उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान द्वारा हृदय में देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोग द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं॥24॥
By meditation some behold the Self in the self by the self others by Sankhya Yoga and others by Karma Yoga.
अन्ये त्वेवमजानन्तः
श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव
मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥१३- २५॥

परन्तु इनसे दूसरे अर्थात जो मंदबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरों से अर्थात तत्व के जानने वाले पुरुषों से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागर को निःसंदेह तर जाते हैं॥25॥ Yet others, not knowing thus, worship, having heard from others; they, too, cross beyond death, adhering to what they heard.
यावत्संजायते किंचित्-
सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगा-
त्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥१३- २६॥
हे अर्जुन! यावन्मात्र जितने भी स्थावर-जंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबको तू क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से ही उत्पन्न जान॥26॥

What ever being is born, the unmoving or the moving, know thou, O best of the Bharatas, that to be owing to the union of Kshetra and Kshetrajna.
समं सर्वेषु भूतेषु
तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं
यः पश्यति स पश्यति ॥१३- २७॥
जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को नाशरहित और समभाव से स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है॥27॥ He sees who sees the Supreme Lord, remaining the same in all beings, the undying in the dying.
समं पश्यन्हि सर्वत्र
समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं
ततो याति परां गतिम् ॥१३- २८॥
क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है॥28॥
Because he who sees the Lord, seated the same everywhere, destroys not the self by the self, therefore he reaches the Supreme Goal.
प्रकृत्यैव च कर्माणि
क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मान-
मकर्तारं स पश्यति ॥१३- २९॥
और जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥29॥ He sees, who sees all actions performed by Prakriti alone and the Self not acting.

यदा भूतपृथग्भावमे-
कस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं
ब्रह्म संपद्यते तदा ॥१३- ३०॥
जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥
When a man realizes the whole variety of beings as resting in the One and is an evolution from that (One) alone, then he becomes Brahman.
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्-
परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय
न करोति न लिप्यते ॥१३- ३१॥

हे अर्जुन! अनादि होने से और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है॥31॥ Having no beginning, having no qualities, this Supreme Self, imperishable, though dwelling in the Body, O son of Kunti, neither acts nor is tainted.

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे
तथात्मा नोपलिप्यते ॥१३- ३२॥
जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से लिप्त नहीं होता॥32॥ As the all-pervading Akasa is, from its subtlety, never soiled, so the Self seated in the body everywhere is not soiled.
यथा प्रकाशयत्येकः
कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं
प्रकाशयति भारत ॥१३- ३३॥

हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है॥33॥ As the one sun

illumines all this world, so does the embodied One, O Bharata, illumines all bodies.

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं
ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च
ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥१३- ३४॥

इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को (क्षेत्र को जड़, विकारी, क्षणिक और नाशवान तथा क्षेत्रज्ञ को नित्य, चेतन, अविकारी और अविनाशी जानना ही ‘उनके भेद को जानना’ है) तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं॥

34॥ They who by the eye of wisdom perceive the distinction between Kshetra and Kshetrajna and the dissolution of the Cause of beings – they go to the Supreme.

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो
नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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