(भाग:347)निसर्ग प्रकृतिक परमात्मा संसार की निशुल्क सेवा प्रदान कर रहा है
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
यह कटु सत्य है कि प्रकृतिक निसर्ग परमात्मा सकल संसार ही नहीं अपितु सकल ब्रह्मांड की निशुल्क सेवा प्रदान कर रहा है? जैसे निशुल्क प्राणवायू, चंद्र सीतलता-सूर्य ऊर्जा,आकाश गंगाजल और सकल विश्व ब्रह्मांड का संचालन संचलन और निर्देशन और परिपालन कर रहा है? परंतु क्षणिक अभिमानी और अंहंकारी मनुष्य थोडा सा विकास कार्यों पर इतना बडबड करता है? जैसे विकास कार्य अपने माता-पिता जी की तिजोरी और बैंक अकाउंट से खर्च करके कर रहा हो? झूठी और सस्ति लोकप्रियता के लिए कुकर्म करने को नहीं डरता? तो लोकप्रियता के अलावा अपने द्धारा किए गए अन्याय अत्याचार और भ्रष्टाचार का भी प्रचार और प्रचार करना चाहिए?
असल में सम्बन्ध वो हैं..जो शून्यता में साथ निभाते हैं। निस्वार्थ कर्म से लोगो के ह्रदय में बसना,जीवन की सबसे बड़ी पूंजी है। रिश्तों में लोभ- लालच और कपट को दूर रखना चाहिए?
*”संसार में दो प्रकार के लोग दिखाई देते हैं। एक सुलझे हुए, और दूसरे उलझे हुए।”*
*”जो लोग सुलझे हुए दिखाई देते हैं, वे कोई जन्म से सुलझे हुए नहीं होते। वे भी अपने अंदर वर्षों तक उलझते रहते हैं। समस्याओं से संघर्ष करते रहते हैं। प्रश्नों के समाधान ढूंढते रहते हैं।” “यदि उनमें पूर्वजन्मों के उत्तम संस्कार हों, तो वे पूर्वजन्म के उत्तम संस्कारों के कारण कुछ प्रश्नों का समाधान अपने अंदर से स्वयं निकाल लेते हैं। परंतु सारी समस्याओं का समाधान वे भी नहीं ढूंढ पाते।”*
कुछ समस्याओं का समाधान वे अपने माता-पिता और गुरुजनों से प्राप्त करते हैं। कुछ नई नई बातें उनके पुरुषार्थ के अनुसार ईश्वर की ओर से भी उनको अंदर से प्राप्त होती रहती हैं। *”यदि उनके पूर्वजन्मों के संस्कार अच्छे हों, उनमें ईमानदारी सच्चाई सत्यग्राहिता सभ्यता नम्रता और जिज्ञासा भाव हो, तो वे अपने माता-पिता तथा गुरुजनों से बहुत शीघ्र एवं बहुत सा लाभ प्राप्त कर लेते हैं। तथा वे इन्हीं गुणों के कारण ईश्वर से भी लाभ प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार से वे वर्षों तक अपने प्रश्नों को अंदर ही अंदर सुलझाते रहते हैं। तब जाकर वे संसार के लोगों को सुलझे हुए व्यक्ति दिखाई देते हैं।”*
*”परंतु जो लोग पूर्व जन्म के उत्तम संस्कारवान नहीं होते और वर्तमान में भी माता-पिता एवं गुरुजनों से तथा ईश्वर से कोई लाभ नहीं उठाते, जिनमें सत्यग्राहिता जिज्ञासा आदि गुण नहीं होते, हठी दुराग्रही लोभी क्रोधी इत्यादि खराब संस्कारों वाले होते हैं, वे स्वयं तो जीवन भर उलझे ही रहते हैं, साथ ही साथ दूसरों को भी उलझाते रहते हैं। ऐसे लोग स्वयं तो दुखी रहते ही हैं, साथ में दूसरों को भी दुख देते रहते हैं।”*
