घोड़े जैसी स्थाई मर्दाना ताकत का खजाना है बला महाबला चूर्ण
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
भारतीय वनौषधीय आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों और मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वनौषधीय बला अतिबला -महाबला एक साधारण जड़ी-बूटी नहीं स्वस्थ्य सेहत का खजाना है ये पौधा, इन 5 बीमारियों की छुट्टी करता है.दरअसल मे यह वनौषधीय चूर्ण विधिवत नियम के अनुसार उपयोग करने से पुराने से पुराना लैंगिक लकवा यानी पेनिस पैरालिसिस की नपुंसकता की बीमारी ठीक-ठाक होत सकती है. वनौषधीय विशेषज्ञों के अनुसार शुद्ध बला अतिबला महाबला की जड, शुद्ध कौच की जड और शुद्ध अश्वगंधा की जड को संम भागों मे प्रत्येक एक एक पाव महीन चूर्ण तैयार कर लेवें और भोजन के पश्चात 1 पावर गुनगुने गो दुग्ध के साथ लेने से मात्र तीन महीने के अंतराल मे पेनिस पैरालिसेस और नपुंसकता सदैव के लिए जड से समाप्त हो सकती है.परिणामत: घर मे वातावरण तनाव मुक्त और खुशियों की बहार आ जाएगी. वसर्तें पराई स्त्री व्यभिचार और अश्लील व्यवहार से बचना चाहिए. क्योंकि यह वैदिक सनातन धर्म आयुर्विज्ञान से संबंधित औषधीय होने की वजह से नैसर्गिक(प्राकृतिक) नियम और सयम का पालन करना चाहिए.
अतिबला के पौधे में कई औषधीय गुण होते हैं जिनका सही इस्तेमाल हमें कई और बीमारियों से बचा सकते है. ये न केवल स्किन के लिए फायदेमंद है बल्कि इससे जोड़ों का दर्द ठीक होता है और सांस की बदबू भी चली जाती है.
हमारे आस-पास कई ऐसे औषधीय पौधे होते हैं, जिनके गुणों से हम अनजान रहते हैं. हम उन्हें सिर्फ साधारण घास-फूस या खरपतवार समझकर नजरअंदाज कर देते हैं, लेकिन आयुर्वेद में इनका बहुत महत्व है. ऐसे ही एक पौधे का नाम है अतिबला जिसे स्थानीय भाषा में कंघी भी कहा जाता है. यह पौधा सिर्फ एक साधारण झाड़ी नहीं है, बल्कि इसमें कई औषधीय गुण होते हैं, जो शरीर को स्वस्थ और उर्जावान बनाए रखने में मददगार साबित होते हैं. यह पौधा पेट दर्द, सांसों की दुर्गंध, मूत्र विकार, जोड़ों के दर्द और सूजन जैसी समस्याओं को दूर करने में मदद करता है.सही इस्तेमाल बचा सकता है कई बीमारियों से लोकल 18 के साथ बातचीत के दौरान उत्तराखंड के ऋषिकेश में स्थित कायाकल्प हर्बल क्लिनिक के डॉ राजकुमार (डी.यू.एम) ने कहा कि अतिबला एक बहुत ही गुणकारी पौधा है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं. यह पेट दर्द, सांसों की दुर्गंध, मूत्र विकार, जोड़ों के दर्द और त्वचा की समस्याओं के लिए बेहद फायदेमंद है.
अगर हम इस पौधे का सही तरीके से इस्तेमाल करें, तो कई बीमारियों से बच सकते हैं और अपने शरीर को स्वस्थ और मजबूत बना सकते हैं. इसलिए, अगली बार जब आपको यह पौधा कहीं दिखे, तो इसे पहचानें और इसके औषधीय गुणों का लाभ उठाएं
सहर्ष सूचनार्थ नोट्स:-
उपरोक्त समाचार सामान्य ज्ञान के लिए है. किसी भी प्रकार का नशापान, पर स्त्री गमन वर्जित. स्वास्थ्य जीवनचर्या सुगर मुक्त रहना चाहिए.अधिक जानकारी के लिए आयुर्विज्ञान चिकित्सक की सलाह अनिवार्य है.
