संविधान की प्रस्तावना से हटाए सेक्युलर शब्द : RSS ने उठाई आवाज
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
नई दिल्ली। भारतीय संविधान लेख के अनुसार, ये शब्द 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आपातकाल (1975-77) के दौरान जोड़े गए थे। उस समय संसद दबाव में काम कर रही थी। विपक्षी नेता जेल में थे और मीडिया पर सेंसरशिप लागू थी। संविधान की प्रस्तावना से हटाए जाएं सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द, RSS ने फिर उठाई आवाज
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले द्वारा हाल ही में संविधान की प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की समीक्षा की मांग की गई थी। संघ से प्रेरित साप्ताहिक पत्रिका ऑर्गनाइजर ने इन शब्दों को विचारधारा से प्रेरित बारूदी सुरंग करार दिया है। पत्रिका का कहना है कि इन शब्दों का उद्देश्य धार्मिक मूल्यों को कमजोर करना और राजनीतिक तुष्टिकरण को बढ़ावा देना था। एक लेख के जरिए इन्हें हटाने और मूल प्रस्तावना को बहाल करने की वकालत की गई है।
डॉ. निरंजन बी पूजार ने यह लेख लिखा है। इसका शीर्षक ‘प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता पर पुनर्विचार: भारत की संवैधानिक अखंडता को पुनः प्राप्त करना’ दिया गया है। लेख में कहा गया है, “इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ना सिर्फ एक सौंदर्य वाला बदलाव नहीं था, बल्कि यह एक विचारधारा थोपने का प्रयास था, जो भारत की सभ्यता की पहचान और संवैधानिक लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है।”
लेख के अनुसार, ये शब्द 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आपातकाल (1975-77) के दौरान जोड़े गए थे। उस समय संसद दबाव में काम कर रही थी। विपक्षी नेता जेल में थे और मीडिया पर सेंसरशिप लागू थी। लेख में लिखा है, “यह एक संवैधानिक धोखा था। जैसे कोई व्यक्ति बेहोशी की हालत में हो और उसकी वसीयत में छेड़छाड़ की जाए।”
लेख में कहा गया कि भारत में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा अपनी मूल भावना से भटक गई है। लेख के मुताबिक, धर्मनिरपेक्षता अब तटस्थता का प्रतीक नहीं रही, बल्कि अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर यह हिंदुओं के खिलाफ राज्य प्रायोजित भेदभाव का आवरण बन गई है। लेख में इस बात पर बल दिया गया है कि भारत कभी भी न तो एक ‘समाजवादी देश’ रहा है और न ही ‘नास्तिक धर्मनिरपेक्ष’ देश इसके मूल में रहा है।
ऑर्गनाइजर के लेख में कहा गया है कि इन शब्दों को हटाना कोई वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि संवैधानिक ईमानदारी की बहाली, राष्ट्रीय गरिमा की पुनर्स्थापना और राजनीतिक पाखंड का अंत है। लेख में कहा गया है, “भारत को अपने संविधान की उस प्रस्तावना की ओर लौटना चाहिए जिसे संविधान सभा ने स्वीकार किया था न कि उस संशोधित प्रस्तावना की ओर जिसे एक जबरन थोपा गया कानून माना जा सकता है।”