आदर्श महारानी अहिल्याबाई होल्कर जीवनी विशेष
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेरव की पत्नी थीं। इनका जन्म सन् 1725 में हुआ था और देहांत 13 अगस्त 1795 को हुआ था; वह दिन भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी का था। अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं। उनका एफएमओएल सीमित था। फिर भी उसने जो कुछ किया, उसे आश्चर्य हुआ।
महारानी अहिल्याबाई होलकर भारत के मालवा साम्राज्य की मराठा होलकर महारानी थीं। अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंडी ग्राम में हुआ था। उनके पिता मनकोजी राव शिंदे, उनके गाव के पटेल थे। उस समय महिलाएं स्कूल नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखकर पढ़ाया था। अहिल्याबाई के पति खांडेराव होलकर 1754 के कुंभेर युद्ध में शहीद हुए थे। 12 साल बाद उनके ससुर मल्हार राव होलकर की भी मृत्यु हो गई। एक साल बाद ही उन्हें मालवा साम्राज्य की महारानी का ताज पहनाया गया
वह हमेशा से ही अपने साम्राज्य को मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने की कोशिश करती रही। बल्कि युद्ध के दौरान वह स्वयं अपनी सेना में शामिल होकर युद्ध करती थी। उन्होंने तुकोजीराव होलकर को अपनी सेना के सेनापति के रूप में नियुक्त किया था। रानी अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में काफी मंदिरों का निर्माण भी किया था।
इसके साथ ही उन्होंने लोगों के रहने के लिए बहुत सी धर्मशालाएं भी बनवाईं, ये सभी धर्मशालाएं गुजरात के द्वारका, काशी विश्वनाथ, वाराणसी का गंगा घाट, उज्जैन, नासिक, विष्णुपद मंदिर और बैजनाथ के आस-पास जैसे प्रमुख तीर्थस्थान बनवायीं। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े गए मंदिरों को देखकर ही उन्होंने सोमनाथ में शिवाजी का मंदिर बनवाया। जो आज भी हिन्दुओ द्वारा पूजा जाता है।
इनका विवाह इंदौर राज्य के संस्थापक महाराज मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। सन् 1745 में अहिल्याबाई के पुत्र हुए और तीन वर्ष बाद एक कन्या हुई। पुत्र का नाम मालेरवा और कन्या का नाम मुक्ताबाई रखा गया। उन्होंने बड़े समाचार से अपने पति के गौरव को जगाया। कुछ ही दिनों में अपने महान पिता के मार्गदर्शन में खंडेराव एक अच्छा सिपाही बन गया। मल्हाराव को भी देखकर संतोष होने लगा। पुत्रवधू अहिल्याबाई को भी वह राजकाज की शिक्षा देते रहते थे।
उनकी बुद्धि और चतुराई से वह बहुत प्रसन्न होते थे। मल्हाराव के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन 1754 ई. में हो गया था। अतः मल्हार राव के निधन के बाद रानी अहिल्याबाई ने राज्य का शासन-भार सम्भाला था। रानी अहिल्याबाई ने 1795 ई. अपनी मृत्यु पर्यन्त बड़ी ताकत से राज्य का शासन चलाया। उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। वे अपनी उदारता और प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका एक ही पुत्र था मालेराव जो 1766 ई. में पैदा हुआ। में जीवित हो गया। 1767 ई. अहिल्याबाई ने तुकोजी होल्कर को सेनापति नियुक्त किया।
रानी अहिल्याबाई अपनी राजधानी महेश्वर ले गईं। वहां उन्होंने 18वीं सदी का शानदार और भव्य अहिल्या महल बनवाया। पवित्र नर्मदा नदी के किनारे बनाए गए इस महल के ईर्द-गिर्द बनी राजधानी की पहचान बनी टेक्सटाइल उद्योग। उस दौरान महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक गढ़ बन चुका था। मराठी कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंडी और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके कालखंड के महान व्यक्तित्व थे।
एक बुद्धिमान, तीक्ष्ण सोच और स्वस्थ शासक के तौर पर अहिल्याबाई को याद किया जाता है। हर दिन वह अपनी प्रजा से बात करती थी। उनकी खबरें सुनी थीं। उनके कालखण्ड (1767-1795) में रानी अहिल्याबाई ने ऐसे कई काम किए कि आज भी लोग उनका नाम लेते हैं। उन्होंने अपने साम्राज्य को समृद्ध बनाया। उन्होंने कई किले, विश्राम गृह, सड़कें और सड़कें बनवाने पर सरकारी पैसा खर्च किया। वह लोगों के साथ त्योहार मनाती है और हिंदू मंदिरों को दान देती है।
अहिल्याबाई का मानना है कि धन, प्रजा और ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसका मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ । उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में अहिल्याबाई ने प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया। प्रजा के सुख-दुख की जानकारी वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिलकर लेते तथा न्यायपूर्वक निर्णय देते थे। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी तथा सारी प्रजा समान रूप से आधार की हकदार थी।
इसका प्रभाव यह हुआ कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर अपने राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं इनसे प्रभावित होते थे। अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी और आत्मनिर्भर थी क्योंकि उनके विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। लोकमाता अहिल्या का जन्म हुआ था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है ।
अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं, बल्कि एक छोटे भू-भाग पर उनका राज्य कायम था और उनकी बहुलता सीमित थी, इसके बावजूद जनकल्याण के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला है, वह चिरस्मरणीय है। राज्य की सत्ता पर विराजमान होने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति-पुत्र सहित अपने सभी पूर्वजों को खो दिया था, इसके बाद भी प्रजा हितार्थ किये गये तथा उनके जनकल्याण के कार्य प्रशंसनीय थे।
उन्हों ने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कार्य शुरू किया था। शिव की भक्त अहिल्याबाई का सारा जीवन वैराग्य, कर्तव्य-पालन और परमार्थ की साधना का बन गया। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े गए मंदिरों को देखकर ही उन्होंने सोमनाथ में शिव का मंदिर बनवाया। जो शिवभक्तों के द्वारा आज भी पूजा जाता है। शिवपूजन के बिना मुंह में पानी की एक बूंद नहीं जाने देती थी। सारा राज्य उन्होंने शंकर को समर्पित कर रखा था और आप उनकी सेविका शासन चलाती थीं।
शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि अहिल्याबाई राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी, बल्कि पत्र के नीचे केवल श्री शंकर लिखती थी। उनके रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र या फसलों पर नंदी का चित्र अंकित है। कहा जाता है कि तब तक भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक, उनके बाद में इंदौर के नरेश के सिंहासन पर आये सबकी राजाज्ञाऐं, जब तक कि श्रीशंकर का नाम जारी नहीं होता, तब तक वह राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी और उस पर अमल भी नहीं होता। था।
उन्होंने स्त्रियों की सेना बनाई, लेकिन वे यह बात अच्छी तरह से मानते थे कि पेशवा के आगे उनकी सेना कमजोर थी। इसलिए उन्होंने यह समाचार भेजा कि यदि वह स्त्री सेना से जीत भी हासिल कर सकें, तो उनकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी, दुनिया यही कहेगी कि स्त्रियों की सेना से ही तो जीती जाएंगी और अगर आप स्त्रियों की सेना से हार जाएंगे। गए, तो कितनी जग हंसाई होगी आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते।
अहिल्या बाई की यह बुद्धिमानीपूर्ण कार्य कर दी गई और पेशवा ने आक्रमण करने का विचार बदल दिया। इसके बाद महारानी पर दत्तक पुत्र लेने का भी दबाव बढ़ने लगा, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे प्रजा को ही अपनी संतान मानते थे। उनके इस फैसले के बाद राजपूतों ने उनके खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया, लेकिन रानी ने उस विद्रोह का ही दमन कर दिया। अपनी कुशाग्र बुद्धि का प्रयोग करते हुए रानी अहिल्या बाई होल्कर ने मालवा के भंडार को फिर से भर दिया।
योगदान :
अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमा के बाहर भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बाँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण किया, मार्ग बनवाए-सुधरवाए, भूखों के लिए अन्नसत्र (अन्य क्षेत्र) बिताएं, प्यासों के लिए प्याउ बिठालें, मंदिरों में शास्त्रों की नियुक्ति के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहती-मरते दम तक। इसी परंपरा में उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हुई।
अपने जीवनकाल में ही इन्हीं जनता ‘देवी’ को याद करके कहने लगी थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आंखें देखी ही कहाँ था। जब चारों ओर पतली मची हुई थी। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अंधविश्वासों, भय त्रासों और रूढ़ियों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया।-वह चिरस्मरणीय है।
कलकत्ता से बनारस तक की सड़क, बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर, विष्णु मन्दिर में उनके बनवाये हुए हैं। पहाड़ घाट बाँधवाए, कुओं और बावड़ियों का निर्माण गुड़, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत (अन्नक्षेत्र) उठना, प्यासों के लिए प्याउ बिठाना, मंदिरों में शास्त्रों की नियुक्ति के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु। वह अपने समय की हलचल में प्रमुख भाग लिया। रानी अहिल्याबाई ने काशी, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ पुरी के अलावा अन्य प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धार्मिक शालाएँ खुलवाईं।
उपलब्धियां :
अहिल्याबाई ने इंदौर को एक छोटे से गांव से खूबसूरत शहर बनाया। मालवा में कई किले और पहाड़ियां बनीं। उन्होंने कई घाट, मंदिर, तालाब, सीढ़ियां और विश्राम गृह बनवाए। न केवल दक्षिण भारत में बल्कि हिमालय पर भी। सोमनाथ, काशी, गया, अयोध्या, द्वारका, हरिद्वार, कांची, अवंती, बद्रीनारायण, रामेश्वर, मथुरा और जगन्नाथपुरी आदि का उल्लेख मिलता है।