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(भाग:310) मर्यादा-पुरूषोत्तम श्री राम भक्त हनुमान जी महाराज भगवान शंकर जी के ग्यारहवें रुद्र रूप माने जाते हैं

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(भाग:310) मर्यादा-पुरूषोत्तम श्री राम भक्त हनुमान जी महाराज भगवान शंकर जी के ग्यारहवें रुद्र रूप माने जाते हैं

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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भगवान शंकर के एक अंश से, वायु के माध्यम से, कपिराज केसरी की पत्नी अंजना में हनुमान का जन्म हुआ। हपवन कुमार जी भगवान श्रीराम की सेवा करने के लिए उनके अवतार में आए, क्योंकि भगवान शंकर अपने रूप से इस सेवा का आनंद नहीं ले सकते थे. इसलिए, उन्होंने अपने ग्यारहवें रुद्र रूप को वानर के रूप में अवतरित किया.

 

हनुमान जी का जन्म होते ही, वे उगते हुए सूर्य को एक लाल-लाल फल समझकर निगलने के लिए आकाश की ओर दौड़ पड़े। उस दिन सूर्यग्रहण का समय था, और राहु ने देखा कि कोई अन्य व्यक्ति सूर्य को पकड़ने की कोशिश कर रहा है. इस पर राहु ने उस आने वाले व्यक्ति को पकड़ने का प्रयास किया, लेकिन जब वायु पुत्र हनुमान उसके पास पहुंचे, तो राहु डर कर भाग गए।।

 

राहु ने इंद्र से बुलाया। जब वह ऐरावत पर आए, तो पवन कुमार ने उसको देखकर एक बड़ा सफेद फल समझकर उसको पकड़ लिया। इस पर देवराज घबरा गए और उन्होंने ऐरावत पर वज्र (वज्रायुद्ध) से हमला किया। वज्र से उनकी हनु पर चोट लगने से वह थोड़ी सी टेढ़ी हो गई, इसके कारण उन्हें हनुमान कहा जाने लगा।

 

 

 

 

जब वज्र लगा, तो हनुमान जमकर गिर पड़े। इसको देखकर वायु देव बहुत रोषित हो गए और उन्होंने अपनी गति बंद कर ली। इससे देवता भी बेहद चिंतित हो गए। अंत में, सभी लोकपालों ने हनुमान्‌ को अमरता और अग्नि-जल-वायु आदि से सुरक्षित रहने की वरदान दिया, जिससे वायु देव खुश हो गए।

 

 

 

 

हनुमान् जी को ऋषियों ने शाप दिया –

 

जाति से चंचल हनुमान, ऋषियों के आश्रमों में वृक्षों को आसानी से तोड़ देते थे और आश्रम की वस्तुओं को व्यस्त कर देते थे। इसके कारण, ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया – ‘तुम अपने शक्ति का अहंकार करते हो। तब तुम तबादला हो जाओगे, जब कोई तुम्हें याद करेगा, तब ही तुम्हें अपनी शक्ति की अहमियत समझ में आएगी।’

 

 

 

 

इसके बाद से, हनुमान एक साधारण वानर की तरह रहने लगे। माता के आदेश पर, वे सूर्य नारायण के पास गए और वेद-वेदांग और अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। इसके बाद, वे किष्किन्धा में आकर सुग्रीव के साथ रहने लगे। सुग्रीव ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। जब बाली ने सुग्रीव को मार दिया, तो भी हनुमान सुग्रीव के साथ बने रहे।

 

 

 

 

सुग्रीव के साथ रहने वाले उनके साथी ऋष्यमूक पर रहते थे। जब वह बचपन में थे, तो बार-बार माता अंजना से यह गुजारिश करते रहते थे कि वे अनादि रामचरित कथा को सुनाएं। उन्होंने अध्ययन के समय वेदों और पुराणों में श्रीराम की कथा को भी पढ़ा था। जब वे किष्किन्धा पहुंचे, तो उन्हें पता चल गया कि परमात्मा ने अयोध्या में अवतार धारण किया था। अब वे बड़ी बेताबी से अपने स्वामी के दर्शन की प्रतीक्षा करने लगे।