*”इसलिए यदि आपके भी पूर्व जन्मों के संस्कार अच्छे हों, आप में सेवा सभ्यता नम्रता जिज्ञासा सत्यग्राहिता आदि गुण हों, तो आप भी ऊपर बताई विधि से अपने प्रश्नों को सुलझाते रहें। कुछ लंबे समय के बाद आप स्वयं भी एक सुलझे हुए व्यक्ति कहलाएंगे। स्वयं सुखी रहेंगे और दूसरों को भी सुख देंगे। और तभी आपका जीवन सफल होगा।”*
जीवन में उन्नति सफलता और सुख प्राप्त करने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण भावना है। उस भावना का नाम है *”आशा।”*
*”जो लोग जीवन में उन्नति सफलता और सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें आशावादी होना चाहिए।” “आशा में बहुत शक्ति है। इस शक्ति से व्यक्ति के अंदर उत्साह श्रद्धा एवं पुरुषार्थ उत्पन्न होते हैं, जिनके सहयोग से व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है।”*
यहां संसार में तरह-तरह के लोग हैं। सबकी इच्छाएं बुद्धि विचार क्षमताएं अलग-अलग हैं। इसलिए दूसरों से आशाएं रखने से पहले आप इस बात का परीक्षण अवश्य करें, कि *”उनका आपके प्रति प्रेम मित्रता श्रद्धा आदि कितनी है?” “जो लोग इन सब बातों को ध्यान में रखकर दूसरों से उतनी ही आशा रखते हैं, जितनी कि वे पूरी कर दें, तब तो ठीक है। इतनी आशा तो रखनी चाहिए।”* क्योंकि आशा के बिना व्यक्ति में श्रद्धा एवं उत्साह उत्पन्न नहीं होता। *”जब श्रद्धा एवं उत्साह उत्पन्न नहीं होता, तो वह पूरा पुरुषार्थ भी नहीं करता। जब पूरा पुरुषार्थ नहीं करता, तो सफलता भी नहीं मिलती। इसलिए सफलता प्राप्त करने के लिए अपने मन में लक्ष्य प्राप्ति के प्रति पुरुषार्थ उत्साह श्रद्धा और आशा होनी चाहिए।”*
परंतु स्वयं से तथा दूसरों से उतनी मात्रा में ही आशा रखनी चाहिए, जितनी कि पूरी होना संभव हो, उससे अधिक नहीं। *”अति आशा किसी से भी नहीं रखनी चाहिए। जो लोग अति आशा रखते हैं, उनकी सब आशाएं पूरी नहीं हो पाती। धीरे-धीरे वे अवसाद (Depression) की स्थिति में चले जाते हैं। वे दुखी होते हैं, और उनका जीवन निष्फल या असफल हो जाता है।”*
*”इसलिए ऐसी बुरी परिस्थितियों से बचने के लिए उचित मात्रा में आशा रखें। यही आपके अंदर जीवन का संचार करेगी और आपको आपके लक्ष्य तक पहुंचाएगी।”*
*”यदि पानी की बाल्टी भरी हो, और उसे खाली करना हो, तो आपको उसे उठाकर झुकाना पड़ेगा। इसके बिना बाल्टी से पानी बाहर नहीं निकलेगा और बाल्टी खाली नहीं होगी।”*
इसी प्रकार से मनुष्य में अनेक दोष होते हैं। जैसे झूठ छल कपट चालाकी धोखाधड़ी मिथ्या अभिमान इत्यादि। ये दोष जब तक व्यक्ति में रहेंगे, तब तक ये दोष उसे भी दुख देंगे और दूसरों को भी। *”यदि किसी में ये दोष हों, इन दोषों के कारण वह स्वयं भी दुखी हो, तथा दूसरों को भी दुख दे रहा हो। और इस समस्या से यदि वह छूटना चाहता हो, तो इसका यही उपाय है, कि वह अपने दोषों को अपने अंदर ढूंढे। ढूंढ कर एक-एक करके उन्हें दूर करे।”* इस प्रकार से संकल्प करे, कि *”मैं अभिमान नहीं करूंगा। मैं झूठ नहीं बोलूंगा। छल कपट नहीं करूंगा। धोखाधड़ी चालाकी नहीं करूंगा। क्योंकि यदि मैंने ऐसा किया, तो ईश्वर मुझे हर समय हर दिशा से देख रहा है। वह न्यायकारी होने के कारण मुझे दंड दिए बिना छोड़ेगा नहीं। मैं दंड भोगना नहीं चाहता। इसलिए मैं अब इस प्रकार के दोष नहीं करूंगा।”*
