भाग:60) गीता में भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि
सभी प्राणियों की आत्मा मुझ से ही निकली है
टेकचंद्र सनोडिया सह-संपादक की रिपोर्ट
श्रीमद्-भगवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते है कि सभी जीवों की आत्मा मुझ से ही निकली है अर्थात वो मैं ही हूँ और उसी को जानना सम्पूर्ण है। सन्यासी वो है जो ज्ञान को समझता है, जीता है, श्वास भी लेता है, खाता भी है, और जीवन यापन की सभी क्रियाएं भी करता है जो जीने के लिए आवयश्क होती है।
किंतु वह जानता है कि ये जितनी भी क्रियाएं हो रही है वह करने वाला परमात्मा है। इसी के विपरीत हमारे जैसा अपने अंहकार में सोचता है कि यह सब करने वाले हम हैं। उदाहरण से समझते हैं, आप 100 करोड़ के मालिक हैं और आपके पास विलासता (Luxury) की हर वस्तु है और मान लीजिये आप जब भी भोजन लेकर उसे खाने के लिए बैठें उसी वक्त आपके पेट में दर्द होना शुरू हो जाए और ये निरंतर होते रहे। तो क्या आपके 100 करोड़ की ताकत आपको उस समय भोजन करने की शक्ति दे पाएगी। यहाँ तक की आपके सुख की ऐसी तैसी हो जायेगी।
तो यह बहुत स्पष्ट है कि चाहें राजा हो या साधु, बिना परमेश्वर की इच्छा के कुछ नहीं कर सकता जैसा की हमने सुना है की प्रभु की इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता है। फर्क ये है कि सन्यासी सब समझता है और हमारे जैसा अंहकारी फिर भी नहीं झुकता।
भगवान के अनुसार कर्मयोगी अंदर से शांत होता है क्योंकि वो भगवान को जान चुका होता है। ऐसे योगी के पास नौकर, नौकरी, सभी प्रकार की सम्पदा होती है, लेकिन वह भगवान को पाने के लिए सभी चीज़ों का त्याग कर देता है। इसका सबसे उत्तम उदाहरण है हमारे नरसी मेहता जी– यह भगवान के महाभक्त थे। एक समय था इनके पास 1 समय का खाना खाने के भी पैसे नहीं हुआ करते थे. श्री कृष्णा जी ने उनको इतनी दौलत दी कि उनकी 10 पुश्ते बैठ खाएं तो भी वो खत्म न हो। लेकिन हमारे नरसी मेहता जी ने वो सारी दौलत को समाजिक कार्यों में अर्पण कर दिया। उसका भोग अपने सुख के लिए नहीं किया। लेकिन इसके विपरीत हमारे जैसा व्यक्ति होता तो वह दुनिया दारी में अपने यश की चर्चा करता और लोभ लालच में दिखावा करता और गलत काम करता।
यही भेद है एक कर्मयोगी और हमारे जैसे व्यक्ति में।
कुछ लोग तर्क देते है कि हम कैसे दुनिया दारी से बचें, जिम्मेदारी से बचे। क्योंकि जिस दुनियाँ में हम रहते हैं उस दुनिया में कर्मयोगी और सन्यासयोगी बनना बहुत मुश्किल है। और ऐसे कहते हमने अपने घर में ही सुना होगा। अब भगवान इन तर्क देने वालो का खंडन करते हुए बताते हैं कि मनुष्य को कमल के फूल के जैसे होना चाहिए। कीचड़ में खिलते हुए भी स्वच्छ और पवित्र रहता है उसी प्रकार संसार रूपी कीचड़ में हमे भी दुनियाँ दारी के कर्म कर्तव्य को निष्काम भाव से पूरा करना चाहिए।
“स्वभाव”
इंसान अपने स्वाभव और प्रकृति के अनुसार काम करता है। तो हमें अपना स्वभाव जानना चाहिए, अगर वो बुरा हो तो उस पर नियंत्रण कर हमें भगवान के ज्ञान अनुसार कर्म करना चाहिए। क्योंकि श्री कृष्ण के अनुसार जीत उसी की होती है जो अपने स्वाभव पर काबू कर लेता है। तो इसलिए परमात्मा की सचाई को जानियें। जैसे, प्रकाश के होने पर अंधेरा भाग जाता जाता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान की ज्योति से स्वभाव का परिवर्तन भी होता है। भगवान के इस करोड़ो साल पहले के ज्ञान को आज भी हर कोई नहीं समझ पाता। जिसके कारण आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती अर्थात ऐसी दुष्ट आत्मा चांडाल रूप में जन्म पाती रहती है और यही भटकती रहती है जैसे की हम आज भी इस संसार में जन्मे है और ज़िन्दगी में भागे जा रहे है यह बिना सोचे की सब हासिल करके भी अंत मिटटी में मिल कर ही होगा।
सम भाव ही ब्रह्म स्थिति है
श्री कॄष्ण के अनुसार हमें यानी मनुष्य को सभी जीवो को एक समान भाव से देखना चाहिए। उदहारण के लिए हमारी गौ माता सड़को पर घूमें और हम अन्य पशुओं को पालतू बना कर घर में रखें। इससे बड़ा हमारा क्या दुर्भाग्य होगा जिस गौमाता को श्री कृष्ण इतना स्नेह करते थे उनकी गौमाता आज दर दर भटक रही है कूड़ा खा रही है। कहने का तात्पर्य्य है की पशु से प्रेम है तो सभी से एक सामान करो और कुछ महानुभाव् तो पशु छोड़ो अपने माता पिता को ही सड़को पर मरने छोड़ देते है। वो नहीं जानते “कर्मा की डायरी” उनके अब्बा यमराज जी देख रहे है।
ज्ञान की प्राप्ति कैसे करें?
