अहंकार कामना और स्वार्थ से मुक्त होते हैं भक्त: प्रेमानन्द महाराज के प्रवचन
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
बृंदावन। श्री हित प्रेमानंन्द जी महाराज के ने भगवान के सच्चे भक्तों के लक्षण के बारे मे बताया हैं कि भक्त अहंकार, कामना, और स्वार्थ से मुक्ति, संदेह रहित गुरुभक्ति, मन और बुद्धि का गुरु चरणों में समर्पण, सहनशीलता, और किसी भी परिस्थिति में प्रभु पर दृढ़ विश्वास रखते हैं। ऐसे भक्त सुख-दुःख, लाभ-हानि को समान भाव से देखते हैं और उनके हृदय में शुद्ध प्रेम, करुणा व शांति का संचार होता है। प्रेमानंन्द महाराज ने कहा कि सच्चा भक्त अपना अहम को त्याग देता है और उसके मन में कोई स्वार्थ या कामना नहीं होती। वह पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने गुरु के वचनों का पालन करता है, जैसे गुरु को अपनी खेती मानता है। ऐसे भक्त सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु सबको समान भाव से देखते हैं और उनका हृदय कोमल व करुणामय होता है.
वह अपमान और कटु वचनों को सहता है और अपने मन में शांति बनाए रखता है, बदले की भावना से मुक्त रहता है।
सच्चा भक्त सत्संग करता है, अधिक नाम जप करता है, और एकांत वास में रहता है।
वह अपने जीवन धन प्रभु पर दृढ़ भरोसा रखता है कि इसी जन्म में भगवत प्राप्ति हो जाएगी. भगवान की दृष्टि समदर्शी होती है और वह हमेशा दूसरों के कल्याण की भावना से जीता है। उसका मन शांत, संयमी और जितेंद्रिय होता है। भक्त बहुत कम बोलने, कम खाने और कम सोने पर भी ध्यान देता है।
भक्ति मार्ग पर चलने से पुराने पाप और अशुद्ध कर्म नष्ट होते हैं, जिससे दुख आता है लेकिन वह भी भक्त का एक लक्षण है।
एक भक्त के मुख्य लक्षण यह हैं कि अहंकार और फल की इच्छा से रहित होकर कर्म करना, सभी के प्रति निष्कपट प्रेम, सहनशीलता, करुणा, द्वेष न करना, सुख-दुःख में समभाव रखना, और ईश्वर पर अटूट श्रद्धा। सच्चा भक्त अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित करता है, किसी भी प्रकार का लोभ लालच और स्वार्थ नहीं रखता, तथा दूसरों के प्रति सद्भावनापूर्ण व्यवहार करता है। भक्त अपने कर्मों से किसी फल या अपेक्षा की कामना नहीं करता, बल्कि उन्हें अपना कर्तव्य समझकर ईश्वर को अर्पित करता है।
भक्त ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से प्रेम करता है, जिसमें अहंकार और लोभ का स्थान नहीं होता। वह सुख और दुःख दोनों स्थितियों में समान भाव रखता है, और किसी भी परिस्थिति से विचलित नहीं होता। भक्त का व्यवहार सबके साथ मैत्रीपूर्ण और करुणापूर्ण होता है, वह किसी से द्वेष नहीं करता और सबके प्रति मित्रवत रहता है।भक्त अपने अहं (मैं हूँ) को त्याग देता है, और अपने व्यक्तित्व व स्वामित्व के भाव से मुक्त हो जाता है।
बाहर और भीतर दोनों से शुद्ध होता है; उसका आचरण शुद्ध होता है. (मन-बुद्धि) निष्काम कर्मों से निर्मल होता है। वह किसी भी पक्षपात से रहित होता है और स्वार्थरहित होकर सभी के साथ व्यवहार करता है। ईश्वर में उसकी अटूट श्रद्धा होती है, और वह अपने कर्तव्य में धैर्य और स्थिरता रखता है