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(भाग:171) जिनका अंत:करण ज्ञान विज्ञान अर्थात तत्वज्ञान से तृप्त है उसीका जीवन धन्य!

भाग:171) जिनका अंत:करण ज्ञान विज्ञान अर्थात तत्वज्ञान से तृप्त है उसीका जीवन धन्य है।

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

अनाश्रितः, कर्मफलम्, कार्यम्, कर्म, करोति, यः,
सः, सन्यासी, च, योगी, च, न, निरग्निः, न, च, अक्रियः।।1।।

अनुवाद: (यः) जो साधक (कर्मफलम्) कर्मफलका (अनाश्रितः) आश्रय न लेकर (कार्यम्) शास्त्र विधि अनुसार करनेयोग्य (कर्म) भक्ति कर्म (करोति) करता है (सः) वह (सन्यासी) सन्यासी अर्थात् शास्त्र विरुद्ध साधना कर्मों को त्यागा हुआ व्यक्ति (च) तथा (योगी) योगी अर्थात् भक्त है (च) और (निरग्निः) वासना रहित (न) नहीं है (च) तथा केवल (अक्रियः) एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर लोक दिखावा करके क्रियाओंका त्याग करने वाला भी योगी (न) नहीं है। भावार्थ है कि जो हठ योग करके दम्भ करता है मन में विकार है, ऊपर से निष्क्रिय दिखता है वह न सन्यासी है, न ही कर्मयोगी अर्थात् भक्त है। (1)

हिन्दी: जो साधक कर्मफलका आश्रय न लेकर शास्त्र विधि अनुसार करनेयोग्य भक्ति कर्म करता है वह सन्यासी अर्थात् शास्त्र विरुद्ध साधना कर्मों को त्यागा हुआ व्यक्ति तथा योगी अर्थात् भक्त है और वासना रहित नहीं है तथा केवल एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन आदि लगा कर लोक दिखावा करके क्रियाओंका त्याग करने वाला भी योगी नहीं है। भावार्थ है कि जो हठ योग करके दम्भ करता है मन में विकार है, ऊपर से निष्क्रिय दिखता है वह न सन्यासी है, न ही कर्मयोगी अर्थात् भक्त है।

अध्याय 6 का श्लोक 2
यम्, सन्यासम्, इति, प्राहुः, योगम्, तम्, विद्धि पाण्डव,
न, हि, असन्यस्तसङ्कल्पः, योगी, भवति, कश्चन।।2।।

अनुवाद: (पाण्डव) हे अर्जुन! (यम्) जिसको (सन्यासम्) सन्यास (इति) ऐसा (प्राहुः) कहते हैं (तम्) उस (योगम्) भक्ति ज्ञान योग को (विद्धि) जान (हि) क्योंकि (असन्यस्तसङ्कल्पः) संकल्पोंका त्याग न करनेवाला (कश्चन) कोई भी पुरुष (योगी) योगी (न) नहीं (भवति) होता। (2)

हिन्दी: हे अर्जुन! जिसको सन्यास ऐसा कहते हैं उस भक्ति ज्ञान योग को जान क्योंकि संकल्पोंका त्याग न करनेवाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता।

गरीब, एक नारी त्याग दीन्हीं, पाँच नारी गैल बे।
पाया न द्वारा मुक्ति का, सुखदेव करी बहु सैल बे।।

भावार्थ है कि एक पत्नी को त्याग कर सन्यास प्रस्त हो गए परंतु पाँच विकार(काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) रूपी पत्नियाँ साथ ही हैं अर्थात् संकल्प अभी भी रहे, ये त्यागो, तब सन्यासी होवोगे। जैसे सुखदेव जी सन्यासी बन कर बहुत फिरा परंतु मान-बड़ाई नहीं त्यागी जिसके कारण विफल रहा।

