आयुर्वेद में अपामार्ग- चिडचिडा पंच्चाग रामबाण औषधीय गुणों से भरपूर है
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री : सह-संपादक रिपोर्ट
वाराणसी. प्रकृति ने ऐसे कई रामबाण पौधे दिए हैं, जो औषधीय गुणों से भरपूर हैं। इनसे कई लाइलाज बीमारियां भी दूर होती हैं। ऐसा ही एक पौधा अपामार्ग (चिड़चिड़ा) का है। यह खेत खलियानों में आसानी से मिल जाता है। इसका उपयोग अधिक भूख लगने (भस्मक रोग), अधिक प्यास लगने, मोटापा कम करने, इन्द्रियों की निर्बलता और संतानहीनता को दूर करने वाला बताया है। इस पौधे से सांप, बिच्छू और अन्य जहरीले जंतु के काटे हुए को ठीक किया जा सकता है।
यह पौधा वर्षा ऋतु में पैदा होता है। इसमें जाड़े में फल और फूल लगते हैं। इसके फल गर्मियों में पककर गिरते हैं। इसके पत्ते अण्डकार, एक से पांच इंच तक लंबे और रोम वाले होते हैं। यह सफेद और लाल दो प्रकार का होता है। सफेद अपामार्ग के डंठल और पत्ते हरे व भूरे सफेद रंग के होते हैं। इस पर जौ के समान लंबे बीज लगते हैं। लाल अपामार्ग के डण्ठल लाल रंग के होते हैं और पत्तों पर भी लाल रंग के छींटे होते हैं।
अपामार्ग पौधे के औषधीय गुण
अपामार्ग खाने से ताकत आती है। यह पाचनशक्ति बढ़ाने के लिए यह पौधा काफी फायदेमंद है।
इसके बीजों को पीसकर गर्म करने से और दर्द वाली जगह पर लगाने से आराम मिलता है।
बुखार होने पर भी इसके रस को शहद में मिलाकर पीने से फायदा होता है।
अपामार्ग चूर्ण 10 ग्राम पानी में पीसकर छानकर 3 ग्राम शहद और 250 मिली दूध के साथ पीने से शीघ्रपतन नहीं होता है।
इसके बीजों की खीर बनाकर खाने से कई दिन तक भूख नहीं लगती और शरीर कमजोर नहीं होता है। साथ ही मोटापा दूर करने में मददगार होता है।
अपामार्ग चूर्ण, काली मिर्च को शहद के साथ मिलाकर चाटने से सांस की बीमारियों में फायदा होता है।
अपामार्ग, गूलर पत्र, काली मिर्च को पीसकर चावल के मांड़ के साथ खाने से श्वेत प्रदर धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।
बड़ की दाड़ी, खजूर पत्र और अपामार्ग के क्वाथ से कुल्ला करने पर सभी प्रकार की दांत की समस्याएं खत्म होती हैं।
खुजली होने पर अपामार्ग का काढ़ा बनाकर उससे नहाइए, इससे खुजली दूर होती है।
पथरी होने पर अपामार्ग क्षार को ठंडे पानी के साथ सेवन करने पर पथरी निकल जाती है।
अपामार्ग मूल चूर्ण 6 ग्राम रात में सोने से पहले लगातार तीन दिन जल के साथ पीने से रतौंधी में लाभ होता है।
जलोदर (पेट फूलने की समस्या) में अपामार्ग क्वाथा एवं कुटकी चूर्ण सेवन करने से लाभ होता है।
सांप के काटने पर अपामार्ग को पानी के साथ पीसकर पिलाइए, इससे विष का असर कम हो जाता है।
अपामार्ग को दूध के साथ सेवन करने से गर्भधारण करने की संभावना बढ़ जाती है।
चरक संहिता अध्याय में वमन और अपामार्ग का वर्ण
अथ द्वितीयोऽध्यायः – अथातोऽपामार्गतण्डुलीयमध्यायं व्याख्यास्यामः ॥१॥ इति ह स्माssह भगवानात्रेयः ॥२॥
*वमन (क़ै, उलटी) आदि पांच (५) कर्म स्वस्थ एवं रोगी दोनों व्यक्तियों के लिये उपयोगी ।*
*इसलिये पूर्व अध्याय में कहे हुए – वमन (क़ै, उलटी) आदि के द्रव्यों को अन्य द्रव्यों के साथ मिला कर इस अध्याय का अवतरण (बढ़ते) करते हैं।*