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अतिबला-महाबला वनौषधीय का विभिन्न भाषा में परिचय
वानस्पतिक नाम : (साइडा रॉम्बिफोलिया)
कुल: (मालवेसी)
अंग्रेज़ी नाम :(ऐरो लीफ साइडा),संस्कृत-क्षेत्रबला, महाबला; हिन्दी-पीला बरियार, भीउन्ली, लाल बेरेला, पीतबला; बंगाली-पीतबेडेला, मराठी-चिकणी, सहदेवी, गुजराती-खेतरौबात् अतिबला तेलुगु-अतिबलाचेट्टू , गूबाताड़ा, तमिल-चित्र मुत्ती, हाथीबल छेदी, पंजाबी-सहदेवि, नेपाली-बलु झार, कन्नड़-बिन्नेगरुडिगिडा, मलयालम-अनाकुरुन्थोटटी, टोट्टी, उड़िया-ढोलाबड़ी आम्ला , ढोलाबडीएनला, अंग्रेजी-ब्रूम जूट, कैनेरी आइसलैण्ड टी प्लान्ट, सिडे हेम्प, बरेला, ऐरो लीफ साइडा,
परिचय
समस्त भारत के मैदानी भागों तथा जंगलों व गांवों के आस-पास पड़ी परती भूमि में महाबला के पौधे पाए जाते हैं।
महाबला का क्षुप 30-150 सेमी ऊँचा, छोटा, सीधा, शाखित, एकवर्षायु अथवा बहुवर्षायु होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
महाबला मधुर, वातानुलोमक, धातुवर्धक, बल्य, वृष्य, शुक्रवृद्धिकारक तथा त्रिदोषशामक होती है।
यह मूत्रकृच्छ्र, ज्वर, हृद्रोग, दाह, अर्श, शोफ, विषमज्वर, मेह, विष तथा शोफनाशक होती है।
महाबला का अर्क-वातानुलोमक तथा मूत्रकृच्छ्रशामक होता है।
इसके मूल तथा पत्र स्वादु, वाजीकर एवं बलकारक होते हैं।
इसकी काण्डमज्जा विशोधक तथा मृदुकारी होती है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
शिरशूल-पञ्चाङ्ग को पीसकर मस्तक पर लेप करने से शिरशूल का शमन होता है।
दंतशूल-मूल का प्रयोग दातून के रुप में करने से दंतशूल का शमन होता है।
फुफ्फुस क्षय-पञ्चाङ्ग का क्वाथ बनाकर पीने से फूफ्फूस क्षय में लाभ होता है।
प्रवाहिका-मूल से निर्मित शीतकषाय (हिम) का सेवन करने से प्रवाहिका में लाभ होता है।
अजीर्ण-मूल कल्क का सेवन करने से अजीर्ण का शमन होता है।
त्रिदोषज मूत्रविकार-मूल तथा पत्र से निर्मित क्वाथ का सेवन करने से मूत्रकृच्छ्रता, नपुंसकता तथा अन्य त्रिदोषज मूत्रविकारों का शमन होता है।
श्वेत प्रदर-मूल कल्क में मधु मिलाकर सेवन करने से श्वेत प्रदर में लाभ होता है।
आमवात-पञ्चाङ्ग कल्क का लेप करने से आमवात तथा पेशी उद्वेष्टन में लाभ होता है।
त्वचा रोग-मूल तथा पत्रों से निर्मित कल्क का लेप करने से क्षत एवं व्रण का शीघ्र रोपण होता है।
ज्वर-पञ्चाङ्ग स्वरस को (10 मिली) प्रतिदिन दिन में तीन बार सेवन करने से सविरामी ज्वर में लाभ होता है।
शोथ-पत्र कल्क का लेप करने से सर्वांङ्ग शोथ में लाभ होता है।
प्रयोज्याङ्ग : पत्र, काण्ड, मूल तथा पञ्चाङ्ग।
