(भाग:94) प्रकृति पृथ्वी परमात्मा और आत्मा अमर अटल अविनाशी है जबकि शरीर नाशवान है

(भाग :94) प्रकृति पृथ्वी परमात्मा और आत्मा अमर अटल अविनाशी है जबकि शरीर नाशवान है

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:संयुुक्त-संपादक की रिपोर्ट

हम मननशील होने से मनुष्य कहलाते हैं। मनन हम सत्यासत्य व उचित अनुचित का ही करते हैं। सत्य व उचित बातों का आचरण करना धर्म और असत्य व अनुचित बातों का आचरण अधर्म होता है। धर्म पर चलना मनुष्य का कर्तव्य है। इसलिए कि इससे हमें सुख मिलेगा और यदि अधर्म का आचरण करेंगे तो वर्तमान नहीं तो भविष्य में दुःख अवश्य ही भोगना पड़ेगा। इसका कारण यह समझ में आता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके संस्कार मन व आत्मा पर पड़ते हैं। यह संसार हमारी रचना नहीं है परमेश्वर की है और यह सृष्टि परमात्मा ने केवल हमारे लिए ही नहीं बनाई है। यह संसार ईश्वर ने सभी जीवात्माओं के लिए उनके जन्म जन्मान्तरों के कर्म फलों के भोग के लिए बनाया है। ईश्वर का स्वरूप सच्चिदानन्द है। ईश्वर सत्य अर्थात् सत्तावान है। असत्य उसे कहते हैं जिसकी सत्ता न हो। जीवात्मा भी सत्तावान होने से सत्य है। अतः सत्यस्वरूप जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही सत्य कर्म करने वालें हैं। जीवात्मा जब सत्य कर्मों का त्याग कर प्रलोभन व अविद्यावश असत्य का आचरण करते हैं तो यह ईश्वर की दृष्टि में अधर्म होता है जिसका उसे फल मिलता है जो दुःख रूप होता है। बीज जब वृक्ष रूप में बढ़ता है व उस पर फल लगते हैं तब फलों के पकने पर व मनुष्यों व पक्षियों आदि द्वारा उसका भोग होने पर उसकी सार्थकता व पूर्णता होती है। इसी प्रकार मनुष्य जीवन की सार्थकता भी विद्या व बल की प्राप्ति व उससे दूसरे मनुष्यों व इतर प्राणियों को सुख लाभ कराने में ही होती है। यदि हम किसी पीड़ित व दुःखी मनुष्य की सहायता कर उसे कुछ सुख नहीं पहुंचा सकते तो हमारा मनुष्य कहलाना सार्थक नहीं अपितु निरर्थक प्रतीत होता है। ऋषि दयानन्द जी ने लिखा है कि मनुष्य वही है कि जो मननशील होकर अन्यों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझे। दूसरों को सुख देना ही मनुष्य का कर्तव्य है और इसी से मनुष्य को भी सुख मिलता है। उसका यश, बल, आयु व विद्या भी बढ़ती है। अतः वेद आदि का स्वाध्याय कर मनुष्यों को ईश्वर प्रेरित सद्कर्मों को ही करना चाहिये।
विज्ञान का नियम है कि संसार में न तो कोई पदार्थ वा वस्तु बनाई जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। मूल पदार्थ अनादि व नित्य होते हैं। ईश्वर, जीवात्मा और मूल प्रकृति भी अनादि पदार्थ हैं। इनकी कभी उत्पत्ति नहीं हुई है। यह कभी नष्ट भी नहीं होंगे। उत्पन्न पदार्थों का नाश अर्थात् अवस्था परिवर्तन हुआ करता है। जीवात्मा चेतन व अभौतिक पदार्थ है। चेतन पदार्थों का आवश्यक गुण ज्ञान व कर्म होता है। प्रकृति जड़ पदार्थ है। जड़ पदार्थों में जड़ता होती है। इस कारण उनमें ज्ञान व विवेक पूर्ण कर्म नहीं होते। वह चेतन सत्ता जीवात्मा व परमात्मा के अधीन रहकर कार्य करती है। हमारा शरीर भौतिक पदार्थों अग्नि, पृथिवी, जल, वायु और आकाश से मिलकर बना है। ईश्वर ने जीवों के लिए मूल प्रकृति में विकृति उत्पन्न पर अपनी सर्वशक्तिमत्ता व सर्वज्ञता से जीवों की आवश्यकता के अनुरूप उन्हें सुख प्रदान करने के लिए यथापूर्व सृष्टि की रचना की है। जीवों को सुखों का भोग व उन भोगों की प्राप्ति के लिए शुभ व अशुभ करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए सभी जीवात्माओं को शरीरों की आवश्यकता होती है। यह शरीर ईश्वर प्रकृति के पांच भौतिक पदार्थों से बनाकर जीवों को उपलब्ध कराता