अध्याय 6 का श्लोक 3
आरुरुक्षोः, मुनेः, योगम्, कर्म, कारणम्, उच्यते,
योगारूढस्य, तस्य, एव, शमः, कारणम्, उच्यते।।3।।

अनुवाद: (योगम्) योग अर्थात् भक्ति में (आरुरुक्षोः) आरूढ़ होनेकी इच्छावाले (मुनेः) मननशील साधकके लिये (कर्म) शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म करना ही (कारणम्) हेतु अर्थात् भक्ति का उद्देश्य (उच्यते) कहा जाता है (तस्य) उस (योगारूढस्य) भक्ति में संलग्न साधकका (शमः) जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है वही (एव) वास्तव में (कारणम्) भक्ति करने का कारण अर्थात् हेतु (उच्यते) कहा जाता है। (3)

हिन्दी: योग अर्थात् भक्ति में आरूढ़ होनेकी इच्छावाले मननशील साधकके लिये शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म करना ही हेतु अर्थात् भक्ति का उद्देश्य कहा जाता है उस भक्ति में संलग्न साधकका जो सर्वसंकल्पोंका अभाव है वही वास्तव में भक्ति करने का कारण अर्थात् हेतु कहा जाता है।

अध्याय 6 का श्लोक 4
यदा, हि, न, इन्द्रियार्थेषु, न, कर्मसु, अनुषज्जते,
सर्वसङ्कल्पसन्यासी, योगारूढः, तदा, उच्यते।।4।।

अनुवाद: (यदा) जिस समयमें (न) न तो (इन्द्रियार्थेषु) इन्द्रियोंके भोगोंमें और (न) न (कर्मसु) कर्मोंमें (हि) ही (अनुषज्जते) आसक्त होता है (तदा) उस स्थितिमें (सर्वसङ्कल्पसन्यासी) सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष (योगारूढः) वास्तव में भक्ति में दृढ़ निश्चय से संलग्न (उच्यते) कहा जाता है। (4)

हिन्दी: जिस समयमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है उस स्थितिमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष वास्तव में भक्ति में दृढ़ निश्चय से संलग्न कहा जाता है।

अध्याय 6 का श्लोक 5
उद्धरेत्, आत्मना, आत्मानम्, न, आत्मानम्, अवसादयेत्,
आत्मा, एव, हि, आत्मनः, बन्धुः, आत्मा, एव, रिपुः, आत्मनः।।5।।

अनुवाद: (आत्मना) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है के तत्वज्ञान को ध्यान में रखते हुए शास्त्र अनुकूल साधना से अपने द्वारा (आत्मानम्) अपनी आत्माका (उद्धरेत्) उद्धार करे और (आत्मानम्) अपनेको (न अवसादयेत्) बर्बाद न करे (हि) क्योंकि (आत्मा) शास्त्र अनुकूल साधक को पूर्ण परमात्मा विशेष लाभ प्रदान करता है वही प्रभु आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है, इसलिए वह आत्म रूप परमात्मा (एव) वास्तव में (आत्मनः) आत्माका (बन्धुः) मित्र है और (आत्मा) शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण करने से जीवात्मा (एव) वास्तव में (आत्मनः) स्वयं का (रिपुः) शत्रु है। (5)

हिन्दी: पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है के तत्वज्ञान को ध्यान में रखते हुए शास्त्र अनुकूल साधना से अपने द्वारा अपनी आत्माका उद्धार करे और अपनेको बर्बाद न करे क्योंकि शास्त्र अनुकूल साधक को पूर्ण परमात्मा विशेष लाभ प्रदान करता है वही प्रभु आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है, इसलिए वह आत्म रूप परमात्मा वास्तव में आत्माका मित्र है और शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण करने से जीवात्मा वास्तव में स्वयं का शत्रु है।

अध्याय 6 का श्लोक 6
बन्धुः, आत्मा, आत्मनः, तस्य, येन, आत्मा, एव, आत्मना, जितः,
अनात्मनः, तु, शत्रुत्वे, वर्तेत, आत्मा, एव, शत्रुवत्।।6।।

