(भाग:218) वेद पुराण मानते हैं जब सृष्टि में कुछ नहीं था तब सिर्फ ऊँ का नाद जो शिव का ही स्वरुप है

भाग:218) वेद पुराण मानते हैं जब सृष्टि में कुछ नहीं था तब सिर्फ ऊँ का नाद जो शिव का ही स्वरुप है

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

वेदांत दर्शन ऐसी शिक्षा की वकालत करता है जो निर्वाण प्रदान करती है और एक व्यक्ति को अपने स्वयं के पैर पर एक सार्थक जीवन जीने में मदद करती है। यह किसी विशेष समूह, वर्ग या जाति तक सीमित नहीं था। इसलिए, विकल्प (4) शिक्षा को पूरी तरह से वेदांत दर्शन से जोड़ता है।
सिर्फ अकेले अक्षर ऊं नाद के जाप से हो सकता है व
हिंदु धर्म में जीवन की उत्पत्ति का आधार ही ओम (ऊँ) की ध्वनि का माना गया है। ग्रंथों के अनुसार जब धरती पर कोई जीवन नहीं था, तब ब्रह्मांड में एक नाद उत्पन्न हुआ, जिससे जीवों की उत्पत्ति हुई। ये नाद था ओम का। ये भगवान शिव का रूप मंत्र है। शिव को प्रसन्न करने के लिए ओम का जाप ही पर्याप्त है, ऐसा ग्रंथों का मानना है।

ओम एक शब्द नहीं है ये एक नाद या मंत्र है जिसका उपयोग हमारे ऋषि-मुनि ध्यान व स्वास्थ्य लाभ के लिए करते थे। ओम अ, ऊ व म से मिलकर बना है और इसे सांस लेते व छोड़ते हुए इसी तरह से उच्चारित करना चाहिए। इसे कम से कम रोज 10 से 11 बार बोलना चाहिए। इससे पूरे शरीर में एक विशेष कंपन होता है, जो हमारे शरीर की नाड़ियों को खोलता है। इससे हमारी बॉडी पर काफी अच्छा असर पड़ता है।

ओम का जाप रेगुलर करने से मिलते हैं ये फायदे
1 – ऊं का उच्चारण करने से गले में कंपन्न होता है। जिससे थायरॉइड नियंत्रित होता है।

2 – ये स्ट्रेस व थकान को दूर करता है। शरीर से जहरीले तत्वों को बाहर करता है।

3 – ऊं से डायजेशन सुधरता है व पेट से जुड़ी अन्य समस्याएं भी नहीं होती हैं।

4 – इसे बोलने से चेहरे की चमक बढ़ती है व याददाश्त भी मजबूत है।

5 – नींद न आने की समस्या व मानसिक रोगों जैसी समस्याओं से भी ये निजात दिलवाता है।

वेदान्त दर्शन की शिक्षा का मूल्यांकन कीजिए।

वेदान्त दर्शन की शिक्षा को देन का मूल्यांकन- शंकर का अद्वैत वेदान्त भारतीय चिन्तनधारा का चरमोत्कर्ष है। इसने हमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकता (ब्रह्म तत्त्व) और अनेकता (ब्रह्म के माया तत्त्व) का स्पष्ट ज्ञान कराकर हमें अपनी अनन्त शक्ति से परिचित कराया है। अपनी इस अनन्त शक्ति की अनुभूति हेतु जिस साधन मार्ग की चर्चा शंकर ने की है, उसके लिए न केवल भारत अपितु सारा संसार उनका चिर ऋणी रहेगा। हाँ, उनका मायावाद उपनिषद् दर्शन से हटकर है और वही आलोचना का विषय है। जब ब्रह्म सत्य है तो उससे उत्पन्न माया असत्य कैसे हो सकती है, यह वस्तुजगत असत्य कैसे हो सकता है ! इस वस्तुजगत एवं उसमें मानव जीवन की व्यावहारिक सत्ता मानकर उन्होंने शिक्षा के विषय में जो तथ्य उजागर किए हैं वे सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक हैं।

शंकर ने शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न तो नहीं किया परन्तु उन्होंने उसके उद्देश्य निश्चित करने में भारी भूमिका अदा की है। उनकी दृष्टि से मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य भेद दृष्टि की समाप्ति और अभेद दृष्टि की प्राप्ति होता है। इसे ही उन्होंने मुक्ति कहा है। उनकी दृष्टि से शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य भी यही होना चाहिए। परन्तु इसके साथ-साथ उन्होंने इस जगत और मानव शरीर की व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार कर उसके ऐहिक जीवन सम्बन्धी उद्देश्यों का भी प्रतिपादन किया है। उन्होंने शिक्षा द्वारा मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक, नैतिक एवं चारित्रिक, इन्द्रिय निग्रह एवं चित्त शुद्धि तथा आध्यामिक विकास, सभी पर बल दिया है। यह बात दूसरी है कि इन सब उद्देश्यों को उन्होंने मुक्ति उद्देश्य का साधन माना है और यही तो उनकी सबसे बड़ी देन है।