 

 

 

 

श्री राम से हनुमान जी का मिलन-

 

श्री हनुमान जी जन्म से ही माया के बंधनों से पूरी तरह से अलग थे। वे हमेशा अपने प्रिय स्वामी, श्री राम के ध्यान में लगे रहते थे। एक दिन, श्री राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ रावण द्वारा सीता जी के अपहरण के समाचार से विचलित हो गए। उन्होंने सीता जी को ढूंढ़ने का निश्चय किया और ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुँचे।

 

 

 

 

सुग्रीव थोड़ी सी चिंता में था क्योंकि वह सोच रहा था कि बालि ने उनके जीवन को खतरे में डाल दिया हो सकता है। इसलिए उसने हनुमान जी को बालि के पास जाकर स्वागत करने और जानकारी प्राप्त करने के लिए भेज दिया।

 

राहु ने इंद्र से बुलाया। जब वह ऐरावत पर आए, तो पवन कुमार ने उसको देखकर एक बड़ा सफेद फल समझकर उसको पकड़ लिया। इस पर देवराज घबरा गए और उन्होंने ऐरावत पर वज्र (वज्रायुद्ध) से हमला किया। वज्र से उनकी हनु पर चोट लगने से वह थोड़ी सी टेढ़ी हो गई, इसके कारण उन्हें हनुमान कहा जाने लगा।

 

जब वज्र लगा, तो हनुमान जमकर गिर पड़े। इसको देखकर वायु देव बहुत रोषित हो गए और उन्होंने अपनी गति बंद कर ली। इससे देवता भी बेहद चिंतित हो गए। अंत में, सभी लोकपालों ने हनुमान्‌ को अमरता और अग्नि-जल-वायु आदि से सुरक्षित रहने की वरदान दिया, जिससे वायु देव खुश हो गए।

 

 

 

 

हनुमान् जी को ऋषियों ने शाप दिया –

 

जाति से चंचल हनुमान, ऋषियों के आश्रमों में वृक्षों को आसानी से तोड़ देते थे और आश्रम की वस्तुओं को व्यस्त कर देते थे। इसके कारण, ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया – ‘तुम अपने शक्ति का अहंकार करते हो। तब तुम तबादला हो जाओगे, जब कोई तुम्हें याद करेगा, तब ही तुम्हें अपनी शक्ति की अहमियत समझ में आएगी।’

 

 

 

 

इसके बाद से, हनुमान एक साधारण वानर की तरह रहने लगे। माता के आदेश पर, वे सूर्य नारायण के पास गए और वेद-वेदांग और अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। इसके बाद, वे किष्किन्धा में आकर सुग्रीव के साथ रहने लगे। सुग्रीव ने उन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। जब बाली ने सुग्रीव को मार दिया, तो भी हनुमान सुग्रीव के साथ बने रहे।

 

 

 

 

सुग्रीव के साथ रहने वाले उनके साथी ऋष्यमूक पर रहते थे। जब वह बचपन में थे, तो बार-बार माता अंजना से यह गुजारिश करते रहते थे कि वे अनादि रामचरित कथा को सुनाएं। उन्होंने अध्ययन के समय वेदों और पुराणों में श्रीराम की कथा को भी पढ़ा था। जब वे किष्किन्धा पहुंचे, तो उन्हें पता चल गया कि परमात्मा ने अयोध्या में अवतार धारण किया था। अब वे बड़ी बेताबी से अपने स्वामी के दर्शन की प्रतीक्षा करने लगे।

 

 

 

 

श्री राम से हनुमान जी का मिलन-

 

