✍️टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है। वह सभी वस्तुओं को—चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हों या कि सोना—एकसमान देखता और समझताञहै।
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगच्चलितमानसः |
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां कृष्ण गच्छति || ३७ ||
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अयतिः – असफल योगी; श्रद्धया – श्रद्धा से; उपेतः – लगा हुआ, संलग्न; योगात् – योग से; चलित – विचलित; मानसः – मन वाला; अप्राप्य – प्राप्त न करके; योग-संसिद्धिम् – योग की सर्वोच्च सिद्धि को; काम् – किस; गतिम् – लक्ष्य को; कृष्ण – हे कृष्ण; गच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के करण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता ?
तात्पर्य
भगवद्गीता में आत्म-साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है | आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्र्वत जीवन, आनन्द तथा ज्ञान में निहित है | ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं | आत्म-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है | इसके लिए अष्टांग विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है | इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान् से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सके | इन तीनों विधियों में से किसी का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है | भगवान् ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है | इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है, अतः अर्जुन पुनः आश्र्वस्त होने की दृष्टि से भगवान् कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है | भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे, किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है, अतः निरन्तर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है | पहला कारण यो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये | दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसा है | फलतः जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है | बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणोंद्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुनः मोहित होने की सम्भावना बनी रहती है | यही योगाच्चलितमानस अर्थात् दिव्य पथ से विचलन कहलाता है | अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करता है
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय: ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्मकाञ्चन: ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
ज्ञान—अर्जित ज्ञान; विज्ञान—अनुभूत ज्ञान से; तृप्त—सन्तुष्ट; आत्मा—जीव; कूट स्थ:—आध्यात्मिक रूप से स्थित; विजित-इन्द्रिय:—इन्द्रियों को वश में करके; युक्त:—आत्म-साक्षात्कार के लिए सक्षम; इति—इस प्रकार; उच्यते—कहा जाता है; योगी—योग का साधक; सम—समदर्शी; लोष्ट्र—कंकड़; अश्म—पत्थर; काञ्चन:— स्वर्ण ।.
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है। वह सभी वस्तुओं को—चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हों या कि सोना—एकसमान देखता है।
परम सत्य की अनुभूति के बिना कोरा ज्ञान व्यर्थ होता है। भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.२३४) कहा गया है—
अत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियै:।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यद: ॥
“कोई भी व्यक्ति अपनी दूषित इन्द्रियों के द्वारा श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा उनकी लीलाओं की दिव्य प्रकृति को नहीं समझ सकता। भगवान् की दिव्य सेवा से पूरित होने पर ही कोई उनके दिव्य नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ सकता है।”
यह भगवद्गीता कृष्णभावनामृत का विज्ञान है। मात्र संसारी विद्वत्ता से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो सकता। उसे विशुद्ध चेतना वाले व्यक्ति का सान्निध्य प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना चाहिए। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को भगवत्कृपा से ज्ञान की अनुभूति होती है, क्योंकि वह विशुद्ध भक्ति से तुष्ट रहता है। अनुभूत ज्ञान से वह पूर्ण बनता है। आध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य अपने संकल्पों में दृढ़ रह सकता है, किन्तु मात्र शैक्षिक ज्ञान से वह बाह्य विरोधाभासों द्वारा मोहित और भ्रमित होता रहता है। केवल अनुभवी आत्मा ही आत्मसंयमी होता है, क्योंकि वह कृष्ण की शरण में जा चुका होता है। वह दिव्य होता है क्योंकि उसे संसारी विद्वत्ता से कुछ लेना-देना नहीं रहता। उसके लिए संसारी विद्वत्ता तथा मनोधर्म, जो अन्यों के लिए स्वर्ण के समान उत्तम होते हैं, कंकड़ों या पत्थरों से अधिक नहीं होते।