ज्ञान की प्राप्ति बहुत ही सरल है। भगवान के अनुसार अति को रोंके, मन को काबू करें, अपने काम-क्रोध पर काबू करके संयम से निष्काम कर्म करें। असली ज्ञान यही है।
धन्य-धान्य व अपनो का प्यार अलग ही आनंद देता है। जिसके लिए हम जीवन भर दौड़ते रहते है लेकिन इसी के विपरीत कुछ ओर ही है जो परमानन्द देता है। वो है गीता का ज्ञान।
इसलिए दुनियाँ दारी को छोड़ भगवान बताते हैं ध्यान के माध्यम से ज्ञान को समझे, दोनो आंखों को माथे और नाक के बीच केंद्रित करके ध्यान करना चाहिए। यदि हम नियमानुसार प्रतिदिन ध्यान करें तो हम अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं। ऐसा व्यक्ति त्याग कर भगवान के कहे मार्ग पर चलने योग्य बन जाता है और श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझे ऐसे ही लोगो के होने का एहसास होता है क्योंकि वह भक्तिमार्ग पर चलने के योग्य होते हैं। इस प्रकार “वह मुझे और मैं उन्हें प्राप्त करता” हूँ। बाकि “हमारे जैसे लालची,लोभी” तो इस दुनिया आते है और जाते है।
तो दोस्तों श्री कृष्ण के ज्ञान की ज्योति से अपने पापों को नष्ट करिए और जीवन का परमानंद पाईये। इस भाग में भगवान ने अर्जुन को यही समझाया है की अंतिम नाम “राम” का है वही सत्य है। अगर समझ गए तो आपका ही फायदा है, हांजी यह फायदा सोचने में कोई पाप नहीं। अगर इस व्आयख्या को लिखने में कोई गलती हुई हो तो मै आप सभी और अपने भगवान का क्षमा प्रार्थी हूं
ज्ञानी पुरुष दिव्य ज्ञान की अग्नि से शुद्ध होकर बाह्यत: सारे कर्म करता है, किन्तु अन्तर में उन कर्मों के फल का परित्याग करता हुआ शान्ति, विरक्ति, सहिष्णुता, आध्यात्मिक दृष्टि तथा आनन्द की प्राप्ति करता है।
श्लोक 1: अर्जुन ने कहा—हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?
श्लोक 2: श्रीभगवान् ने उत्तर दिया—मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।
श्लोक 3: जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।
श्लोक 4: अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं। जो वस्तुत: ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है।
श्लोक 5: जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
श्लोक 6: भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
श्लोक 7: जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता।
श्लोक 8-9: दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता। बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखें खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त हैं और वह इन सबसे पृथक् है।
श्लोक 10: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।
श्लोक 11: योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
श्लोक 12: निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है।
श्लोक 13: जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है।
श्लोक 14: शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।
श्लोक 15: परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।
श्लोक 16: किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं।
श्लोक 17: जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है।
श्लोक 18: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
श्लोक 19: जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है। वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं।
श्लोक 20: जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।
श्लोक 21: ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।
श्लोक 22: बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अत: चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता।
श्लोक 23: यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है।
श्लोक 24: जो अन्त:करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त:करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
श्लोक 25: जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
श्लोक 26: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।
श्लोक 27-28: समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।
श्लोक 29: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है