भाग: 155)नैसर्गिक नियमों के अनुरूप आत्म साक्षात्कार और आत्मज्ञान त्यागी और तपस्वी महिला-पुरुष प्राप्त करते है
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक रिपोर्ट
अष्टावक्र गीता की शिक्षाएं सुनते-सुनते ही महाराजा जनक को आत्मज्ञान हो गया था । दोस्तों,क्या ऐसा संभव है कि किसी को सुनते-सुनते ही आत्मज्ञान हो जाए ? जी हां, यह संभव है | आत्मज्ञान बहुत ही सरल है | घोड़े पर चढ़ने के लिए उसके पागड़े में एक पांव रखे व दूसरे पागड़े में पैर रखने में जितना समय लगता है,उससे भी कम समय में आत्म ज्ञान प्राप्त हो सकता है | शास्त्रों में लिखे गए उक्त कथन की सत्यता को सिद्ध किया है-ऋषि अष्टावक्र द्वारा | राजा जनक को “अष्टावक्र” द्वारा इतने कम समय में आत्म बोध कराया गया | राजा जनक को अष्टावक्र को सुनते-सुनते ही आत्म ज्ञान प्राप्त हो गया | क्योंकि आत्मज्ञान कोई प्रक्रिया नहीं है जिसे स्टेप बाय स्टेप प्राप्त किया जाता है बल्कि आत्मज्ञान एक घटना है जो पात्रता होने पर किसी भी समय एवं कहीं भी घट सकती है,चाहे आप घोड़े पर ही क्यों ना चढ़ रहे हो,जैसा कि राजा जनक को हुआ था |
राजा जनक में वह पात्रता मौजूद थी,इसलिए अष्टावक्र तुरंत ही काम कर गए | राजा जनक को ज्ञान शिरोमणि अष्टावक्र द्वारा घोड़े के पागड़े में दूसरा पैर रखते समय दिया गया यही ज्ञान “अष्टावक्र गीता ” के रूप में जगत प्रसिद्ध है |
“अष्टावक्र गीता “या “अष्टावक्र संहिता” भारतीय अध्यात्म का अतुलनीय ग्रंथ माना जाता है | ऐसा ग्रंथ जिसे पढ़ते-पढ़ते, सुनते-सुनते भी आत्मज्ञान हो सकता है | जैसा कि “स्वामी विवेकानंद “ने स्वयं लिखा है कि- “उनके कक्ष में ( स्वामी रामकृष्ण परमहंस के ) एक और किताब भी थी-“अष्टावक्र संहिता” | अगर कोई वह पुस्तक निकालता और ठाकुर (रामकृष्ण परमहंस ) देख लेते थे तो वे उसे वह किताब पढ़ने को मना कर देते थे और “मुक्ति और उसका साधन”, “श्रीमद्भगवद्गीता ” या कोई और ग्रंथ उसे पढ़ने को कहते थे | लेकिन मुझे वे जोर देकर “अष्टावक्र गीता ” पढ़ने को कहते थे | मेरे द्वारा मना करने पर भी आग्रह करते थे कि तुम मत पढ़ो,मुझे पढ़कर तो सुना दो | उनके आग्रह पर मुझे थोड़ा-बहुत उन्हें पढ़कर सुनाना पड़ता था | ” कहा जाता है कि इस पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते ही वे ध्यानस्थ हो गए और उनके जीवन में क्रांति घट गई |
जिस प्रकार श्रीमदभगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को संबोधित करते हुए जनसामान्य को धर्म एवं कर्म की शिक्षा प्रदान की गई है ,उसी प्रकार “अष्टावक्र गीता “में ऋषि अष्टावक्र द्वारा राजा जनक के माध्यम से मानवता को आत्मज्ञान का उपदेश दिया गया है |
आत्मज्ञान हेतु “अष्टावक्र गीता “में किसी भी क्रिया,पूजा,प्रार्थना,ध्यान,कर्म,भक्ति,भजन-कीर्तन,योग,हठयोग कुछ भी आवश्यक नहीं माना गया है |अष्टावक्र का मानना है कि क्रियाएँ केवल अहंकार को पोषित करती है,यह केवल दिखावा या आडंबर मात्र होती है | अंधकार को हटाने के लिए की जाने वाली सभी क्रियाएं केवल मूर्खता है,आपको इसे हटाने के लिए दीपक मात्र जलाना है,ज्ञान का प्रकाश लाना है,अंधकार गायब हो जाएगा | ज्ञान प्राप्ति का मार्ग केवल बोध है |
