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RSS के ब्रम्हलीन सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर की जीवनी  

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RSS के ब्रम्हलीन सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर की जीवनी

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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नागपुर। RSS सर संघचालक ब्रम्हलीन श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर “श्री गुरूजी” का जन्म 19 फरवरी 1906 को प्रातः के साढ़े चार बजे नागपुर के ही श्री रायकर के घर में हुआ। उनका नाम माधव रखा गया। परन्तु परिवार के सारे लोग उन्हें मधु नाम से ही सम्बोधित करते थे। बचपन में उनका यही नाम प्रचलित था। ताई-भाऊजी की कुल 9 संतानें हुई थीं। उनमें से केवल मधु ही बचा रहा और अपने माता-पिता की आशा का केन्द्र बना।

 

डाक्टर जी के बाद श्री गुरुजी संघ के द्वितिय सरसंघचालक बने और उन्होंने यह दायित्व 1973 की 5 जून तक अर्थात लगभग 33 वर्षों तक संभाला। ये 33 वर्ष संघ और राष्ट्र के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण रहे। 1942 का भारत छोडो आंदोलन, 1947 में देश का विभाजन तथा खण्डित भारत को मिली राजनीतिक स्वाधीनता, विभाजन के पूर्व और विभाजन के बाद हुआ भीषण रक्तपात, हिन्दू विस्थापितों का विशाल संख्या में हिन्दुस्थान आगमन, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण.

 

1948 की 30 जनवरी को गांधीजी की हत्या, उसके बाद संघ-विरोधी विष-वमन, हिंसाचार की आंधी और संघ पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना, भारत के संविधान का निर्माण और भारत के प्रशासन का स्वरूप व नितियों का निर्धारण, भाषावार प्रांत रचना, 1962 में भारत पर चीन का आक्रमण, पंडित नेहरू का निधन, 1965 में भारत-पाक युद्ध, 1971 में भारत व पाकिस्तान के बिच दूसरा युद्ध और बंगलादेश का जन्म, हिंदुओं के अहिंदूकरण की गतिविधियाँ और राष्ट्रीय जीवन में वैचारिक मंथन आदि अनेकविध घटनाओं से व्याप्त यह कालखण्ड रहा। गुरूजी का अध्ययन व चिंतन इतना सर्वश्रेष्ठ था कि वे देश भर के युवाओं के लिए ही प्रेरक पुंज नहीं बने अपितु पूरे राष्ट्र के प्रेरक पुंज व दिशा निर्देशक हो गये थे |

 

वे युवाओं को ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरित करते रहते थे वे विदेशों में ज्ञान प्राप्त करने वाले युवाओं से कहा करते थे कि युवकों को विदेशों में वह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिसका स्वदेश में विकास नही हुआ है वह ज्ञान सम्पादन कर उन्हें शीघ्र स्वदेश लौट आना चाहिए | वे कहा करते थे कि युवा शक्ति अपनी क्षमता का एक एक क्षण दांव पर लगाती हैं | अतः मैं आग्रह करता हूं कि स्वयं प्रसिध्दि संपत्ति एवं अधिकार की अभिलाषा देश की वेदी पर न्योछावर कर दें |

 

वे युवाओं से अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा करते थे वे युवाओं को विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण न करने के लिए भी प्रेरित करते थे | श्री गुरूजी को प्रारम्भ से ही आध्यात्मिक स्वभाव होने के कारण सन्तों के श्री चरणों में बैठना, ध्यान लगाना, प्रभु स्मरण करना ,संस्कृत व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने में उनकी गहरी रूचि थी |

 

गुरूजी धर्मग्रन्थों एवं विराट हिन्दूु दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था जिसे उन्होंने राष्ट्र सेवा और संघ के दायित्व की वजह से सहर्ष अस्वीकार कर दिया यदि वो चाहते तो शंकराचार्य बन कर पूजे जा सकते थे किन्तु उन्होंने राष्ट्र और धर्म सेवा दोनों के लिए संघ का ही मार्ग उपयुक्त माना |

 

