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(भाग:320) धर्मराज युधिष्ठिर के अनुसार जानिए गाय दान का फल, कपिला गौ की उत्पत्ति और गाय का महत्व

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(भाग:320) धर्मराज युधिष्ठिर के अनुसार जानिए गाय दान का फल, कपिला गौ की उत्पत्ति और गाय का महत्व

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा–‘भारत! आप गोदान के उत्तम गुणों का वर्णन कीजिये, आपके मुँह से इस अमृतमय उपदेश को सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती।’

भीष्मजी ने कहा–‘बेटा! वात्सल्य गुण से युक्त एवं उत्तम लक्षणों वाली जवान गाय को वस्त्र ओढ़ाकर ब्राह्मण को दान करने से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है और उसे असुर्य नामक अन्धकारमय लोकों (नरकों) में नहीं जाना पड़ता।

 

जिसका घास खाना और पानी पीना समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया हो, जिसकी इन्द्रियाँ काम न दे सकती हों, अर्थात् जो बूढ़ी और रोगिणी होने के कारण जीर्ण-शीर्ण शरीर वाली हो गयी हों, ऐसी गौ का दान करने वाला मनुष्य ब्राह्मण को व्यर्थ कष्ट में डालता है और स्वयं भी घोर नरक में पड़ता है।

 

क्रोध करने वाली, मरकही, रुग्णा, दुबली-पतली तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौ का दान करना कदापि उचित नहीं है। हृष्ट-पुष्ट, सीधी-सुलक्षणा, जवान एवं उत्तम गन्ध वाली गौ की सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियों में गंगा श्रेष्ठ है, वैसे ही गौओं में कपिला गाँ उत्तम मानी गयी है।’

 

युधिष्ठिर ने पूछा–‘पितामह ! किसी भी रंग की गौ का दान किया जाय, गोदान तो एक-सा ही होगा। फिर सत्पुरुषों ने कपिला गौ की ही अधिक प्रशंसा क्यों की है ? मैं कपिला के महान् प्रभाव को विशेष रूप से सुनना चाहता हूँ।’

 

भीष्मजी ने कहा–‘बेटा! मैंने बड़े-बूढ़ों के मुँह से रोहिणी (कपिला) गौ की उत्पत्ति का जो प्राचीन वृत्तान्त सुना है, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ। सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी ने दक्ष प्रजापति को आज्ञा दी कि ‘तुम प्रजा को उत्पन्न करो।’ किन्तु दक्ष प्रजापति ने प्रजाओं की भलाई के लिये सबसे पहले उनकी आजीविका का उपाय निर्धारित किया। उसके बाद उन्होंने प्रजा को उत्पन्न किया।

 

उत्पन्न होते ही समस्त जीव जीविका के लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने माँ-बाप के पास दौड़े जाते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा जीविकादाता दक्ष के पास गयी। प्रजाजनों की इस स्थिति पर मन-ही-मन विचार करके प्रजापति ने उनकी रक्षा के लिये अमृत का पान किया।

 

अमृत पीकर जब वे पूर्ण तृप्त हो गये तो उनके मुख से सुरभित (मनोहर) सुगन्ध निकलने लगी। उस सुरभि गन्ध से सुरभि (ग) प्रकट हुई, जिसे प्रजापति ने अपने मुख से उत्पन्न होने वाली पुत्री के रूप में देखा। सुरभि ने भी बहुत-सी कपिला गौएँ उत्पन्न कीं, जो प्रजा की माता के समान थीं और जिनका रंग कुंदन की भाँति दमक रहा था।

 

वे सब गौएँ प्रजा की आजीविका थीं। जैसे नदियों की लहरों से फेन उत्पन्न होता है, उसी प्रकार चारों ओर दूध की धारा बहाती हुई अमृत के समान वर्ण वाली उन गौओं के दूध से फेन उठने लगा।

 

एक दिन की बात है, भगवान् शंकर पृथ्वी पर खड़े थे, उसी समय सुरभि के एक बछड़े के मुँह से फेन निकलकर उनके मस्तक पर गिर पड़ा। इससे वे कुपित हो उठे और अपनी ललाटाग्नि की ज्वाला से मानो रोहिणी गौ को भस्म कर डालेंगे, इस तरह उसकी ओर देखने लगे।

 