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श्री अष्टावक्र की मान्यता है कि आत्मा कहीं खोई नहीं है जिसे आप को ढूंढना है या प्राप्त करना है,वह प्राप्त ही है | यह केवल विस्मृत हो गई है,उसे पुनः स्मरण में लाना है,इसके लिए कुछ करना नहीं है,केवल अपने को खाली मात्र कर देना ही भरने की विधि है | गौतम बुद्ध ने 6 वर्ष तक ख़ूब तप किया,कुछ नहीं मिला |अंत में निरंजना नदी के किनारे लेट गए व जैसे ही खाली हुए,शून्य की स्थिति में पहुंचे तो उसी क्षण उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया |
अष्टावक्र कौन थे-
अष्टावक्र, प्रसिद्ध उद्दालक ऋषि के शिष्य एवं दामाद वेदपाठी एवं प्रकांड पंडित “कहोड़” के पुत्र थे | उनकी माता का नाम “सुजाता”था | इनका शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा ( वक्र ) होने के कारण इनका नाम “अष्टावक्र “पड़ा | इनके बारे में यह कथा प्रचलित है कि अष्टावक्र,गर्भ में पिता के वेद पाठ को सुना करते थे,एक दिन उनसे रहा नहीं गया और इन्होंने गर्भ में से ही पिता को टोक दिया कि-रुको,यह सब बकवास है,शास्त्रों में ज्ञान नहीं है,ज्ञान तो स्वयं के भीतर है | सत्य,शास्त्रों में नहीं स्वयं में है | शास्त्र,शब्दों का संग्रह मात्र है | अष्टावक्र की बातों से प्रकांड पंडित पिता के अहंकार को चोट लगी और उनके द्वारा क्रोध में आकर पुत्र को श्राप दे दिया कि जब तू पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा होगा | इस प्रकार स्वयं के पिता द्वारा शापित “अष्टावक्र” पैदा हुआ |
अष्टावक्र राजा जनक के समकालीन थे | अष्टावक्र के सम्बन्ध में दो प्रमुख कथाएँ प्रचलित है | माना जाता है कि जब अष्टावक्र 12 वर्ष के थे तब राजा जनक ने देश के सभी बड़े-बड़े विद्वानों को बुलाकर तत्वज्ञान पर शास्त्रार्थ का आयोजन किया,जिसमें उनके पिता पंडित कहोड़ भी शामिल हुए |
घोषणा यह थी कि शास्त्रार्थ विजेता को सींगो के ऊपर सोना लेप की हुई सौ गायें दी जावेगी | अष्टावक्र को जब खबर लगी कि उनके पिता बाकी सभी से तो जीत गए हैं,पर एक पंडित से हार रहे हैं,तो उनसे रहा नहीं गया और वे सभा में पहुंच गए | टेढ़े-मेढ़े अंगों युक्त इस कुरूप से बालक को देखकर सारी सभा हंसने लगी | थोड़ी देर रुकने के बाद अष्टावक्र भी उन सभासदों को देखकर जोर-जोर से हंसने लगे | इस पर राजा जनक ने उनसे पूछा कि यह विद्वान क्यों हंसे,यह तो मैं समझ गया किंतु तुम क्यों हंसे,यह मैं नहीं समझ पाया | अष्टावक्र ने कहा कि मैं इसलिए हँसा कि कितनी अजीब बात है कि ये सभी चर्म ( शरीर ) के व्यापारी यहां इस सभा में सत्य का निर्णय कर रहे हैं | जिन्हें मेरा आड़ा-टेढ़ा शरीर ही दिखाई दिया,मै ( आत्मा ) नहीं | ऐसे में ये सभी चर्म के व्यवसायी ही कहलाएंगे,ज्ञानी नहीं |
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अष्टावक्र आगे बोले- हे राजन, मंदिर के टेढ़ा होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता है और मंदिर के गोल अथवा लंबा होने से आकाश गोल अथवा लंबा नहीं होता है,क्योंकि आकाश का मंदिर के साथ कोई संबंध नहीं है |आकाश निरवयव है तथा मंदिर सावयव है | वैसे ही आत्मा का भी शरीर के साथ कोई संबंध नहीं है क्योंकि आत्मा निरवयव है,शरीर सावयव है,आत्मा नित्य है और शरीर अनित्य | हे राजन, ज्ञानवान को आत्मदृष्टि होने के कारण वह आत्मा को देखता है और अज्ञानी की चर्म दृष्टि होने से वह शरीर को ही देख पाता है |