श्रीगुरुजी का प्रथम सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बनारस में हुआ। सन् 1928 में नागपुर से काशी विश्वविद्यालय अध्ययनार्थ गये, भैयाजी दाणी तथा नानाजी व्यास जैसे नवयुवकों ने वहां संघ की शाखा प्रारंभ की और सन् 1931 तक उस शाखा की जड़ें अच्छी तरह से जम गयीं। 16 अगस्त, सन् 1931 को जब गुरुजी ने बनारस विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया और शीघ्र ही छात्रों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये और छात्र उन्हें “गुरुजी” कहने लगे तो इसी लोकप्रियता तथा उनके अनेक गुणों के कारण भैयाजी दाणी ने संघ-कार्य तथा संगठन के लिए उनसे अधिकाधिक लाभ उठाने का प्रयास भी किया।

 

परिणामस्वरूप गुरुजी भी शाखा में आने लगे। संघ के स्वयंसेवक अध्ययन में गुरुजी की मदद लेते थे और संघ स्थान पर उनके भाषणों का आयोजन भी करते थे। संघ के विस्तार हेतु इसी बीच करीब 30 स्वयंसेवक शिक्षा प्राप्ति हेतु वाराणसी पहुँचे। इन सब लोगों का श्री गुरुजी से सम्पर्क था। पंचवटी नासिक के श्री स्वामी राघवानन्द जी का कहना था कि, “हम बहुत से लोग श्री गुरुजी के पहले से ही संघ के स्वयंसेवक थे, किन्तु उनके उस प्रथम भाषण से यह दिखाई दिया कि हम सबकी अपेक्षा श्री गुरुजी को ही संघ कार्य का अधिक आंकलन हुआ है। वह एक सुखद सा आघात था”। लेकिन इसी समय वह संघ अथवा डा.

 

अन्य कार्यों के माध्यम से संघ को विस्तार मिला ! गौहत्यावंदी हस्ताक्षर अभियान में ८८००० गाँवों के लोग सम्मिलित हुए तथा एक करोड पिचहत्तर लाख हस्ताक्षर राष्ट्रपति को सोंपे गए ! बहुत बड़ी रैली दिल्ली में हुई ! १९५६ में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को गुरूजी ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया ! उसके दुष्परिणाम आज सबके सामने हैं ! पंजाब में स्वयंसेवकों को अपनी भाषा पंजाबी लिखाने का आग्रह किया, जिसके कारण सामाजिक सद्भाव बढ़ा !

 

अस्प्रश्यता के खिलाफ गुरूजी ने सामाजिक समरसता की मुहिम चलाई ! साधू संतों को इस हेतु एक मंच पर लाये ! ६५ में संदीपनी आश्रम तथा उसके बाद ६६ के इलाहावाद कुम्भ में आयोजित धर्म संसद में सभी शंकराचार्यों एवं साधू संतों की उपस्थिति में घोषणा हुई – ना हिन्दू पतितो भवेत ! ऊंचनीच गलत है सभी हिन्दू एक हैं ! परावर्तन को भी मान्यता मिली ! गुरू जी ने सतत प्रवास व प्रयास कर १९६९ में उडुपी में जैन, बौद्ध, सिक्ख सहित समस्त धर्माचार्यों को एकत्रित किया | मंच से जब घोषणा हुई – “हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता” यादव राव जी के कथानानुसार कि यह वह अवसर था जब गुरू जी अत्यंत प्रसन्न देखे गए | गुरूजी ने उसे अपने जीवन का श्रेष्ठ क्षण बताया ! इस प्रकार हिन्दू समाज की कमियां दूर करने का प्रयत्न चलता रहा !

 

प्राध्यापक के रूप में श्रीगुरूजी :

 

नागपुर आकर भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। इसके साथ ही उनके परिवार की आर्थिक स्थिति भी अत्यन्त खराब हो गयी थी। इसी बीच बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्हें निदर्शक पद पर सेवा करने का प्रस्ताव मिला। 16 अगस्त सन् 1931 को श्री गुरूजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राणि-शास्त्र विभाग में निदर्शक का पद संभाल लिया। चूँकि यह अस्थायी नियुक्ति थी। इस कारण वे प्राय: चिन्तित भी रहा करते थे।

 

अपने विद्यार्थी जीवन में भी माधव राव अपने मित्रों के अध्ययन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे और अब तो अध्यापन उनकी आजीविका का साधन ही बन गया था। उनके अध्यापन का विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे।

 

इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। माधव राव यद्यपि विज्ञान के परास्नातक थे, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर अपने छात्रों तथा मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित तथा दर्शन जैसे अन्य विषय भी पढ़ाने को सदैव तत्पर रहते थे (भिशीकर, वही, पृष्ठ 17)। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीद कर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे।

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