जानिए श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनुष्य की मृत्यु का भविष्य
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
जान लेई कोई जाननहारा कि श्रीमद्भागवत गीता 8 वें अध्याय के 25 वें श्लोक में मनुष्य की मृत्यु का भविष्य स्पस्ट रुप से दर्शाया गया है जिसका श्लोक निम्न है:-
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः शान्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चन्द्रमसं ज्योतिर्योगि प्राप्य निवर्तते।।8.25।।
श्लोक 8•25 की व्याख्या– ‘धुमो रात्रिस्तथा कृष्णः ৷৷. प्राप्य निवर्तते’– देश और कल्कि दृष्टि से दाहिने दाहिने अग्नि का अर्थ है प्रकाश के देवता का है, ग्रह ही अधिकार वाले अर्थात अंधकार के देवता का है। वह धूमाधिपति देवता कृष्णमार्गसे जाने वाले ज्वालामुखी को अपनी सीमा से पार रात के अधिपति देवता के अधीन कर देता है। रात्रि का अधिपति देवता उस जीवको को अपनी सीमा से पार देश-काल को लेकर बहुत दूर तक अधिकार रखने वाले कृष्ण पक्ष के अधिपति देवता को अधीनस्थ कर देता है। वह देवता उस जीव को अपनी सीमा से पार विशाल देश और कल्कि दर्शन से बहुत दूर तक अधिकार रखने वाले दक्षिणायन के अधिपति देवता को समर्पित कर देता है। वह देवता उसे जीव को चंद्रलोक के अधिपति देवता को त्रिमूर्ति देता है। इस प्रकार कृष्ण मार्ग से जानेवाला वह जीव धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायण के देशों को पार करता है चंद्रमा की ज्योति को अर्थात अमृतका पान जहां होता है, ऐसे स्वर्गादि दिव्य लोकोंको प्राप्त होता है। फिर अपने पुण्योंके न्यूनाधिक समय तक का अर्थ है भोग भोगकर पीछे लौटना। यहां एक ध्यान देने की बात है कि यह जो चंद्रमंडल देखता है, यह चंद्रलोक नहीं है। क्योंकि यह चंद्रमंडल तो पृथ्वी के बहुत करीब है, जब चंद्रलोक सूर्य भी बहुत ऊंचा है। वही चंद्रलोक से अमृत इस चंद्रमंडल में मौजूद है, जिसमें शुक्ल पक्ष में ओषधियां स्थापित होती हैं। अब एक संकेत की बात यह है कि यहां जिस कृष्णमार्ग का वर्णन है, वह शुक्लमार्ग की स्पष्ट कृष्ण मार्ग है। असल में तो यह मार्ग ऊँचे-ऊँचे लोकों में जाने का है। सामान्य मनुष्य मरकर मृत्युलोक में जन्म लेते हैं, जो पापी होते हैं, वे आसुरी योनियाँ प्राप्त करते हैं और वे भी जो अधिक पापी होते हैं, वे नरक के कुण्डों में जाते हैं–इन सबमें से कृष्णमार्ग से जाने वाले बौलेवाले श्रेष्ठ हैं। वे चन्द्रमाकी ज्योति को प्राप्त होते हैं–ऐसा दर्शनका यही द्रव्य है कि संसार में जन्ममरणके मार्ग हैं उन सब रंगों से यह कृष्णमार्ग (ऊर्ध्वगति का होनेसे) श्रेष्ठ है और उनका विशिष्ट प्रकाशमय है। फिर से एयरोकेक विंटेज वैलिडिटी में आता है और रियोकेक द्वारा भूमंडल पर ग्यान अन्न में प्रवेश होता है। फिर से व्यवसाय प्राप्त करने वाली योनि के पुरुषों में अन्न के द्वारा प्रवेश किया जाता है और पुरुषों से स्त्री-जाति में धारण करके जन्म दिया जाता है। इस प्रकार वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ जाता है। यहां सकाम संदेश को भी ‘योगी’ क्यों कहा गया है? इसके कई कारण हो सकते हैं; जैसे–,(1)गीता में भगवान की तीन गतियाँ बताई गई हैं–ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति (गीता 14। 18)। इनमें से ऊर्ध्वगति का का वर्णन इस प्रकरण में हुआ है। मध्यगति और अधोगति से ऊर्ध्वगति श्रेष्ठ होने के कारण यहां सकाम संदेश को भी योगी ने कहा है।,(2) जो केवल भोग भोगनेके लिए ही ऊंचे लोकों में जाता है। इस त्याग से यहां उनके भोगोंके मिलना और न मिलने में समता हो गई है। इस अपूर्ण समताको लेकर ही यहां योगी ने कहा है।
(3) समग्र उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का है, पर अंतकाल में किसी सूक्ष्म भोग-वासनाके कारण वे योगसे, विक्लितमना हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँ बहुत समय तक पीछे यहाँ भूमंडल पर ज्ञान शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेते हैं। ऐसे योगभ्रष्ट संपर्क का भी जानेका यही मार्ग (कृष्णमार्ग) होनेसे यहां मनुष्य को भी योगी कह दिया है । एकवचन का अर्थ है। ऐसा अनुमान होता है कि सभी मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं, और परमात्मा की प्राप्ति का अधिकार होता है। कारण कि परम पिता परमेश्वर स्वतः प्राप्त हैं। स्वतः प्राप्त तत्त्वका अनुभव बड़ा सहज है। इसमें कुछ नहीं करना। इसलिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है। स्वर्ग आदिकी प्राप्ति के लिए विशेष क्रिया कैरीकीड है, मादक द्रव्य का संग्रह करना है, विधि-विधान का पालन करना है। इस प्रकार स्वर्गादि को करना भी कठिन है और प्राप्त करने के बाद पीछे लौटकर भी आता है। इसलिए यहां एक वचन दिया गया है।
