(भाग:194) मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जीवनी आदर्शवान निर्व्यसनी शाकाहारी-फलाहारी निष्कलंक और निष्पाप रही है ?

(भाग:194) मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जीवनी आदर्शवान निर्व्यसनी शाकाहारी-फलाहारी निष्कलंक और निष्पाप रही है ?

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

अपने आपको श्रीराम भक्त होने का ढकोसला पीटने वाले वर्त्तमान परिवेश के राजनेताओं और मंत्रियों और उनके कार्यकर्त्ताओं की जीवनी- कार्यप्रणाली,चारित्र्य और आचरण मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की कसौटी में खरे उतरते नहीं?। कृपया अपना आत्मा और मन से पूछियेगा? और अवलोकन कीजिएगा?

दरअसल मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम भगवान विष्णु के सातवें अवतार हैं, जिन्होंने त्रेता युग में अत्याचारी दुराचारी,व्यसनी मासाहारी और महान व्यभिचारी राजनेताओ पं दशानन रावण महाराज का संहार करने के लिए धरती पर अवतार लिया। उन्होंने माता कैकेयी की 14 वर्ष वनवास की इच्छा को सहर्ष स्वीकार करते हुए पिता के दिए वचन को निभाया। उन्होंने ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाय’ का पालन किया। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्होंने कभी भी कहीं भी जीवन में मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। माता-पिता और गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए वह ‘क्योंकर कैसे शब्द कभी मुख पर नहीं लाए

उन्होंने मानव मात्र के लिए मर्यादा पालन का जो आदर्श प्रस्तुत किया वह संसार के इतिहास में कहीं और नहीं मिल सकता।
उन्होंने अपना पहला आदर्श आज्ञाकारी पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उनके पिता राजा दशरथ अपनी रानी कैकेर्यी से वचनबद्ध थे। रानी कैकेयी ने ठीक उस समय जब राम का राज्याभिषेक होने वाला था, राम को वनवास और अपने पुत्र भरत के लिए राजतिलक की मांग कर दी।
दशरथ नहीं चाहते थे परंतु अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए राम ने एक पल में राजपाट को त्याग दिया और वनवासी बनकर वनों को चले गए। पूरे चौदह वर्ष उन्होंने वन में बिताए। ऐसा आदर्श कौन प्रस्तुत कर सकता है। संसार में जितने भी युद्ध और लड़ाइयां अब तक हुई हैं वे राज प्राप्ति के लिए हुई हैं परंतु भगवान राम ने जो आदर्श प्रस्तुत किया उसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्होंने जात पात लिंग भेद का त्याग करके गरीब आदिवासी और जन सामान्य जनता-जनार्दन और ब्राह्मण धर्म की सुरक्षा की है।

दूसरा आदर्श उन्होंने एक आदर्श भाई का प्रस्तुत किया। यद्यपि भरत की माता कैकेयी ने उन्हें राजपाट के बदले वनवास दिलाया था परंतु श्रीराम ने भरत से न ईर्ष्या की और न द्वेष। वह निरंतर भरत के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करते रहे और उसे राज-काज संभालने की प्रेरणा देते रहे। उन्होंने उसे कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के द्वारा स्थापित आदर्श भातृ-प्रेम के आदर्श को अपनाकर हम उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।

तीसरा आदर्श उन्होंने आदर्श पति का प्रस्तुत किया। वह चौदह वर्ष वनों में वनवासी होकर रहे और वनों में रहने वाले ऋषियों-मुनियों की सेवा का व्रत लिया। जो राक्षस ऋषियों के यज्ञ में विघ्न डालते थे उन राक्षसों का संहार किया। इस काल में उन्होंने गृहस्थ की चिंता नहीं की अपितु अपनी संपूर्ण शक्ति को राक्षसों का संहार करने के लिए लगाया।

रावण ने जब उनकी धर्मपत्नी सीता जी अपहरण करने का दु:स्साहस किया तो भगवान श्रीराम ने इस दुष्कृत्य के लिए रावण कुल का सर्वनाश कर दिया।

कैसे लोगों की सफलता निश्चित है?
श्रीराम अवतार के २५०० वर्ष पूर्व पहले लिखी वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक है, जो अपने आप में एक सफलता का पक्का सूत्र है। आश्चर्य यह है कि आज की सभी संस्थाने देशी, विदेशी या फिरत बहु-राष्ट्रीय-कंपनियां या कोई सफल खिलाड़ी …लगभग सभी इसी सूत्र का पालन करते है।

आपको विश्वास नहीं होता है, तो इस श्लोक को पढ़ कर स्वयं ही निर्णय लीजिये और हमारे ऋषि मुनियो की दूरदृष्टि की सराहना कीजिये।

नम्र निवेदन है कि इस अत्यंत गंभीर श्लोक को शांति से पढ़ें.
यस्य त्वेतानी चत्वारि वानरेंद्र यथा तव।
धृति दृष्टिरमतिर्दाक्ष्यं सां कर्मसु न सीदति।।

ऋषि वाल्मीकि कहते है कि हे हनुमानजी, आपकी तरह जिसके पास भी धृति, दृष्टि, मति, और दक्ष्यं यह चार होंगे वो अपने कार्य के सफल होने तक कभी उसे नहीं छोड़ेगा। अर्थात निश्चय हि सफल होगा।

अब इसी श्लोक की validity आज की date में भी देख लेते हैं..

धृति का अभिप्राय है एक मजबूत नीव से। आपका लक्ष्य आप के आज से भिन्न नहीं हो सकता। जैसे आज मैं बैठा बैठा विश्व का सर्वश्रेष्ठ क्रिकेटर बनने का लक्ष्य नहीं ले सकता। अपने लक्ष्य के लिए आज हम जो कर रहे हैं उसे Mission कहते हैं।
दृष्टि का उल्लेख यहाँ पर आँखों के लिए नहीं अपितु मन की आँखों के लिए है जो उपयुक्त लक्ष्य साध सकती हैं। लक्ष्य निर्धारित करने और दिशा निर्दिष्ट करने वाली दृष्टि को Vision कहते हैं।
मति या बुद्धि का प्रयोग हम निर्णय लेने के लिए करते हैं। बुद्धि सदैव दूरदृष्टि से प्रकाशित होनी चाहिए. किस परिस्थिति मैं क्या निर्णय लेने है इसे हम Strategy कहते है।
दक्ष्यं का मतलब है निपुणता। सफलता इस पर भी निर्भर करती है कि आप जिस क्षेत्र में सफलता चाहतें हैं उसमें आप कितने निपुण हैं। अपने कार्य में निपुणता से जो हम गुणवत्ता लाते हैं

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