शिक्षा की पाठ्यचर्या के विषय में भी शंकर का यही दृष्टिकोण है। उन्होंने पाठ्यचर्या में मनुष्य के व्यावहारिक जीवन के लिए व्यावहारिक विषयों एवं क्रियाओं तथा आध्यात्मिक जीवन के लिए आध्यात्मिक विषयों पर क्रियाओं को सम्मिलित करने की बात कही है। परन्तु व्यावहारिक जीवन को भी वे आध्यात्मिकता पर आधारित करना चाहते थे, तभी तो मनुष्य अपने अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति कर सकता है।

शिक्षण विधियों के क्षेत्र में तो वेदान्त का योगदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आधुनि मनोविज्ञान जहाँ ज्ञान प्राप्ति के उपकरणों में केवल बाह्य उपकरणों (इन्द्रियों) का वर्णन करता है, वहाँ वेदान्त ने इनके अतिरिक्त आन्तरिक उपकरणों-मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के कार्यों का भी विश्लेषण किया है। जहाँ उपनिषद् न्याय और सांख्य मनुष्य के अन्तःकरण में मन, बुद्धि, अहंकार को स्थान देते हैं और योग इस अन्तःकरण को चित्त कहता है वहाँ वेदान्त चित की अलग सत्ता मानता है। हमें शंकर के इस मनोविज्ञान को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। शंकर केवल श्रवण अथवा स्वाध्याय में विश्वास नहीं करते, वे उसके बाद मनन (चिन्तन) और निदिध्यासन (नित्य प्रयोग) पर भी बल देते हैं। हमारी दृष्टि से श्रवण अथवा स्वाध्याय, मनन अर्थात् चिन्तन और निदिध्यासन अर्थात् नित्य प्रयोग द्वारा अनुभूत ज्ञान ही सच्चा ज्ञान होता है और यही शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है।
अनुशासन में मुख्य तत्त्व है शासन। शंकर के अनुसार जब मनुष्य इन्द्रियों के शासन में रहता है तो वह पशु स्तर पर रहता है, जब समाज द्वारा निश्चित नियमों के शासन में रहता है तो वह सामाजिक स्तर पर पहुंच जाता है और जब वह आत्मा के शासन में रहता है तो आध्यात्मिक स्तर पर पहुंच जाता है। उनकी दृष्टि से आत्मानुशासन अनुशासन की उच्चतम सीमा है, हमें इसी को प्राप्त करना चाहिए।
शिक्षक को जीवन मुक्ति और शिष्य को साधन चतुष्टय का निर्देश देना शंकर वेदान्त की एक और ।बड़ी विशेषता है। काश आज के शिक्षक और शिक्षार्थी शंकर के इस निर्देश का पालन कर सकें तो शिक्षा जगत की सारी समस्याओं का अन्त हो जाए।

शंकर उच्च, विशिष्ट और आध्यात्मिक शिक्षा के लिए गुरु आश्रमों के समर्थक थे। आज के में जनसंख्या और ज्ञान के क्षेत्र में भारी विस्फोट हुआ है। इस स्थिति में हम गुरुगृह युग प्रणाली को स्वीकार नहीं कर सकते।
भारत में शंकर के बाद जितना भी चिन्तन हुआ है, वह उनके वेदान्त दर्शन के इधर-उधर ही हुआ है। यदि हम आधुनिक युग के भारतीय चिन्तकों दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, गाँधी, टैगोर और अरविन्द के दार्शनिक एवं शैक्षिक विचारों का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि वे वेदान्त के बहुत निकट हैं। स्वामी विवेकानन्द ने तो वेदान्त को जीवन में उतारने का स्तुत्य प्रयास किया है। गांधी जी ने भी मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के विकास की बात बुलन्द की है। शंकर के समान अरविन्द ने शिक्षा में योग की क्रियाओं को महत्व दिया है। वास्तव में वेदान्त समस्त धर्म एवं दर्शनों का मूल है, उसे यदि सार्वभौमिक एवं सार्वकालिया दर्शन कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। आज हम जिस वर्गहीन, धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी व्यवस्था की बात करते हैं, वह वेदान्त की अभेद दृष्टि के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। तब हमें अपनी शिक्षा को वेदान्त पर आधारित करना ही चाहिए

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