ऐसे एक-एक करके सभी दोषों को दूर करते जाएं। इन सब में सबसे बड़ा दोष *”अभिमान”* है। *”जब तक किसी भी व्यक्ति में अभिमान रहेगा, तब तक वह इन दोषों से भी नहीं छूट पाएगा। इसलिए यदि व्यक्ति अपने अभिमान का नाश कर दे, तो अन्य भी बहुत से दोषों से छूट जाएगा। तब वह स्वयं भी सुखी हो जाएगा, और दूसरों को भी सुख देगा।”*
*”अतः सबसे बड़ा गुण है नम्रता और सभ्यता। अपने जीवन में नम्रता एवं सभ्यता को अपनाएं। आपका अभिमान दूर हो जाएगा।” “उसके बाद एक-एक करके सभी दोष छूट जाएंगे। अनेक गुण आपके अंदर ईश्वर की कृपा से आ जाएंगे। ऐसा करने से आप स्वयं भी सुखी हो जाएंगे और दूसरों को भी सुख देंगे। आपका यह जन्म भी सुधर जाएगा और अगला भी।”
*”संसार में न्याय भी होता है, और अन्याय भी। बहुत से लोग दूसरों पर अन्याय करते रहते हैं। वे ईश्वर की न्याय व्यवस्था को तो न के बराबर समझते हैं। और माता-पिता समाज एवं राजा की न्याय व्यवस्था को भी कम ही समझते हैं, या नहीं समझते।”*
*”यदि वे ईश्वर माता-पिता समाज एवं राजा की न्याय व्यवस्था को समझते होते, तो इस प्रकार से दूसरे मनुष्यों पर अथवा गौ मुर्गी भेड़ बकरी आदि प्राणियों पर अत्याचार नहीं करते।”*
क्योंकि वेदों और ऋषियों का यह सिद्धांत है कि *”दंड के बिना कोई सुधरता नहीं है.”* किसी भी अपराध को दूर करने का केवलमात्र एक ही उपाय है, *”उस अपराधी को उचित दंड देना.” “यदि अपराध बड़ा हो, तो थोड़ा सा दंड देने पर भी वह व्यक्ति नहीं सुधरता। दंड भी उसी अनुपात में बड़ा होना चाहिए, तभी उसका सुधार होता है।”* तो वेदों का यह सिद्धांत हुआ कि *”जब तक अपराधी को अपराध के अनुसार उचित दंड न दिया जाए, तब तक वह सुधरेगा नहीं.”*
इसलिए इस मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर ईश्वर अपराधियों को दंडित करता है। *”जो लोग इस जन्म में दूसरे मनुष्यों अथवा गौ मुर्गी भेड़ बकरी आदि पशुओं पर अत्याचार करते हैं। ईश्वर उन्हें अगले जन्म में पशु पक्षी कीड़े मकोड़े शेर भेड़िए सांप बिच्छू अथवा वृक्ष आदि योनियों में डालकर उन्हें भयंकर दुख देता है। यदि यह बात लोगों को समझ में आ जाए तो वे अपराध करना कम कर देंगे अथवा छोड़ देंगे।”*
*”जिन सीधे-साधे मनुष्यों अथवा प्राणियों पर ये लोग अत्याचार करते हैं। वे मनुष्य अथवा प्राणी इस जन्म में तो थोड़ा कष्ट सह लेंगे, अन्याय का दुख भोग लेंगे। परंतु इससे उनका जितना नुकसान होता है, उस नुकसान की पूर्ति ईश्वर उनको अगले जन्म में या जब भी उसकी कर्म फल व्यवस्था के अनुसार उचित होगा, तब अवश्य ही करेगा। इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।”*