विशेष बात
(1) उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का है; परंतु सुखभोग की सूक्ष्म दर्शन सर्वथा मिटती नहीं है, वे शरीर को ठीक करने वाले ब्रह्मलोक में जाते हैं। ब्रह्मलोक के भोगने पर उनका दर्शन मिट जाता है तो वे मुक्त हो जाते हैं। इसका वर्णन यहां चौबीसवें श्लोक में हुआ है।
उद्देश्य परमात्म प्राप्ति का ही है और जिसमें न यहांके भोगों की कल्पना है और न ब्रह्मलोक के भोगों की; परन्तु जो अन्तकाल में निर्गुण के ध्यान से समाप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक आदि लोकों में नहीं जाते। वे तो सीधे ही योगियों के कुलमें जन्म लेते हैं अर्थात जहां पूर्व जन्मकृत ध्यानरूप साधन ठीक तरह से हो सके, ऐसे योगियों के कुलमें उनका जन्म होता है। वहां वे साधन बनकर मुक्त हो जाते हैं (गीता 6। 42 43)।
— भौतिक शास्त्र साधकों का उद्देश्य तो एक ही रहता है पर वासना में अनंत निवास से एक तो ब्रह्मलोक में साधक मुक्त होते हैं और एक सीधे ही योगियों के कुल में उत्पन्न साधन साधन करके मुक्त होते हैं।
सारांश उद्देश्य ही स्वर्गादि ऊँचे-ऊँचे लोकों के सुख भोगने का है, वे यज्ञ आदि शुभ-कर्म करके ऊँचे-ऊँचे लोकों में जाते हैं और वहाँके दिव्य भोग भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पीछे लौट जाते हैं और अर्थात जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं (गीता 7. 20) — 23 8. 25 9.
उद्देश्य तो परमात्म प्राप्ति का ही है; पृथ्वी सुखभोग की इच्छा पर वह काम नहीं कर सका। अत: अन्तकाल में योग से विश्राम वह स्वर्गादि लोकों में रहता है, जहाँ उसका भोग होता है और फिर लौटकर शुद्ध श्रीमानोंके घर में जन्म लेता है। वहाँ वह महरीरी पूर्व जन्मकृत साधन में लग जाती है और मुक्त हो जाती है (गीता 6. 41 44 45)।
— मनोवैज्ञानिक साधकों में एक का तो उद्देश्य ही स्वर्ग के सुखभोगका है, इसलिए वह पुण्य कर्मों के अनुसार वहांके भोग भोगकर पीछे लौटकर आता है। उद्देश्य परमात्मा का है और वह विचार वाचक जगत् भोगों का त्याग भी करता है, फिर भी कोई संकल्प नहीं मिटता, तो अंत में भोगों की याद आती है वह स्वर्गादि लोकों में है। जिसने भी तीर्थ भोगों का त्याग किया है, उसका बड़ा भारी माहात्म्य है। इसलिए वह उन लोकों में बहुत समय तक भोग लगाता है, यहां श्रीमानों के घर में जन्म होता है।
(2) सामान्य सिद्धांत की यह धारणा है कि जो दिनमें, शुक्लपक्षमें और उत्तरायणमें मरते हैं, वे तो मुक्त हो जाते हैं, पर जो रात्रिमें कृष्णपक्ष में और दक्षिणायण में मरते हैं उनकी मुक्ति नहीं होती। यह धारणा ठीक नहीं है। क्योंकि यहां जो शुक्ल और कृष्णमार्ग का वर्णन हुआ है, वह ऊर्ध्वगति को प्राप्त करने वालों के लिए ही हुआ है। इसलिए यदि ऐसा ही मन लिया जाय कि एक दिन आदि में जन्माँवले मुक्त होते हैं और रात आदि में एक भी समय नहीं होता है, तो फिर अधोगति वाले कब मरेंगे? असल में मौत वाले अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही ऊंची-नीच गतियों में जाते हैं, वे कच्चे दिन में मरें, कच्ची रात में; कृष्ण कृष्ण पक्ष में मरें, कृष्ण कृष्ण पक्ष में; कलाई उत्तरायण में मरें, परत दक्षिणायण में — इसका कोई नियम नहीं है।
जो भगवद्भक्त हैं, जो केवल भगवान के ही परायण हैं, जिनके मन में भगवद्दर्शन की ही लालसा है, ऐसे भक्त दिनमें या रातमें, शुक्लपक्ष में या कृष्णपक्ष में, उत्तरायण में या दक्षिणायण में, जब कभी शरीर धारण करते हैं, तो उनके लिए भगवान के दर्शन होते हैं। मज़दूरों के साथ वे सीधे भगवद्धाम में पहुँच जाते हैं।
यहाँ एक शङ्का है कि जब मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही गति पाता है, तो फिर भीष्मजीने, जो तत्वज्ञ जीवनमुक्त महापुरुष थे, दक्षिणायन में शरीर न पूर्ण उत्तरायण की प्रतीक्षा क्यों की?