श्री हनुमान जी जन्म से ही माया के बंधनों से पूरी तरह से अलग थे। वे हमेशा अपने प्रिय स्वामी, श्री राम के ध्यान में लगे रहते थे। एक दिन, श्री राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ रावण द्वारा सीता जी के अपहरण के समाचार से विचलित हो गए। उन्होंने सीता जी को ढूंढ़ने का निश्चय किया और ऋष्यमूक पर्वत के पास पहुँचे।

 

 

 

 

सुग्रीव थोड़ी सी चिंता में था क्योंकि वह सोच रहा था कि बालि ने उनके जीवन को खतरे में डाल दिया हो सकता है। इसलिए उसने हनुमान जी को बालि के पास जाकर स्वागत करने और जानकारी प्राप्त करने के लिए भेज दिया।

 

 

 

 

हनुमान जी ने वीर्यवेष भाव से यह मिशन स्वीकार किया और बालि के सम्पर्क में आए। जब वे बालि के सामने पहुँचे और उनकी पहचान की, तो उन्होंने तुरंत श्री राम के चरणों में गिर पड़े। श्री राम ने उन्हें अपने हृदय से लिपट लिया और प्यार से उनका स्वागत किया। इसके बाद से हनुमान जी ने श्री राम के चरणों के पास ही अपना स्थान बना लिया।

 

 

 

 

पवन पुत्र जी की प्रार्थना से भगवान ने सुग्रीव से मित्रता की और बालि को पराजित करके सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य पुनः प्राप्त करने का मौका दिया।

 

 

 

 

जी की प्रार्थना से भगवान ने सुग्रीव से मित्रता की और बालि को पराजित करके सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य पुनः प्राप्त करने का मौका दिया।

 

 

 

 

जाम्बवन्त जी ने हनुमान् जी को उनके बल का स्मरण कराया-

 

राज्यभोग के समय, सुग्रीव को प्रमत्त देखकर हनुमान ने सोचा कि सीता के खोज में उनकी मदद करना आवश्यक है। वह वानरों को एकत्र करने के लिए कार्यशील रूप से कदम बढ़ाया। श्रीराम ने उन्हें अपनी मुद्रा का चिन्ह दिया, जिससे वह उनके प्रति निःसंदेह निष्ठा रखते थे।

 

 

 

 

जब वनर सेना को सौ योजना समुंदर पार करने का काम आया, तो जाम्बवन्त ने हनुमान से उनके अत्यधिक बल का स्मरण दिलाया और कहा कि “तुम्हारा अवतार खुद भगवान श्रीराम के कार्य को पूरा करने के लिए हुआ है,

 

 

 

 

तब वे अपनी अपार शक्ति का आभास करके उठ खड़े हो गए। उन्होंने देवताओं द्वारा भेजी गई नागमाता सुरसा को संतुष्ट करके, राक्षसी सिंहिका को मारकर, जिनसे उन्हें बल और बुद्धि का ज्ञान मिला, हनुमान जी ने लंका पहुँचने के लिए कठिनाइयों का सामना किया। वे लंका के द्वाररक्षिका लंकिनी को एक घूँसे में सीधा करके छोटे रूप में बदलकर, रात के समय चुपके से लंका में पहुँचे

 

अशोक वाटिका में, विभीषण से मिलकर अशोक ने जानकी के दर्शन किए। विभीषण ने उसे आश्वासन दिया और तब अशोक ने वन को उजाड़ दिया। रावण ने अपने भेजे हुए राक्षसों और अपने पुत्र अक्षय कुमार को मार दिया। मेघनाद उन्हें ब्रह्मास्त्र में बाँधकर राजसभा में ले गया। पवन पुत्र जी ने वहाँ पहुंचकर रावण से अबिमान को छोड़कर भगवान की शरण लेने की महत्वपूर्ण सिख दी। राक्षस राज की आज्ञा से उनकी पूंछ में आग लगा दी गई। उन्होंने इस आग से सारी लंका को जला दिया। फिर, सीता जी से चिह्न स्वरूप चूड़ामणि को लेकर भगवान के पास लौट आए।