रुद्र का वह भयंकर तेज जिन-जिन कपिलाओं पर पड़ा उनके रंग नाना प्रकार के हो गये, किन्तु जो वहाँ से भागकर चन्द्रमा की शरण में चली गयीं, उनका रंग नहीं बदला। वे जैसी उत्पन्न हुई थीं, वैसी ही रह गयीं।

 

तब प्रजापति ने महादेवजी को कुपित देखकर कहा–‘प्रभो! आपके ऊपर अमृत का छींटा पड़ा है। गौओं का दूध बछड़ों के पीने से जूँठा नहीं होता। जैसे चन्द्रमा अमृत का संग्रह करके फिर उसे बरसा देता है, उसी प्रकार वे रोहिणी गौएँ भी अमृत से उत्पन्न दूध देती हैं।

 

जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र तथा देवताओं का पीया हुआ अमृत–इनमें उच्छिष्ट का दोष नहीं होता, वैसे ही बछड़ों को पिलाती हुई गौ भी दूषित नहीं मानी जाती। (तात्पर्य यह कि दूध पीते समय बछड़े के मुँह से गिरा हुआ झाग अशुद्ध नहीं माना जाता।) ये गौएँ अपने दूध और घी से सम्पूर्ण जगत् का पालन करेंगी। सब लोग इनके अमृतमय दूध को पीना चाहते हैं।’

 

ऐसा कहकर प्रजापति दक्ष ने महादेवजी को बहुत-सी गौएँ और एक बैल भेंट किये तथा इसी उपाय से उनके चित्त को शान्त किया। महादेवजी ने भी प्रसन्न होकर उस वृषभ को अपना वाहन बनाया और उसी के चिह्न से अपनी ध्वजा सुशोभित की। इसी से उनका नाम ‘वृषभध्वज’ प्रसिद्ध हुआ।

 

तदनन्तर, देवताओंने महादेवजी को पशुओं का राजा (पशुपति) बना दिया और गौओं के बीच में उनका नाम ‘वृषभांक’ रख दिया। इस प्रकार कपिला गौएँ अत्यन्त तेजस्विनी और शान्त वर्ण वाली हैं। इसी से उनको दान में सब गौओं से प्रथम स्थान दिया गया है।

 

गौएँ संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं। वे जगत् को जीवन देने वाली हैं। भगवान् शंकर सदा उनके साथ रहते हैं। वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत से उत्पन्न हुई हैं तथा शान्त, पवित्र, समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाली और जगत्‌ को प्राणदान देने वाली हैं; अतः गोदान करने वाला मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का दाता माना जाता है।अपवित्र मनुष्य भी यदि गौओं की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाली इस उत्तम कथा का पाठ करता है तो कलियुग के दोषों से मुक्त हो जाता है और उसे पुत्र, लक्ष्मी, धन तथा पशु आदि की सदा प्राप्ति होती है।

 

राजन् ! गोदान करने वाले को हव्य, कव्य, तर्पण और शान्ति-कर्म का फल तथा वाहन, वस्त्र एवं बालकों और वृद्धों का सन्तोष प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सब गोदान के गुण हैं।’

 

वैशम्पायनजी कहते हैं–‘जनमेजय ! भीष्मजी की बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर और उनके भाइयों ने उत्तम ब्राह्मणों को सोने के समान रंग वाले बैल तथा उत्तम गौएँ दान कीं।’

 

भीष्मजी कहते है–‘धर्मराज ! इक्ष्वाकुवंश में एक सौदास नाम के राजा थे। एक बार उन्होंने ब्रह्माजी के पुत्र महर्षि वसिष्ठ को प्रणाम करके पूछा–‘भगवन् ! तीनों लोकों में ऐसी पवित्र वस्तु कौन है जिसका नाम लेने मात्र से मनुष्य को सदा उत्तम पुण्य की प्राप्ति हो सके ?