है। शरीरों की प्राप्ति में ईश्वर के अतिरिक्त माता-पिता की भी आवश्यकता होती है। यह ईश्वरीय नियम हैं जिनका नियन्ता वा पालक ईश्वर ही है। यह भौतिक शरीर जीवात्मा का साधन है। जीवात्मा का साध्य तो परमेश्वर की प्राप्ति व मोक्ष प्राप्त करना है जो ईश्वर के साक्षात्कार से होता है। ईश्वर साक्षात्कार सद्ज्ञान की प्राप्ति व उपासना आदि साधना से होता है जिसे जीवात्मा शरीर को साधन बनाकर करता है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि यह शरीर एक शिशु के रूप में उत्पन्न होता है और 100 वर्ष की आयु पूर्ण करने से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सृष्टि के आरम्भ से संसार में असंख्य मनुष्य उत्पन्न हुए। वह सभी इस नियम अर्थात् 100 वर्ष वा उससे कम आयु में मृत्यु को प्राप्त हो गये। यह क्रम अद्यावधि जारी है और हमेशा रहेगा। इसलिए कि यह भौतिक शरीर इससे अधिक जीवित नहीं रह सकता। कुछ थोड़े से अपवाद हो सकते हैं अर्थात् कुछ लोग 100 वर्ष से भी अधिक आयु तक जीवित रह सकते हैं परन्तु अमर तो कोई शरीर नहीं होता। इसका नाश अवश्य ही होता है, होता रहा है व आगे भी होता रहेगा।
हमने लिखा है कि शरीर आत्मा का साधन है। शरीर को एक प्रकार का रथ कह सकते हैं। जिस प्रकार रथ का उद्देश्य अपने रथी को किसी लक्ष्य पर पहुंचाना होता है उसी प्रकार से इस शरीर रूपी रथ का उद्देश्य जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार करा कर मोक्ष प्राप्त कराना है। यह लक्ष्य वेदाध्ययन, अविद्या की निवृत्ति और अष्टांग योग की साधना से प्राप्त होता है। जिस प्रकार यात्री लक्ष्य की ओर जाते हुए अनेक स्थानों पर रूक कर विश्राम करता और आगे बढ़ता जाता है उसी प्रकार से जीवात्मा की मोक्ष की यात्रा में अनेक शरीरों में रहकर साधना करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। जिस प्रकार हम यात्रा में किसी स्थान पर रूकते हैं तो अगले दिन उसी स्थान से यात्रा आरम्भ कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं, इसी प्रकार से इस जीवन में हम जो साधना कर लेंगे तो वह हमारे अगले जीवन में काम आयेगी और हम उससे आगे बढ़ेंगे। यदि अगले जीवन का हमने किसी कारण सदुपयोग नहीं किया तो हमारे पूर्व जन्म की साधना भी न्यून व नष्ट हो सकती है। अतः हमें अपनी आत्मा व परमात्मा के सत्य स्वरूप को जानकर व मनुष्य जीवन के उद्देश्य को समझकर जीवन व्यतीत करना है। यही वेद और शास्त्रों की शिक्षा है। हमें सावधानी से वेद मार्ग पर चलना है। यदि इस जन्म में लक्ष्य न भी प्राप्त होगा तो अगले जीवन में इस जन्म की साधना तो काम आयेगी ही। कोई एक कक्षा में फेल हो जाता है तो उसे उसी कक्षा में रखा जाता है। पास होने पर अगली कक्षा में चढ़ा दिया जाता है। फेल होने पर उसे निचली कक्षा में उतारा नहीं जाता। इस जन्म के अच्छे कर्मों के परिणामस्वरूप यदि हमें अगले जन्म में मनुष्य जीवन भी मिल गया तो हम पुनः साधना कर सकेंगे।

हमारा शरीर नाशवान है। किसी दिन व कुछ समय बाद इसका पतन व नाश होना ही है। इसलिए हमें शारीरिक सुखों की प्राप्ति पर ध्यान न देकर अपनी आत्मा के सुख व उन्नति पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। शारीरिक सुख का परिणाम दुःख होता है। हमें जितना शारीरिक सुख प्राप्त होगा कालान्तर में उसके प्रभाव से उसी मात्रा में कुछ कम व अधिक भी दुख प्राप्त हो सकता है। अतः हमें आत्मा का सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये जो उपासना व वेद ज्ञान से ही मिलता है। ऐसा हम समझते है। पाठक स्वयं विचार करें और अपनी प्रतिक्रिया से हमें लाभान्वित करें। ओ३म् शम्

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