इसका समाधान यह है कि भीष्मजी भगवद्धाम नहीं गये थे। वे ‘द्यौ’ नामक वसु (अजान देवता) थे, जो शापके कारण मृत्युलोक में आये थे। मूलतः उन्हें देवलोक में जाना जाता था। दक्षिणायण के समय देवलोक में रात रहती है और उसके द्वार बंद रहते हैं। यदि भीष्मजी दक्षिणायन के समय शरीर रचना करते हैं, तो उन्हें अपने लोक में प्रवेश करने के लिए बाहर तक चलने वाले सामान दें। वे इच्छामृत्यु तो थे ही; मूलतः उन्होंने सोचा कि वहाँ प्रतिस्पर्द्धा करना ठीक है; क्योंकि यहां तो भगवान श्रीकृष्णके अस्तित्व दर्शन और सत्संग भी रहता है, जिससे सबका हित होगा, वहां अकेले पड़े साथ क्या रहेंगे? ऐसा संकेत वे अपना शरीर दक्षिणायनमें न पूर्ण उत्तरायणमें ही समाप्त करते हैं।
सम्मिलन– तीसवें श्लोकसे शुक्ल और कृष्ण-गतिका जो उनके प्रकरण की शुरुआत थी, आगेके श्लोकउपसंहार करते हैं।
श्री शंकराचार्य की संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद श्री हरिकृष्णदास गोयनका द्वारा
।।8.25।।जिस मार्ग में धूम और रात्रि है अर्थात धूमाभिमानी और रात्रिअभिमानी देवता। तथा कृष्णपक्ष अर्थात कृष्णपक्षा का देवता है और दक्षिणायन के छः मास। करनेवाला साम्यिक चन्द्रमाकी ज्योति को अर्थात् कर्मफल को प्राप्त किया जाता है–भोगकर वह कर्मफलका क्षयपर लौटता है।
स्वामी चिन्मयानंद द्वारा हिंदी टिप्पणी
।।8.25।। पितृयान के मार्ग को पितृयान (पितरों का मार्ग) कहा जाता है। इसके अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा जो जड़ पदार्थ जगत् का प्रतीक है। जो लोग उपासना अहित पुण्य कर्मों को सम्मिलित करते हैं जिनमें समाज सेवा और यज्ञगादि कर्म शामिल होते हैं वे मरणोपरांत पितृलोक को प्राप्त होते हैं जिन्हें प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहा जाता है। पुण्यकर्मों की प्राप्ति इस स्वर्गलोक में विषयोप भोग करने पर होती है। उस देह में ही उनकी इच्छाएं व्यक्त की जाती हैं और तृप्त हो सकते हैं। धूम रात्रि कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन ये सब पितृलोक प्राप्ति का मार्ग बताने वाले हैं। उनके अनुग्रह से कुछ काल तक स्वर्ग सुख भोगने के अंतिम जीव की पुनः प्राप्ति रामत्यलोक में होती है। इन दो श्लोकों में बताया गया है कि निःश्रेयस की प्राप्ति के प्रयास से साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है और भोग की कामना करने वाला होता है। पुरुष भोग के अवशेष शरीर को फिर से स्थापित करते हैं जहां वह भटक जाते हैं तो अपना उद्वेलन या पतन कर सकते हैं। विषय का उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं–
हिंदी अनुवाद स्वामी रामसुखदास जी द्वारा
।।8.25।। जिस मार्ग में धूमका अधिपति देवता, रात्रिका अधिपति देवता, कृष्णपक्षका अधिपति देवता और छह महीने में दक्षिणायनका अधिपति देवता है, शरीर को ठीक करने वाला वह मार्ग गया है योगी (सकाम मनुष्य) चंद्रमाकी ज्योतिको के प्राप्त विवरण से पता चलता है कि जन्म-मरनको प्राप्त होता है।
हिंदी अनुवाद स्वामी तेजोमयानन्द द्वारा
।।8.25।। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के छह मास वाले मार्ग से चन्द्रमा की ज्योति प्राप्त कर, योगी (संसार को) लौट आता है।