 

तब महर्षि वसिष्ठ ने गौओं को नमस्कार करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया–‘राजन् ! गौओं के शरीर से अनेकों प्रकार की मनोरम सुगन्ध निकलती रहती है। बहुतेरी गौएँ गुग्गुल के समान गन्ध वाली होती हैं। गौएँ प्राणियों का आधार तथा कल्याण की निधि हैं। भूत और भविष्य गौओं के ही हाथ में हैं। वे ही सदा रहने वाली पुष्टिका कारण तथा लक्ष्मी की जड़ हैं।

 

गौओं की सेवा में जो कुछ दिया जाता है, उसका फल अक्षय होता है। अन्न गौओं से उत्पन्न होता है, देवताओं को उत्तम हविष्य (घृत) गौएँ देती हैं तथा स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वषट्कार (इन्द्रयाग) भी सदा गौओं पर ही अवलम्बित हैं। गौएँ ही यज्ञ का फल देने वाली हैं, उन्हीं में यज्ञों की प्रतिष्ठा है। ऋषियों को प्रातःकाल और सायंकाल में होम के समय गौएँ ही हवन के योग्य घृत आदि पदार्थ देती हैं।

 

जो लोग दूध देने वाली गौ दान करते हैं, वे अपने समस्त संकटों और पापों के पार हो जाते हैं। जिसके पास दस गौएँ हों, वह एक गौ दान करें, जो सौ गायें रखता हो, वह दस गायें दान करे और जिसके पास हजार गौएँ मौजूद हों, वह सौ गौएँ दान करे तो इन सबको बराबर ही फल मिलता है।

 

जो सौ गौओं का स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हजार गौएँ रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कंजूसी नहीं छोड़ता–ये तीनों मनुष्य अर्घ्य (सम्मान) पाने के अधिकारी नहीं हैं।

 

जो उत्तम लक्षणों से युक्त कपिला गौ को वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े सहित दान करता है तथा उसके साथ दूध दुहने के लिये एक काँसी का पात्र भी देता है, वह इहलोक-परलोक दोनों को जीत लेता है।

 

प्रातःकाल और सायंकाल में प्रतिदिन गौओं को प्रणाम करना चाहिये, इससे मनुष्य के शरीर और बल की पुष्टि होती है। गोमूत्र और गोबर देखकर कभी घृणा न करे। गौओं के गुणों का कीर्तन करे। कभी उनका अपमान न करे। यदि बुरे स्वप्न दिखायी दें तो गोमाता का नाम ले। प्रतिदिन शरीर में गोबर लगाकर स्नान करे। सूखे हुए गोबर पर बैठे। उस पर थूक न फेंके, मल-मूत्र न त्यागे। गौओं के तिरस्कार से बचता रहे।

 

अग्नि में गाय के घृत का हवन करे, उसी से स्वस्तिवाचन करावे, गो-घृत का दान और स्वयं भी उसका भक्षण करे तो गौओं की वृद्धि होती है। जो मनुष्य सब प्रकार के रत्नों से युक्त तिल की धेनु को ‘गोमाँ अग्नेऽविमाँ अश्वी’ आदि गोमती मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उसे ब्राह्मण को दान करता है, उसे अपने पाप-पुण्य के लिये शोक नहीं करना पड़ता।

 

रात हो या दिन, अच्छा समय हो या बुरा, कितना ही बड़ा भय क्यों न उपस्थित हुआ हो, यदि मनुष्य निम्नांकित श्लोकार्थों का कीर्तन करता है तो वह सब प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है–जैसे नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं, उसी तरह सोने से मढ़े हुए सींगों वाली दुग्धवती सुरभी और सौरभेयी गौएँ मेरे निकट आवें। मैं सदा गौओं का दर्शन करूँ और गौएँ मुझ पर कृपादृष्टि करें। गौएँ मेरी हैं और मैं गौओं का हूँ; जहाँ गौएँ रहें, वहीं मैं भी रहूँ।

 

प्राचीन काल में गौओं ने श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिये एक लाख वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी कि ‘इस जगत् में जितनी दक्षिणा देने योग्य वस्तुएँ हैं, उन सबमें हम उत्तम समझी जावें। हम को कोई दोष न लगे। मनुष्य हमारे गोबर से स्नान करने पर सदा ही पवित्र हों। देवता और मानव पवित्रता के लिये हमेशा हमारे गोबर का उपयोग करें। समस्त चराचर प्राणी हमारे गोबर से पवित्र हो जायँ और हमारा दान करने वाले मनुष्यों को हमारा ही उत्तम लोक (गोलोक) प्राप्त हो।’

 

इस प्रकार का संकल्प लेकर जब गौओं ने अपनी तपस्या पूर्ण की तो उसके अन्त में ब्रह्माजी ने उन्हें वरदान दिया–‘गौओ ! तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण हों और तुम जगत् के जीवों का उद्धार करती रहो।’