अनुवाद: (आत्मनः) जो आत्मा शास्त्रानुकूल साधना करता है (तस्य) उसका (बन्धुः आत्मा) पूर्ण परमात्मा ही साथी है (येन) जिस कारण से (एव) वास्तव में (आत्मना) शास्त्र अनुकूल साधक की आत्मा के साथ पूर्ण परमात्मा की शक्ति विशेष कार्य करती है जैसे बिजली का कनेक्शन लेने पर मानव शक्ति से न होने वाले कार्य भी आसानी से हो जाते हैं। ऐसे पूर्ण परमात्मा से (आत्मा) जीवात्मा की (जितः) विजय होती है अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध तथा सर्व सुख प्राप्त होता है तथा परमगति को अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है तथा मन व इन्द्रियों पर भी वही विजय प्राप्त करता है। (तू) परन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र अनुकूल साधना नहीं करते उनकी आत्मा को पूर्ण प्रभु का विशेष सहयोग प्राप्त नहीं होता, वह केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता रहता है इसलिए (अनात्मनः) पूर्ण प्रभु के सहयोग रहित जीवात्मा (शत्रुत्वे) स्वयं दुश्मन जैसा (वर्तेत) व्यवहार करता है (एव) वास्तव में वह साधक (आत्मा) अपना ही (शत्रुवत्) शत्रु तुल्य है अर्थात् शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजायें करने वाले को न तो सुख प्राप्त होता है न ही कार्य सिद्ध होता है, न परमगति ही प्राप्त होती है, प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 मंत्र 23-24। (6)

हिन्दी: जो आत्मा शास्त्रानुकूल साधना करता है उसका पूर्ण परमात्मा ही साथी है जिस कारण से वास्तव में शास्त्र अनुकूल साधक की आत्मा के साथ पूर्ण परमात्मा की शक्ति विशेष कार्य करती है जैसे बिजली का कनेक्शन लेने पर मानव शक्ति से न होने वाले कार्य भी आसानी से हो जाते हैं। ऐसे पूर्ण परमात्मा से जीवात्मा की विजय होती है अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध तथा सर्व सुख प्राप्त होता है तथा परमगति को अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है तथा मन व इन्द्रियों पर भी वही विजय प्राप्त करता है। परन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र अनुकूल साधना नहीं करते उनकी आत्मा को पूर्ण प्रभु का विशेष सहयोग प्राप्त नहीं होता, वह केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता रहता है इसलिए पूर्ण प्रभु के सहयोग रहित जीवात्मा स्वयं दुश्मन जैसा व्यवहार करता है वास्तव में वह साधक अपना ही शत्रु तुल्य है अर्थात् शास्त्र विधि को त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजायें करने वाले को न तो सुख प्राप्त होता है न ही कार्य सिद्ध होता है, न परमगति ही प्राप्त होती है, प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 मंत्र 23-24।

अध्याय 6 का श्लोक 7
जितात्मनः, प्रशान्तस्य, परमात्मा, समाहितः,
शीतोष्णसुखदुःखेषु, तथा, मानापमानयोः।।7।।

अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 6 में जिस विजयी आत्मा का विवरण है उसी से सम्बन्धित है कि वह (जितात्मनः) परमात्मा के कृप्या पात्र विजयी आत्मा अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने से प्रभु से सर्व सुख व कार्य सिद्धि प्राप्त हो रही है वह (प्रशान्तस्य) पूर्ण संतुष्ट साधक (परमात्मा) पूर्ण प्रभु के ऊपर (समाहितः) पूर्ण रूपेण आश्रित है अर्थात् उसको किसी अन्य से लाभ की चाह नहीं रहती। वह तो (शितोष्ण) सर्दी व गर्मी अर्थात् (सुख दुःखेषु) सुख व दुःख में (तथा) तथा (मान-अपमानयोः) मान व अपमान में भी प्रभु की इच्छा जान कर ही निश्चिंत रहता है। (7)

अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 6 में जिस विजयी आत्मा का विवरण है उसी से सम्बन्धित है कि वह परमात्मा के कृप्या पात्र विजयी आत्मा अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने से प्रभु से सर्व सुख व कार्य सिद्धि प्राप्त हो रही है वह पूर्ण संतुष्ट साधक पूर्ण प्रभु के ऊपर पूर्ण रूपेण आश्रित है अर्थात् उसको किसी अन्य से लाभ की चाह नहीं रहती। वह तो सर्दी व गर्मी अर्थात् सुख व दुःख में तथा मान व अपमान में भी प्रभु की इच्छा जान कर ही निश्चिंत रहता है।

अध्याय 6 का श्लोक 8
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा, कूटस्थः, विजितेन्द्रियः,
युक्तः, इति, उच्यते, योगी, समलोष्टाश्मका×चनः।। 8।।

अनुवाद: (ज्ञानविज्ञानतृृप्तात्मा) जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान से तृप्त है (कूटस्थः) जिसकी जीवात्मा की स्थिति विकाररहित है (विजितेन्द्रियः) प्रभु के सहयोग से जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और (समलोष्टाश्म का×चनः) जिसके लिये मिट्टी पत्थर और सुवर्ण समान हैं वह (योगी) शास्त्र अनुकूल साधक (युक्तः) युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है (इति) यह अन्तिम (उच्यते) ठीक सही भक्ति करने वाला कहा जाता है। (8)

हिन्दी: जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान से तृप्त है जिसकी जीवात्मा की स्थिति विकाररहित है प्रभु के सहयोग से जिसकी इन्द्रियाँ भलीभाँति जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी पत्थर और सुवर्ण समान हैं वह शास्त्र अनुकूल साधक युक्त अर्थात् भगवत्प्राप्त है यह अन्तिम ठीक सही भक्ति करने वाला कहा जाता है।

अध्याय 6 का श्लोक 9
सुहृद् मित्र अरि उदासीन मध्यस्थ द्वेष्य बन्धुषु,
साधुषु, अपि, च, पापेषु, समबुद्धिः, विशिष्यते।।9।।

अनुवाद: (सुहृद्) सुहृद्,(मित्र) मित्र,(अरि) वैरी,(उदासीन) उदासीन,(मध्यस्थ) मध्यस्थ,(द्वेष्य) द्वेष्य और (बन्धुषु) बन्धुगणोंमें (साधुषु) धर्मात्माओंमें (च) और (पापेषु) पापियों में (अपि) भी (समबुद्धिः) समान भाव रखनेवाला (विशिष्यते) अत्यन्त श्रेष्ठ है। (9)

हिन्दी: सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धुगणोंमें धर्मात्माओंमें और पापियों में भी समान भाव रखनेवाला अत्यन्त श्रेष्ठ है।

(श्लोक 10 से 15 में ब्रह्म ने अपनी पूजा के ज्ञान की अटकल लगाई है)
अध्याय 6 का श्लोक 10
योगी, यु×जीत, सततम्, आत्मानम्, रहसि, स्थितः,
एकाकी, यतचित्तात्मा, निराशीः, अपरिग्रहः।।10।।

अनुवाद: (यतचित्तात्मा) मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला (निराशीः) आशारहित और (अपरिग्रहः) संग्रहरहित (योगी) साधक (एकाकी) अकेला ही (रहसि) एकान्त स्थानमें रहता है तथा (स्थितः) स्थित होकर (आत्मानम्) आत्माको (सतत्म) निरन्तर परमात्मामें (यु×जीत) लगावे। (10)

हिन्दी: मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला आशारहित और संग्रहरहित साधक अकेला ही एकान्त स्थानमें रहता है तथा स्थित होकर आत्माको निरन्तर परमात्मामें लगावे।

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