*अपामार्ग (चिरचिटा) वृक्ष – के बीजों का तुष (छिलका) रहित करके, तण्डुल (चिरचिटा के बीजों जो चावल है) बना कर काम में लाना चाहिए, यह बताने के लिये ‘अपामार्ग तण्डुलीय’ अध्याय है।*
अपामार्गस्य बीजानि पिप्पलीमरिचानि च । विडङ्गान्यथ शिमणि सर्पपास्तुम्बुरूणि च ॥३॥ अजाजी चाजगन्धां च पीलून्येला हरेणकाम् । पृथ्वकां सुरसां क्षेष्ता कुठेरकफणिजको ॥४॥ शिरीषबीजं लशुनं हरिद्रे लवणद्वयम् । ज्योतिष्मती नागरं च दद्याच्छीर्षविरेचने ॥५॥ गौरवे शिरसः शुले पीनसेऽर्धावभेदके । क्रिमिव्याघावपस्मारे ध्रावनाशे प्रमोहके ॥६॥
*अपामार्ग (चिरचिटा) के तण्डुल (चावल), पिप्पली, मरिच (काली मिर्च), वायविडंग (विडंग), सहंजना (सहजन) के बीज, श्वेत सरसों, तेजवल के बीज, जीरा, अजमोदा (तिलवन), पीलु, एला (छोटी इलायची),*
*हरेणु (रेणुका, मेंहदी के बीज), पृथ्वी का (कलौंजी), सुरसा (काली तुलसी), श्वेता (अपराजिता), कुठेरक (मरवा), फणिज्जक (तुलसी का भेद), शिरीष बीज (सिरस के बीज), लशुन (लहसन),*
*दोनों हरिद्रा (हल्दी और दारु हल्दी), दोनों लवण (सैन्धव और सौवर्चल), ज्योतिष्मती (मालकंगनी), और नागर (सोठ)।*
*ये शिरोविरेचन (शिरोविरेक या मूर्धविरेचन, गर्दन से उपर के विकारों के लिए नस्य) के लिये उपयोग में लानी चाहिये ।*
*इन उपरोक्त औषधियों में – ‘श्वेता (श्वेतरहर)’ और ‘ज्योतिष्मती (मालकांगनी)’ ये दो (२) द्रव्य ‘मूलिनी’ औषधियों में गिने गये हैं।*
*इसलिये इनका मूलग्रहण करना चाहिये, और अपामार्ग (चिरचिटा) के तण्डुल (चावल) उपयोग में लाने चाहिये ।*
*(गौरव) – शिर के भारीपन में,*
*(शिरःशूल, सिरदर्द) – शिर के दुखने में,*
*(पीनस, साइनस, नाक का रोग) – नाक से दुर्गन्ध युक्त स्राव (बहाना, टपकना),*
*कफ आता हो,*
*(अद्धविभेदक) – आधा शिर दुःखता हो,*
*(कृमि-व्याधि) – कृमि जन्य शिरो रोग में,*
*(आरमार) – मृगी में,*
*(घ्राण नाश) – प्राण शक्ति के नष्ट होने पर और,*
*(प्रमोदक) – मूर्छा।*
*इन रोगों में शिरीविरेचन (शिरोविरेचन) के रूप में प्रयोग करना चाहिये ॥३-६॥*
मदनं मधुकं निम्बं जीमूतं कृतवेधनम् । पिप्पली कुटजेक्ष्वाकूण्येला धामार्गवाणि च ॥७॥ उपस्थिते श्लेष्म पित्ते व्याधावामाशयाश्रये । वमनार्थं प्रयुञ्जीत भिषग देहमदूषयन् ॥८॥
*वमन (कै, उल्टी) कारक द्रव्य :–*
*मदन (मैनफल), मधुक (मुलहठी), नीम (नीम की छाल), जीमूत (कडुवी तुरई), कृतवेधन (कडुबा तुम्बा), पिप्पली, कुटज (कुड़ा), इक्षवाकु (कडुवी धिया या आल), एला (छोटी इलायची), धामार्गव (तुरई कडवी)।*
*ये दस (१०) वस्तुएँ – कफ, पित्त, जन्य व्याधि (बीमारी) में, अथवा आमाशय (पेट) में आश्रित व्याधि (बीमारी) की अवस्था में, शरीर की हानि किये बिना वैद्य वमन (क़ै, उलटी के लिये देवे ।*
*[ वात का मुख्य स्थान – पेट और आंत में है, पित्त तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है का मुख्य स्थान – हृदय से नाभि तक है, कफ का मुख्य स्थान – पेट और छाती में है। ]*
*इनमें मदन (मैनफल), मधुक (मुलहठी), जीमून (कडुवी तुरई), कृतवेदन (कडुबा तुम्बा), कुटज (कुड़ा), इक्ष्वाकु (कडुवी धिया या आल) और धामार्गव (तुरई कडवी)।*
*इनका फल लेना चाहिये और पिप्पली, इलायची का भी फल, तथा नीम की छाल लेनी चाहिये ॥७-८॥*
जय श्री कृष्णा