 

इस प्रकार अपनी कामनाएँ सिद्ध हो जाने पर गौएँ तपस्या से निवृत्त हुईं और उसके पश्चात् जगत् का कल्याण करने लगीं। इसीलिये वे महान् सौभाग्य शालिनी गौएँ परम पवित्र मानी जाती हैं। वे समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ एवं वन्दनीय हैं। जो मनुष्य दूध देने वाली सुलक्षणा कपिला गौ को वस्त्र ओढ़ाकर कपिल रंग के बछड़े सहित दान करता है, वह ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है।सदा गोदान में अनुराग रखने वाला पुरुष सूर्य के समान देदीप्यमान विमानमें बैठकर मेघमण्डल को भेदता हुआ स्वर्ग में जाकर सुशोभित होता है। गौ के शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक वह स्वर्ग लोक में सत्कार पूर्वक रहता है। फिर पुण्यक्षीण होने पर जब स्वर्ग से नीचे उतरता है तो इस मनुष्य लोक में आकर सम्पन्न घर में जन्म लेता है।

 

मनुष्य को चाहिये कि सबेरे और सायंकाल आचमन करके इस प्रकार जप करे–‘घी और दूध देने वाली, घी की उत्पत्ति का आधार, घी को प्रकट करने वाली, घी की नदी तथा घी की भँवररूप गौएँ मेरे घर में सदा निवास करें। मेरे आगे-पीछे और चारों ओर गौएँ मौजूद रहें, मैं गौओं के बीच में ही निवास करूँ।’ इस प्रकार प्रतिदिन जप करने से मनुष्य के दिन भर के पाप नष्ट हो जाते हैं। गोदान करने वाला मनुष्य अपने माता और पिता की दस पीढ़ियों को पवित्र करके उन्हें पुण्यमय लोकों में भेजता है। जो गाय के बराबर तिल की गाय बनाकर उसका दान करता है तथा जो जल का दान करता है, उसे यमलोक में कोई यातना नहीं भोगनी पड़ती।

 

गौ सबसे अधिक पवित्र, जगत् की प्रतिष्ठा और देवताओं की माता है, उसका स्पर्श और उसकी प्रदक्षिणा करे तथा उत्तम समय देखकर सुपात्र ब्राह्मण को उसका दान करे। जो बड़े-बड़े सींगों वाली कपिला धेनु को बछड़े, काँसी की दोहनी तथा वस्त्र सहित दान करता है, वह मनुष्य यमराज की दुर्गम सभा में निर्भय होकर प्रवेश करता है।

 

गोदान से बढ़कर कोई पवित्र दान नहीं है और गोदान के फल से श्रेष्ठ अन्य कोई फल नहीं है। संसार में गौ से बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट प्राणी नहीं है। जिसने समस्त चराचर जगत्‌ को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्य की माता गौ को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ।

 

राजन् ! यह मैंने तुमसे गौओं के गुणों का दिग्दर्शनमात्र कराया है। गौओं के दान से बढ़कर इस संसार में दूसरा कोई दान नहीं है तथा उनके समान दूसरा कोई सहारा भी नहीं है।’

 

भीष्मजी कहते हैं–‘महर्षि वसिष्ठ के ये वचन सुनकर भूमिदान करने वाले महात्मा राजा सौदास ने उस पर विचार किया और उसे सर्वथा उत्तम जानकर ब्राह्मणों को बहुत-सी गौएँ दान दीं, इससे उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति हुई।’

 

युधिष्ठिर ने कहा–‘पितामह ! संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र, उत्तम तथा परमपावन हो, उसका वर्णन कीजिये।’

 

भीष्मजी ने कहा–‘बेटा ! गायें महान् अर्थ का साधन, परम पवित्र और मनुष्यों को तारने वाली हैं। ये अपने घी और दूध से प्रजा के जीवन की रक्षा करती हैं। गौओं से अधिक पवित्र कोई वस्तु नहीं है। ये तीनों लोकों में पवित्र, पुण्यस्वरूप तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। गौएँ देवताओं से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो इनका दान करते हैं वे मनीषी पुरुष आत्मोद्धार करके स्वर्ग में चले जाते हैं।

 

मान्धाता, ययाति और नहुष सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे, इससे उन्हें ऐसे उत्तम लोकों की प्राप्ति हुई जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं। इस विषय में मैं तुम्हें एक पुराना वृत्तान्त सुना रहा हूँ।