अष्टावक्र के इन वचनों को सुनकर राजा जनक उनके चरणों में गिर पड़े | साष्टांग दंडवत किया और उन्हें ज्ञान का उपदेश देने हेतु अपने महलों में आमंत्रित किया,सिंहासन पर बैठा कर, शिष्य भाव से नीचे बैठ बालक अष्टावक्र से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान कराया | यही शंका-समाधान अर्थात जनक-अष्टावक्र संवाद “अष्टावक्र गीता ” के रूप में प्रसिद्द है | अष्टावक्र के सम्बन्ध में दूसरी कथा यह प्रचलित है कि राजा जनक ने आत्मज्ञान सम्बन्धी कई शास्त्रों का अध्धयन किया, उनमे से किसी में यह लिखा था कि आत्मज्ञान बहुत ही सरल है | घोड़े पर चढ़ने के लिए उसके एक पागड़े में पैर रखे व दूसरे पागड़े में पांव रखने में जितना समय लगता है ,उससे भी कम समय में आत्मज्ञान संभव है | जनक द्वारा शास्त्रों में लिखे उक्त कथन की सत्यता साबित करने की चुनौती दिए जाने पर जब कोई भी आगे नहीं आया तो अष्टावक्र ने यह चुनौती स्वीकार की | अष्टावक्र,राजा जनक को लेकर शहर से दूर एकांत स्थान में गए | घोडा रोककर जनक से अपना एक पांव घोड़े के एक पागड़े में रखने को कहा | जब जनक ने पांव रख दिया तब जनक से पूछा कि बताओ शास्त्रों में क्या पढ़ा है, जनक ने वही बात दोहराई ,अष्टावक्र ने कहा-यह तो सत्य है,उसके आगे क्या पढ़ा ? जनक ने कहा -इसके लिए पात्रता होनी चाहिए | अष्टावक्र बोले -क्या यह शर्त तुमने पूरी की है,जब पूरी नहीं की तो आत्मज्ञान कैसे संभव है ?
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राजा जनक चौंक गए ,वे ज्ञानी एवं जिज्ञासु थे,उसी क्षण उन्होंने अष्टावक्र के सामने समर्पण कर दिया | समर्पण भाव आते ही अहंकार विलीन हो गया,जनक पिघल गए ,वाष्प बन गए,शून्य हो गए,पात्र रिक्त हो गया | अष्टावक्र ने सारा ज्ञान एक ही झटके में उंडेल दिया | जनक को दूसरे पागड़े में पांव रखने से पूर्व आत्मबोध हो गया, समाधिस्थ हो गए,पागड़े में पांव रखने की सुधि न रही | |
यह श्रीमद्भगवद्गीता से किस प्रकार अलग है-
कृष्ण गीता में कुल 18 खण्ड है जिन्हें अध्याय कहा गया है, अष्टावक्र गीता में 20 प्रकरण है जिन्हें सूत्रों में पिरोया गया है l कृष्ण की गीता में ज्ञान,भक्ति,कर्म सबका समन्वय है,परमात्मा प्राप्ति के अनेकों मार्ग बताए हैं,किंतु सर्वाधिक जोर कर्म पर है |जबकि अष्टावक्र गीता में सारा बल ज्ञान पर है,सत्य की प्राप्ति पर है | अष्टावक्र ऋषि होने के कारण केवल सत्य (ज्ञान )के उपासक हैं | जैसा कि ओशो कहते है- “अष्टावक्र,समन्वयवादी नहीं है,सत्यवादी है | सत्य जैसा है ,वैसा कहा है,बिना किसी लाग लपेट के | सुनने वाले की चिंता नहीं ,सुनने वाला समझेगा या नहीं ,भाग तो नहीं जायेगा,नाराज तो नहीं हो जायेगा,कोई परवाह नहीं |”
अष्टावक्र,किसी को युद्ध के लिए प्रेरित नहीं कर रहे हैं,वे केवल ज्ञान की जिज्ञासा को शांत कर रहे हैं इसलिए वे सत्य का विशुद्धतम रूप ही वर्णित करते हैं | जबकि श्रीकृष्ण के साथ ऐसा नहीं है,उनका उद्देश्य एक राजनीतिज्ञ की भूमिका में साम-दाम-दंड-भेद सभी का प्रयोग करते हुए अर्जुन को युद्ध के लिए खड़ा करना था | इसलिए सत्य ( ज्ञान ) की परवाह ना कर कर्मयोग पर ही बल देते हैं | कृष्ण की गीता का उपदेश सांसारिक व्यक्तियों के लिए है,जीवन का युद्ध जीतने में कृष्ण की गीता महत्वपूर्ण है | यदि विशुद्ध एवं तत्काल ज्ञान प्राप्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना है तो ऐसे मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए “अष्टावक्र गीता” है |
