मुंबई । सत्ता- कुर्सी की लोलुपता एवं पुत्र मोह की अभिलालषा और कपटी सलाहकार का होना यह सभी द्वापर युग में हुए महाभारत युद्ध के कारण थे। धृतराष्ट्र के पास ये सभी थे। और इन्हीं कारणों ने धृतराष्ट्र को सत्ता और समाज दोनों में निचले पाएदान पर लाकर पटक दिया था।उसी तरह वर्तमान परिवेश (कलियुग) में यही रोज देखने को मिलता रहा है और इसे कहते हैं धृतराष्ट्र सिंड्रोम। लेकिन महाराष्ट्र में यह सिंड्रोम एक अलग तरह से देखने को मिला रह है जहां शिवसेना को माया मिली न राम और इसमें धृतराष्ट्र सिंड्रोम से ग्रसित दिख रहे है।
चुनाव परिणाम आने के बाद से ही लगातार संशय का दौर जारी रहा और शाम को यह घोषणा हुई कि एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना के बीच सहमति बन गयी है उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन दूसरे दिन तड़के सुबह कुछ और ही हुआ और खबर यह आई कि देवेंद्र फडणवीस न केवल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर दोबारा शपथ ली है, बल्कि उनके साथ एनसीपी के अजित पवार ने भी उप मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली है। इसके बाद तो जो शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी का फॉर्मूला तैयार हुआ था, वह फॉर्मूला धरा का धरा रह गया। इसमें सबसे अधिक शिवसेना का नुकसान हुआ। महाराष्ट्र के चुनाव के बाद इसी सत्ता के मोह, कुर्सी का लालच, पुत्र मोह की अभिलालषा और कपटी सलाहकार संजय राऊत ने शिवसेना को अब उसके निचले स्तर के राजनीति पर लाकर खड़ा कर दिया है।
इस चुनाव से पहले शिवसेना में यह प्रथा थी कि कि ठाकरे परिवार का कोई भी सदस्य चुनाव नहीं लड़ेगा लेकिन उद्धव ठाकरे के पुत्र मोह की लालसा ने अपने बेटे को चुनाव में उतारा। हालांकि, 1966 में जब विजयदशमी के अवसर पर शिव सेना की आधिकारिक रूप से स्थापना हुई थी, तब एक विशाल रैली में बालासाहेब ने कहा था, कि“राजनीति मेरे लिए चर्म रोग के समान है और शिवसेना की गतिविधियों में 20 प्रतिशत राजनीति और 80 प्रतिशत समाजसेवा होगी”। इसी कारण बालसाहब ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने कभी भी अपने राजनीतिक करियर में कोई चुनाव नहीं लड़ा, और न ही उन्होंने कोई राजनीतिक पद ग्रहण किया। इसीलिए वर्षों से ठाकरे परिवार की छवि समाज में काफी साफ़ रही है और उन्हें जनता का अथाह प्रेम भी मिलता रहा था। लेकिन इस बार उद्धव ठाकरे ने अज्ञानतावश संजय राउत जैसे कपटी सलाहकार से सलाह लेना शुरू कर दिया। इस संजय राउत ने उद्धव को CM कुर्सी एक ऐसे रंगीन सपने दिखाये कि उद्धव ने अपने NDA से ही नाता तोड़ लिया। उन्हें लगा कि अब वह इतनी सीटें जीत चुके है कि सत्ता में आ सकते है और अपने बेटे आदित्य को CM बना सकते है। इसलिए कई दौर की मीटिंग्स हुई, जैसे जैसे मीटिंग्स होती गयी वैसे वैसे उद्धव का अपने बेटे को सीएम की कुर्सी पर बिठाने का सपना और गहराता गया।हालकि भाजपा से गठबंधन तो उन्होंने अपने पुत्र अदित्य ठाकरे को सीएम बनाने के मुद्दे पर किया था लेकिन जब कांग्रेस और एनसीपी के हाईकमान बागड बिल्ले नेताओं के साथ आदित्य के नाम पर सहमति नहीं बनी तो खुद CM बनने का ख्वाब देखने लगे।तत्कालीन शुक्रवार शाम को भी इसी खबर के साथ सभी ने यह मान लिया था कि उद्धव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने जा रहे है। लेकिन आधुनिक युग के चाणक्य अमित शाह ने पासा ही पलट दिया और सुबह होते होते देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री की शपथ ले रहे थे।
उद्धव ठाकरे को महाभारत में धृतराष्ट्र की तरह ही सत्ता की लालसा ने ऐसे मोहजाल में फंसाया कि वो अब न घर के रहे न घाट के। अब मुख्यमंत्री पद तो गया ही साथ ही इस पार्टी की रही सही इज्ज़त और एक हिन्दू पार्टी का तमगा भी खो दिया गया। एक प्रखर और अपनी विचारधारा से कभी समझौता न करने वाली पार्टी के रूप से अब शिवसेना बाकी पार्टियों जैसी सेक्युलर हो कर रह गयी है। सत्ता के मोह पाश, कुर्सी का लालच, उद्धव ठाकरे का पुत्र मोह की लालसा और संजय राउत जैसे कपटी सलाहकार ने उद्धव ठाकरे का बेड़ा गर्क कर दिया। कुल मिलाकर उद्धव ठाकरे धृतराष्ट्र सिंड्रोम ग्रसित हैं और इसी कारण उन्होंने अपनी ही लुटिया डुबो दी है ठीक उसी तरह जैसे धृतराष्ट्र के पुत्र मोह ने महाभारत में कौरवों के अंत का कारण बना था?