 

एक समय की बात है, परम बुद्धिमान् शुकदेवजी ने नित्यकर्म का अनुष्ठान करके पवित्र एवं शुद्धचित्त होकर लोक के भूत और भविष्य को देखने वाले अपने पिता ऋषिश्रेष्ठ व्यासजी को प्रणाम करके पूछा–‘पिताजी! विद्वान् पुरुष किस कर्म का अनुष्ठान करके उत्तम स्थान प्राप्त करते हैं ? पवित्रों में भी पवित्र वस्तु क्या है ? इसे बताने की कृपा कीजिये।’

 

व्यासजी ने कहा–‘बेटा! गौएँ सम्पूर्ण भूतोंकी प्रतिष्ठा और परम आश्रय हैं। वे पुण्यस्वरूप, पवित्र और पावन हैं, हव्य और कव्य प्रदान करने वाली हैं और शुभ, पुण्य, पवित्र, सौभाग्यवती तथा दिव्य विग्रह से सम्पन्न हैं। गौएँ दिव्य एवं महान् तेज हैं, उनके दान की शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है। जो सत्पुरुष मात्सर्य का त्याग करके गौओं का दान करते हैं, वे पवित्र गोलोक में जाते हैं। वहाँ पुण्यात्मा पुरुष ही सुख पूर्वक निवास करते हैं।

 

गोलोकवासी शोक और क्रोध से रहित तथा पूर्णकाम होते हैं। वे विचित्र एवं रमणीय विमानों में बैठकर यथेष्ट विहार करते हुए आनन्द का अनुभव करते हैं। जो पुरुष सब प्रकार गौओं का अनुसरण और सेवा करता है, उस पर प्रसन्न होकर गौएँ अत्यन्त दुर्लभ वरदान देती हैं। गौओं के साथ मन से भी द्रोह न करे, उन्हें सदा सुख पहुँचावे तथा यथोचित सत्कार और प्रणाम के द्वारा उनका पूजन करता रहे।

 

गौओं के गोबर से निकाले हुए जौ की लप्सी का एक मास तक भक्षण करने वाला मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पापों से भी छुटकारा पा जाता है। जब दैत्यों ने देवताओं को पराजित कर दिया तो उन्होंने इसी प्रायश्चित्त का अनुष्ठान किया, इससे उन्हें पुनः देवत्व की प्राप्ति हुई तथा वे महाबलवान् और महासिद्ध हो गये। गौएँ परमपावन, पवित्र और पुण्यस्वरूपा हैं, उन्हें ब्राह्मणों को दान करने से मनुष्य स्वर्ग का सुख भोगता है।

 

पवित्र जल से आचमन करके पवित्र होकर गौओं के बीच में गोमती मन्त्र ‘गोमाँ अग्नेविमाँ अश्वी’ का जप करने से मनुष्य अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल (पापमुक्त) हो जाता है। विद्या और वेदव्रत में निष्णात पुण्यात्मा ब्राह्मणों को चाहिये कि वे अग्नि, गौ और ब्राह्मणों के बीच अपने शिष्यों को यज्ञतुल्य गोमती मन्त्र की शिक्षा दें।

 

जो तीन रात तक उपवास करके गोमती मन्त्रका जप करता है, उसे गौओं का वरदान प्राप्त होता है। पुत्र की इच्छा वाले को पुत्र, धन चाहने वाले को धन और पति की इच्छा रखने वाली स्त्री को पति मिलता है। इस प्रकार गौएँ मनुष्य की सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करती हैं। वे यज्ञ का प्रधान अंग हैं, उनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है।’

 

अपने महात्मा पिता के इस प्रकार कहने पर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौकी पूजा करने लगे; इसलिये युधिष्ठिर ! तुम भी गौओं की पूजा करो।’

 

युधिष्ठिर ने कहा–‘पितामह! मैंने सुना है कि गौ के गोबर में लक्ष्मी का वास है सो इस विषय का आप स्पष्ट वर्णन कीजिये।’

 

भीष्मजी ने कहा–‘राजन् ! इस विषय में जानकार लोग गौ और लक्ष्मी के संवादरूप प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। एक समय की बात है, लक्ष्मी ने मनोहर रूप धारण करके गौओं के झुण्ड में प्रवेश किया, उनके सुन्दर रूप को देखकर गौओं ने विस्मित होकर पूछा–‘देवि! तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो? तुम पृथ्वी की अनुपम सुन्दरी जान पड़ती हो। हम लोग तुम्हारा रूप-वैभव देखकर अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गयी हैं, इसीलिये तुम्हारा परिचय जानना चाहती हैं। सुन्दरी ! सच-सच बताओ, तुम कौन हो और कहाँ जाओगी ?’