*”क्योंकि जब तक क्षतिग्रस्त व्यक्ति की क्षतिपूर्ति न की जाए, तब तक उसके साथ न्याय हुआ, ऐसा नहीं माना जाता। फिर ईश्वर तो न्यायकारी है ही, बिना क्षतिपूर्ति किये वह सच्चा न्यायकारी राजा कैसे कहलाएगा?”*
*”इसलिए ईश्वर की न्याय व्यवस्था को समझने का प्रयत्न करें। अन्यायग्रस्तों की वह क्षतिपूर्ति करेगा। और अन्यायकारियों को भयंकर दंड देकर दुखी करेगा।” “अतः सावधान! सोच समझकर सही कार्य करें। तभी आपका भविष्य उत्तम बनेगा अन्यथा नहीं।
व्यक्ति को धन भी चाहिए और शांति भी। धन कमाने के लिए वह पढ़ाई करता है, ऊंची ऊंची डिग्रियां लेता है, ऊंचे-ऊंचे पदों की प्राप्ति करता है। *”फिर धन कमा कर वह भोजन वस्त्र मकान मोटर गाड़ी तथा अन्य भी बहुत से जीवन ज़रूरी सामान खरीद लेता है। बहुत सा सम्मान भी उसे मिल जाता है।” “इन सब भौतिक पदार्थों की सहायता से व्यक्ति का जीवन अच्छा चलता है। बहुत सी सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं। उसे “भौतिक सुख” के नाम से कहा जाता है। इतना सब होने पर भी उसके मन में अशांति बनी रहती है।”*
इसके दो कारण हैं । पहला कारण — *”धन संपत्ति भोजन वस्त्र मकान यान आदि भौतिक वस्तुओं में सुख सुविधा देने का सामर्थ्य तो है, परंतु मानसिक शांति देने का सामर्थ्य नहीं है।”* और दूसरा कारण — *”जब व्यक्ति बहुत अधिक धन कमाता है, तो अनेक बार वह संविधान के विरुद्ध आचरण भी कर लेता है। अर्थात झूठ छल कपट चोरी बेईमानी रिश्वतखोरी इत्यादि पाप कर्म भी कर लेता है। इन पाप कर्मों को करने के कारण ईश्वर उसके मन में अशांति उत्पन्न कर देता है।”*
*”यदि कोई व्यक्ति धर्मानुकूल पद्धति से धन कमाए, बुद्धिमत्ता ईमानदारी और परिश्रम से धन कमाए, गैरकानूनी कार्य न करे, तो ईश्वर उसके मन में शांति उत्पन्न देता है। उसे अशांति नहीं होती।”*
इसलिए जो लोग शांति प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें दो कार्य करने होंगे। *”एक तो — व्यवहार में ईश्वर की आज्ञा का पालन करें। गैर कानूनी कार्य न करें, धर्मानुकूल आचरण करें। सभ्यता नम्रता सेवा पुरुषार्थ परोपकार बुद्धिमत्ता ईमानदारी परिश्रम आदि अच्छे गुण कर्म स्वभाव को धारण करें, और इनसे सारे व्यवहार चलावें। ईश्वर उन्हें शांति अवश्य देगा।” और दूसरा कार्य “शांति प्राप्त करने के लिए ईश्वर की उपासना करें।” “क्योंकि शांति कहीं बाजार में नहीं मिलती, धन से नहीं मिलती, बल्कि व्यवहार में ईश्वर आज्ञा पालन करने और सुबह शाम उसकी उपासना करने से मिलती है।” “भौतिक वस्तुओं का प्रयोग केवल इतनी सीमा तक करें, कि उनकी सहायता से जीवन रक्षा हो जाए।” “उनसे शांति की आशा न रखें, क्योंकि भौतिक पदार्थ शांति देने में असमर्थ हैं।”