मात्रा : स्वरस-2 चम्मच की मात्रा में दिन में 3 बार। क्वाथ 20-40 मिली।
विषाक्तता :
पौधे से प्राप्त के सार चूहों में 8 ग्राम/किग्रा शरीर भार से अधिक मात्रा में एस्पारटेट एमिनो-ट्रंसफरेज, एलेनीन एमिनोट्रंसफरेज, एल्केलीन फॉस्फटेज, एवं क्रिएटीनीन ,जैसे कुछ जीवरसायनिक प्राचल में सार्थक वृद्वि प्रदर्शित करता है।
राजबला
कुल : (मालवेसी)
अंग्रेज़ी नाम :(स्नेक मेलो)
संस्कृत-राजबला, प्रसारिणी, सुप्रसरा; हिन्दी-बननियार, भिउन्ली, खरेंटी, फरीद बूटी; बंगाली-जुन्का, मराठी-भुईबल, भूईकना, गुजराती-भोयबल, कन्नड़-बेक्केनातालेगिडा, तमिल-पालाम्पासी, तेलुगु-गयपुवाक, गयपाकू; मलयालम-वल्लीक्कुरुनटोड्डी, उड़िया-विश्खापूरी, नेपाली-बालु, खापरे, अंगेजी-लौंग स्टॉक साइडा, स्नेक मेलो,
परिचय
समस्त भारत के मैदानी भागों, जंगलों तथा गांवों के आसपास की परती जमीन में लगभग 1050 मी की ऊँचाई तक राजबला के स्वयंजात पौधे पाए जाते हैं।
यह भूशायी अथवा उच्चभूस्तारी-आरोही, अत्यधिक अथवा अल्प रोमश, 0.5 मी ऊँचा, बहुवर्षायु शाकीय पौधा होता है। इसका काण्ड शाखित, अल्प विरल रोमों से आवरित तथा ग्रंथिल होता है। इसके पत्र सरल, एकांतर, 1-5 सेमी लम्बे एवं चौड़े, गोलाकार से अण्डाकार होते हैं। इसके पुष्प पाण्डुर पीतवर्ण के होते हैं। इसके फल 2-2.5 मिमी लम्बे तथा बीज एकल, 2 मिमी लम्बे, भूरे-कृष्णाभ वर्ण के, अण्डाकार होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल सितम्बर से जनवरी तक होता है।
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
राजबला तिक्त, उष्ण, गुरु, त्रिदोषशामक, सारक, शुक्रवर्धक, बलकारक, व्रणसन्धान करने वाली तथा वातरक्तशामक होती है।
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
अजीर्ण-प्रतिदिन प्रात सायं 10 मिली मूल स्वरस को पीने से अजीर्ण में लाभ होता है।
मूत्रदाह-फल तथा पुष्पों में शर्करा मिलाकर शर्बत बनाकर पीने से मूत्रदाह में लाभ होता है।
शुक्रमेह-दो माह तक प्रतिदिन दिन में दो बार पौधे के जलीय सत्व में शर्करा मिलाकर सेवन करने से शुक्रमेह, प्रवाहिका में लाभ होता है।
पूयमेह-मूल त्वक् का काढ़ा बनाकर पीने से पूयमेह, मूत्रकृच्छ्र तथा श्वेत प्रदर में लाभ होता है।
अतिसार-पत्र स्वरस का प्रयोग गर्भावस्था जन्य अतिसार की चिकित्सा में किया जाता है।
व्रण-पत्र को पीसकर लगाने से क्षत एवं व्रण का शोधन तथा रोपण होता है।
युवान पीडिका-पत्र स्वरस को त्वचा में लगाने से युवान-पिडकाओं का शमन होता है।
आतपघात-मूल का हिम बनाकर पीने से आतपघात जन्य विकारों में लाभ होता है।