क्या नियति(Destiny) एवं स्वतंत्र इच्छा(free will) दोनों विपरीत शक्तियां है-
अष्टावक्र गीता का सार-
“अष्टावक्र गीता” का आरंभ राजा जनक द्वारा पूछे गए तीन प्रश्नों से होता है कि- ज्ञान कैसे होता है ?, मुक्ति कैसे होती है ?,तथा वैराग्य कैसे होता है ? संपूर्ण अध्यात्म का सार इन तीन प्रश्नों में समाहित है | जनक के इन तीन प्रश्नों का समाधान अष्टावक्र ने तीन वाक्य में कर दिया एवं इन्हें सुनते-सुनते ही जनक को आत्मानुभूति प्राप्त हो गई | जब अष्टावक्र जैसे गुरु एवं जनक जैसे पात्र शिष्य का मिलन होता है तो पल में ही क्रांति हो जाती है |आत्मा को देखने की क्षमता आना ही पात्रता है | इसमें पूर्व के कई जन्मों का योगदान होता है | राजा जनक में बोध था,वह विद्वान थे,उनमें समझ थी ,इसलिए अष्टावक्र ने उन्हें कोई विधियाँ नहीं बताई,न यम-नियम साधने को कहा,न कोई आसन,मुद्रा,योग,प्राणायाम,ध्यान करने को कहा,सीधे उनके बोध को स्पर्श किया व जनक जागृत हो गए
अष्टावक्र का सारा बल ज्ञान पर है | मनुष्य,शरीर मन बुद्धि एवं अहंकार में ही जीता है,जिससे उसे सुख-दुख का अनुभव होता है | जबकि मनुष्य इनमे से कोई नहीं है,वह विशुद्ध चैतन्य है | शरीर में स्थित यह चैतन्य आत्मा एवं विश्व की समस्त आत्माओं में एकत्त्वभाव ही ब्रह्म है,दोनों अभिन्न है | यह चैतन्य,न कर्ता है,न भोक्ता है | यह सबका साक्षी,निर्विकार निरंजन,क्रिया रहित एवं स्वयं प्रकाशित है | यह समस्त संसार में व्याप्त है एवं समस्त संसार इसमें व्याप्त है |संसार उसी चेतन की अभिव्यक्ति मात्र है,इस चैतन्य का ज्ञान हो जाना ही मुक्ति है |
अष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष कोई वस्तु नहीं है,जिसे प्राप्त किया जाए, न कोई स्थान है,जहां पहुंचा जाए,न कोई भोग है जिसे भोगा जा सके,न रस है,न इसकी कोई साधना है,न इसकी कोई सिद्धि है,न यह स्वर्ग में है,न सिद्धशिला पर | विषयों में विरसता ही मोक्ष है | विषयों में रस है तो संसार है,जब मन विषयों से विरस हो जाता है,तब मुक्ति है | विषयों में अनासक्त हो जाना ही मुक्ति है,यही वैराग्य,ज्ञान,मुक्ति अर्थात संपूर्ण मोक्ष विज्ञान का सार है |
इसलिए अष्टावक्र कहते है -” इन सांसारिक विषयों के प्रति जो तुम्हारी आसक्ति है,उसे विष के समान मानकर छोड़ दे तथा स्वयं को वही शुद्ध चैतन्य आत्मा मानकर उसमे निष्ठापूर्वक स्थित हो जा |”
अष्टावक्र की यह विधि प्रखर एवं तीव्र-प्रतिभा संपन्न व्यक्ति के लिए ही उपयोगी है | सामान्य व्यक्तियों को किसी न किसी क्रिया से गुजरना होगा | भिन्न-भिन्न स्तर के व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न मार्ग है | “अष्टावक्र महागीता”,आत्मज्ञान के इच्छुक व्यक्तियों के लिए निश्चित ही एक ऐसी नौका है जिसमें बैठकर इस संसार रूपी भवसागर को पार कर मुक्ति-लाभ लिया जा सकता है,जो कि जीव की उच्चतम स्थिति मानी जाती है