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(भाग:246) रामचरित मानस लंकाकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्धारा लंकापुरी पर चढाई

भाग:246) रामचरित मानस लंकाकाण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्धारा लंकापुरी पर चढाई

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्धारा श्रीराम लंका पर चढाई कर दी गई

लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥

बैठ जाइ तेहिं मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन॥4॥

भावार्थ : लंका की चोटी पर एक अत्यन्त विचित्र महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण उस महल में जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुण समूहों को गाने लगे॥4॥

बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥5॥

भावार्थ : ताल (करताल), पखावज (मृदंग) और बीणा बज रहे हैं। नृत्य में प्रवीण अप्सराएँ नाच रही हैं॥5॥

दोहा :

सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।

परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥

भावार्थ : वह निरन्तर सैकड़ों इन्द्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (श्रीरामजी-सरीखा) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिन्ता है और न डर ही है॥10॥

सुबेल पर श्री रामजी की झाँकी और चंद्रोदय वर्णन

चौपाई :

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥

सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥

भावार्थ : यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1॥

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥

ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥

भावार्थ : वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्री रामजी विराजमान थे॥2॥

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा

दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना॥3॥

भावार्थ : प्रभु श्री रामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥3॥

बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥

प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन॥4॥

भावार्थ : परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥4॥

दोहा :

ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।

धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥11 क॥

भावार्थ : इस प्रकार कृपा, रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥11 (क)॥

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।

कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥11 ख॥

भावार्थ : पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने चंद्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे- चंद्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥11 (ख)॥

चौपाई :

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥

मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥

भावार्थ : पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमा रूपी सिंह अंधकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है॥1॥

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा॥

कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥

भावार्थ : आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रि रूपी सुंदर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा- भाइयो! चंद्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥2॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥

मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥

भावार्थ : सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! चंद्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा- चंद्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पड़ा हुआ है॥3॥

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥

छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥

भावार्थ : कोई कहता है- जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चंद्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुंदर बन गया, परन्तु चंद्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चंद्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है॥4॥

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥

बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥5॥

भावार्थ : प्रभु श्री रामजी ने कहा- विष चंद्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥5॥

दोहा :

कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।

तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥12 क॥

भावार्थ : हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥12 (क)॥

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

श्री रामजी के बाण से रावण के मुकुट-छत्रादि का गिरना

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।

दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥12 ख॥

भावार्थ : पवनपुत्र हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुजान श्री रामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥12 (ख)॥

चौपाई :

देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥

मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥

भावार्थ : हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥1॥

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला॥

लंका सिखर उपर आगारा। तहँ दसकंधर देख अखारा॥2॥

भावार्थ : विभीषण बोले- हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है॥2॥

छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥

मंदोदरी श्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका॥3॥

भावार्थ : रावण ने सिर पर मेघडंबर (बादलों के डंबर जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥3॥

बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।

प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाव बान संधाना॥4॥

भावार्थ : हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कुराए। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का सन्धान किया॥4॥

दोहा :

छत्र मुकुट तांटक तब हते एकहीं बान।

सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥13 क॥

भावार्थ : और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मंदोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥13 (क)॥

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषंग।

रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग॥13 ख॥

भावार्थ : ऐसा चमत्कार करके श्री रामजी का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान्‌ रस भंग (रंग में भंग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥13 (ख)

चौपाई :

कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।

सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥1॥

भावार्थ : न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल जैसे कटकर गिर पड़े?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयंकर अपशकुन हुआ!॥1॥

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।

सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥

भावार्थ : सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥2॥

मन्दोदरी का फिर रावण को समझाना और श्री राम की महिमा कहना

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥

मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥

भावार्थ : अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के हृदय में सोच बस गया॥3॥

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥

कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥

भावार्थ : नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए॥4॥

दोहा :

बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।

लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥14॥

भावार्थ : मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचंद्रजी विश्व रूप हैं- (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है)। वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥14॥

चौपाई :

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥

भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥

भावार्थ : पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥1॥

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥

श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2॥

भावार्थ : अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥2॥

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥

आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥3॥

भावार्थ : लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥3॥

रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥

उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥4॥

भावार्थ : अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल है, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए?॥4॥

दोहा :

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।

मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥15 क॥

भावार्थ : शिव जिनका अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥15 (क)॥

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।

प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥15 ख॥

भावार्थ : हे प्राणपति सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर श्री रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥15 (ख)॥

चौपाई :

बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥

भावार्थ : पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥1॥

साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥

रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥2॥

भावार्थ : साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन) अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥2॥

सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥

जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥3॥

भावार्थ : हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है॥3॥

तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥

मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयउ॥4॥

भावार्थ : हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली हैं। मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है॥4॥

दोहा :

ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।

सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध॥16 क॥

भावार्थ : इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में अंधा लंकापति सभा में गया॥16 (क)॥

सोरठा :

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।

मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥16 ख॥

भावार्थ : यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥16 (ख)॥

अंगदजी का लंका जाना और रावण की सभा में अंगद-रावण संवाद

चौपाई :

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥

कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥1॥

भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान्‌ ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1॥

 

 

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥

मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

भावार्थ:- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!॥2॥

नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥

बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥3॥

भावार्थ:- यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ॥3॥

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥

काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

भावार्थ:- तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥4॥

सोरठा :

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।

सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥17 क॥

भावार्थ:-प्रभु की आज्ञा सिर चढ़कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगदजी उठे (और बोले-) हे भगवान्‌ श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥17 (क)॥

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।

अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥17 ख॥

भावार्थ:-स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥17 (ख)॥

चौपाई :

बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥

प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥1॥

भावार्थ:- चरणों की वंदना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥1॥

पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेंटा॥

बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

भावार्थ:-लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान्‌ थे और फिर दोनों की युवावस्था थी॥2॥

तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥

निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

भावार्थ:- उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥3॥

एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥

भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी॥4॥

भावार्थ:-एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है॥4॥

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥

बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

भावार्थ:- सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है॥5॥

दोहा :

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।

सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥18॥

भावार्थ:- श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की सी ऐंड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥18॥

चौपाई :

तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥

सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥

भावार्थ:- तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बंदर है॥1॥

आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥

अंगद दीख दसानन बैसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥2॥

भावार्थ:- आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो!॥2॥

भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥

मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥3॥

भावार्थ:- भुजाएँ वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कन्दराओं और खोहों के बराबर हैं॥3॥

गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥

उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥4॥

भावार्थ:- अत्यंत बलवान्‌ बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ॥4॥

दोहा :

जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।

राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥

भावार्थ:- जैसे मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19॥

चौपाई :

कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥

मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥

भावार्थ:- रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ॥1॥

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥

बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥

भावार्थ:- तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है॥2॥

नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥

अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥

भावार्थ:- राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे॥3॥

दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥

सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥

भावार्थ:-दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो-॥4॥

दोहा :

प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।

आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेंगे तोहि॥20॥

भावार्थ:- और ‘हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा की जिए।’ (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥20

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