 

समाचार के अनुसार, श्री राम ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने समुद्र पर सेतु बांधा। युद्ध हुआ और आखिरकार रावण ने अपने सभी अनुचर, बन्धु-बांधवों के साथ हार मानी। युद्ध में श्री पवन पुत्र जी का पराक्रम, उनकी बहादुरी, और उनकी वीरता सबसे ऊपर थी। वानर सेना के मुश्किल समय में वे हमेशा मदद करते थे। राक्षस उनके गर्जना से डरते थे। जब लक्ष्मण जी को मेघनाद की शक्ति से मूच्छा आई गई |

 

 

 

 

तब हनुमान जी ने मार्ग में ही पाखण्डी कालनेमि को मारकर द्रोणाचल को उखाड़ फेंका और इस प्रकार संजीवनी औषधि आने से लक्ष्मण जी पुनः चेतन हो गये।

 

 

 

 

श्री जानकी को सुनाने का सौभाग्य और ‘श्री राम लौट रहे हैं’ – यह खुशखबरी भरत जी को गर्वित किया। यह गर्व प्रभु ने अपने प्रिय सेवक पवन पुत्र जी को ही दिया। हनुमान जी विद्या, बुद्धि, ज्ञान और पराक्रम के प्रतीक हैं, लेकिन उनका आत्म-सम्मान कभी बढ़ नहीं गया। जब वे अकेले लंका को जला कर रावण का समापन किया और प्रभु के पास वापस आए, तो प्रभु ने पूछा, ‘तुमने ऐसा कैसे किया कि तुम ने त्रिभुवन विजयी रावण की लंका को कैसे जला दिया?’

 

 

 

 

हनुमान् जी को श्री राम ने लंका विजय के बाद क्या वरदान दिया कि जब तक पृथ्वी पर श्री राम की कथा रहेगी, तब तक पृथ्वी पर रहने का वरदान उन्होंने स्वयं प्रभु से माँगा है। श्री राम जी के अश्वमेध यज्ञ में अश्व की रक्षा करते समय, अनेक महासंग्राम हुए, और उनमें हनुमान जी का पराक्रम ही सर्वत्र विजयी था।

 

 

 

 

श्री हनुमान् जी ने अपना हृदय चीरकर दिखलाया-

 

एक बार हनुमान जी ने उस माला को उलट-पुलट कर देखा, फिर उसके एक-एक रत्न को निकाल कर अपने वज्रसदृश दाँतों से तोड़-तोड़ कर देखने लगे। उन्हें ऐसा करते देख विभीषण जी ने पूछा- ‘हनुमान जी! आप इन अमूल्य रत्नों को क्यों नष्ट कर रहे हैं?’ हनुमान जी ने अनमने भाव से उत्तर दिया- ‘इन रत्नों में प्रभु श्री राम का नाम अंकित नहीं है, इसलिए ये मेरे लिये मूल्यहीन हैं।’ इसपर विभीषण जी ने कहा- ‘आपके शरीर पर भी तो कहीं राम-नाम अंकित नहीं है, फिर इसे आप क्यों धारण किये हैं?’ इसपर श्री हनुमान जी ने अपना हृदय चीरकर दिखलाया, तो उनके अन्तस्तल में विराजमान श्री राम-सीता के दर्शन सबको हुए।

 

हनुमान् जी को ऋषियों ने शाप दिया –

 

श्री राम से हनुमान जी का मिलन-

 

जाम्बवन्त जी ने हनुमान् जी महाराज को उनके बल का स्मरण कराया था । जब श्रीलंका पुरी में बजरंगबली जी की पूँछ में आग लगी दी गई थी। हनुमान् जी को श्री राम ने लंका विजय के बाद क्या वरदान दिया-

 

श्री हनुमान् जी ने अपना हृदय चीरकर दिखलाया राम-सीता के स्वरुप का साक्षात्कार

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