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(भाग:268)जानिए मानवीय जीवन में अध्यात्म विज्ञान का आलौकिक महत्व क्या है

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भाग:268)जानिए मानवीय जीवन में अध्यात्म विज्ञान का आलौकिक महत्व क्या है

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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मनुष्य की मूल प्रकृति निर्दोष, सहज और आनंद से परिपूर्ण जीवन जीना है, जबकि आज मनुष्य का जीवन यंत्रों और उपकरणों पर निर्भर हो गया है। इसलिए मनुष्य को आवश्यकताओं के अनुकूल ग्रहण करना चाहिए और इससे आगे कोई लालसा नहीं रखनी चाहिए। यही सादगी का जीवन है। सादगी को अपनाए बिना सुख-शांति प्राप्त नहीं की जा सकती। जब तक और अधिक पाने की लालसा बनी रहेगी, तब तक मनुष्य अन्य जीवों का हितैषी नहीं बन सकता। लेकिन जैसे ही वह सादगी अपनाकर अपनी आवश्यकताओं को समेट लेता है, उसके लिए संरक्षक की मूल भूमिका निभाना संभव हो जाता है। इस प्रकार यह प्रयास ही आध्यात्मिक विकास है। अध्यात्म मानव जीवन में संतुलन लाता है।

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जीवन में वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों की उपयोगिता से भी इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसी से मानव की सोच आधुनिक हुई है। उसके जीवन में आर्थिक प्रगति हुई है और जीवन स्तर में सुधार हुआ है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि मानव सुख-सुविधाओं और भोग-विलास में पड़कर नैतिक पतन की ओर बढ़ने लगा है। आध्यात्मिक ज्ञान उसे इन सबसे रोक सकता है। दुविधा और संकट की दशा में यह उसे सही दिशा दिखा सकता है। जहां विज्ञान मानव के जीवन स्तर का उत्थान करता है, वहीं अध्यात्म उसकी आत्मा के उत्थान के लिए जरूरी है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि मानव जीवन में विज्ञान और अध्यात्म दोनों का ही महत्व है। जब उसके एक हाथ में विज्ञान और दूसरे में अध्यात्म होगा, तभी वह संतुलित जीवन व्यतीत कर सकेगा।

 

शुरु से ही मनुष्य अपनी इच्छाओं का दास रहा है। आदिकाल में उसकी इच्छाएं और आवश्यकताएं सीमित थीं। लेकिन सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएं बढ़ती गईं। इससे संसार में उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद और भौतिकवाद का जन्म हुआ। भौतिकवाद जीवन की ऐसी पद्धति है जो सुख-सुविधाओं, भोग-विलास और आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण होती है। यूरोपीय देशों में विज्ञान का अधिक विकास हुआ है। इन लोगों ने अपने जीवन को भौतिकवादी बना लिया। उनका जीवन उन्हीं सुख-सुविधाओं पर आधारित है। बहुत अधिक भौतिक साधनों के संचय की इस भूख के चलते मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी, नीति, न्याय और धर्म की सीमा लांघकर अनुचित और असत्य की राह पकड़ लेता है। तेज गति से चलता हुआ वह आत्मा-परमात्मा से इतनी दूरी बना लेता है कि उसकी आवाज भी सुनाई नहीं देती। ईर्ष्या, छल-कपट, असत्य और अनीति का मजबूत आवरण उसे मार्ग से भटका देता है।

 

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आध्यात्मिक ज्ञान मानव को पतन की ओर अग्रसर होने से रोकता है। भौतिकता के कारण इंसान के अंदर जो अंधकार उत्पन्न हुआ है, उसे अध्यात्म के प्रकाश से ही दूर किया जा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान ही उसे यह समझाने में सहायक हो सकता है कि इस जगत का असली सृष्टिकर्ता और सर्वेसर्वा ईश्वर ही है। मानव तो उसकी एक रचना मात्र है। यहां तक कि उसका जीवन भी नश्वर है और एक न एक दिन सब नष्ट हो जाएगा। फिर भी इनके पीछे इतनी आपाधापी क्यों? अध्यात्म स्वयं को सुधारने, जानने और संवारने का मार्ग है। यह स्वयं का अध्ययन है और भाव संवेदनाओं का जागरण है, आत्म तत्व का बोध है, धर्म का मर्म है और स्व का ध्यान है

अध्यात्म आज युग की आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक इसकी आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

अध्यात्म आज युग की आवश्यकता है

अध्यात्म आज युग की आवश्यकता है। लगभग सभी चिंतक, विचारक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक इसकी आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं, परंतु वर्तमान में अध्यात्म का जो स्वरूप है, क्या यह उस आवश्यकता की पूर्ति कर सकता है?

आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है। जो जितना अध्यात्म के गूढ़तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है। फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो। वस्तुत: अध्यात्म ऐसा है नहीं। इसे ऐसा कर दिया गया है। अध्यात्म एक वैज्ञानिक प्रयोग है, जो पदार्थ के स्थान पर जीवन के नियमों को जानना, समझना, प्रयोग करना और अंत में जीवन जीने का तरीका सिखाता है। अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है। यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है। आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की भाषा बोल रहे हैं। आज अध्यात्म के तत्वों की कार्यशालाओं में चर्चा की जाती है। यह कटु सत्य है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है।

 

आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है। चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है। अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए। अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए। आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए। संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं। अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे। आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिह्नें पर चलने का साहस करने वालों की कमी है। यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है। हमें इसी की खोज करनी चाहिए

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