 

लक्ष्मी ने कहा–‘गौओ ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं इस जगत् में लक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हूँ। सारा जगत् मेरी कामना करता है।मैंने दैत्यों को छोड़ दिया, इससे वे सदा के लिये नष्ट हो गये हैं और मेरे ही आश्रय में रहने के कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, वरुण तथा अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं। देवताओं और ऋषियों को मेरी ही शरण में आने से सिद्धि मिलती है। जिनके शरीर में मैं प्रवेश नहीं करती, वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग होने पर ही सुख दे सकते हैं। सुखदायिनी गौओ! ऐसा ही मेरा प्रभाव है।

 

 

अब मैं तुम्हारे शरीर में सदा निवास करना चाहती हूँ और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूँ। तुम लोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ।’

 

गौओं ने कहा–‘देवि! तुम बड़ी चंचला हो, कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतों के साथ एक-सा सम्बन्ध है, इसलिये हमको तुम्हारी इच्छा नहीं है। तुम्हारा कल्याण हो, हमारा शरीर तो यों ही हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर है, हमें तुमसे क्या काम ? तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चली जाओ। तुमने हमसे बातचीत की, इतने ही से हम अपने को कृतार्थ मानती हैं।’

 

लक्ष्मी ने कहा–‘गौओ ! तुम यह क्या कहती हो, मैं दुर्लभ और सती हूँ फिर भी तुम मुझे स्वीकार नहीं करती, इसका क्या कारण है ? आज मुझे मालूम हुआ कि बिना बुलाये किसी के पास जाने से अनादर होता है, यह कहावत अक्षरशः सत्य है। उत्तम व्रत का पालन करने वाली धेनुओ ! देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते हैं। मेरा यह प्रभाव तुम्हारे ध्यान देने योग्य है, अतः मुझे स्वीकार करो। देखो, इस चराचर त्रिलोकी में कोई भी मेरा अपमान नहीं करता।’

 

गौओं ने कहा–‘देवि! हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करतीं, केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं और वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है, तुम कहीं भी जमकर नहीं रहती। अब बहुत बातचीत से कोई लाभ नहीं है, तुम जहाँ जाना चाहो चली जाओ। हम सब लोगों का शरीर यों ही हृष्ट- पुष्ट एवं प्राकृतिक शोभा से युक्त है, फिर हम तुम्हें लेकर क्या करेंगी ?’

 

लक्ष्मी ने कहा–‘गौओ ! तुम दूसरों को आदर देने वाली हो, यदि तुम मुझे त्याग दोगी तो सारे जगत् में मेरा अनादर होने लगेगा, इसलिये मुझ पर कृपा करो। तुम महान् सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देने वाली हो, अतः मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ, मुझमें कोई दोष नहीं है, मैं तुम लोगों की सेविका हूँ, यह जानकर मेरी रक्षा करो–मुझे अपनाओ।

 

मैं तुमसे सम्मान चाहती हूँ, तुम लोग सदा सबकी कल्याण करने वाली, पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यवती हो। मुझे आज्ञा दो, मैं तुम्हारे शरीर के किस भाग में निवास करूँ ?’

 

गौओं ने कहा–‘यशस्विनी ! हमें तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये। अच्छा, तुम हमारे गोबर और मूत्र में निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुएँ परम पवित्र हैं।’

 

लक्ष्मी ने कहा–‘धन्य भाग! जो तुम लोगों ने मुझ पर अनुग्रह किया। मैं ऐसा ही करूँगी। सुखदायिनी गौओ ! तुमने मेरा मान रख लिया, अतः तुम्हारा कल्याण हो।’ युधिष्ठिर ! इस प्रकार गौओं के साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मी उनके देखते-देखते वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं। इस प्रकार मैंने तुमसे गोबर के माहात्म्य का वर्णन किया है, अब फिर गौओं का ही माहात्म्य सुनो

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