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गंदा पानी पीकर गुजारा कर रहे राष्ट्रपति की ‘दत्तक संतान : कोसों दूर से भरकर लाते हैं मटके

गंदा पानी पीकर गुजारा कर रहे राष्ट्रपति की ‘दत्तक संतान? कोसों दूर से भरकर लाते हैं मटके

 

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

 

गोरेला पेड्रा। छत्तीसगढ के गोरेला पेड्रा वनवासी आदिवासी पंडो एक ऐसा समुदाय है, जो आज भी अपने घरों में तीर धनुष को सहेज कर रखते हैं. पंडो विशेष पिछड़ी जनजाति है और राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाते हैं. मरवाही क्षेत्र के एक वनांचल गांव सेमरदर्री का आश्रित ग्राम है बगैहा टोला, जहां 75 प्रतिशत पंडो जनजाति निवास करती है. लेकिन हैरानी की बात ये है की मूलभूत सुविधाओं से दूर इनकी दुर्दशा की कोई भी नेता जनप्रतिनिधि या अधिकारी सुध नहीं ले रहे हैं.

गंदा पानी पीकर गुजारा कर रहे राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र! जंगल में 2 किमी दूर से भरकर लाते हैं और वे टमैला पानी पीने को मजबूर हैं। हम आजाद भारत के निवासी हैं. आजाद हवा में सांस लेते हैं. सभी मूल सुविधाओं से लैस देश आज विकास का राह पर अग्रसर है. लेकिन आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जो पीने के साफ पानी और खराब सड़कों जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीवन जीने को मजबूर हैं. देश में अलग-अलग तरह के लोग रहते हैं. खासतौर पर हमारी आदिवासी जनजाती आज भी कई तरह की सुविधाओं से कोसों दूर है. ऐसी ही एक जनजाती है छत्तीसगढ़ के गौरेला पेंड्रा मरवाही जिले के एक गांव में रहने वाली पंडो जनजाति आवश्यक सुविधाओं से वंचित है। आपको ये बात जानकर हैरानी होगी लेकिन पंडो एक ऐसा समुदाय है, जो आज भी अपने घरों में तीर धनुष को सहेज कर रखते हैं. पंडो विशेष पिछड़ी जनजाति है और राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाते हैं. छत्तीसगढ़ के गौरेला पेंड्रा मरवाही जिले के मरवाही क्षेत्र के एक वनांचल गांव सेमरदर्री का आश्रित ग्राम है। बगैहा टोला, जहां 75 प्रतिशत पंडो जनजाति निवास करती है. लेकिन हैरानी की बात ये है की मूलभूत सुविधाओं से दूर इनकी दुर्दशा की कोई भी नेता जनप्रतिनिधि या अधिकारी सुध नहीं ले रहे हैं.इन गांवों में पीने के पानी की व्यवस्था अब तक नहीं हो सकी है. यहां के ग्रामीण नाले और झिरिया के गंदे पानी को पीने के लिए मजबूर हैं. लोग पहाड़ों के उबड़-खाबड़ रास्तों पर दो किमी पैदल चलकर पानी लेने जाते हैं. बरसात का सीजन शुरू हो चुका है लेकिन फिर भी बारिश के बाद गर्मी कम नहीं हुई है. ऐसे में बरसात और उमस में महिलाएं सर पर बड़े-बड़े बर्तन लेकर झिरिया से पानी लेने जाती हैं. झिरिया जो मिट्टी की मेड़ से बनी है, इसमें जमीन से पानी रिस कर आता है. इसके अलावा इसमें इधर-उधर का पानी यहीं जमा होता है. गर्मियों में सूख जाता है कुंओं में दिखने में मटमैला सा पानी किसी हाल में पीने लायक तो नजर नहीं आता, लेकिन मजबूरी ऐसी की जीने के लिए इस पानी को ही पीना होता है. इसी गांव के दूसरे मोहल्ले में एक कुंआ है और कुएं की गहराई बमुश्किल 10 फिट होगी. कम गहराई की वजह से कुएं में जो पानी है वह भी पूरी तरीके से गंदा ही होता है. इसमें एक परिवार का जीवन यापन भी मुश्किल है. कुंआ गर्मी में पूरी तरह से सूख जाता है और ऐसे में परिवारों के बीच पानी भरने के लिए द्वंद भी शुरू हो जाता है. इसके बाद इनके पास भी झिरिया का गंदा पानी पीने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. इस पूरे गांव में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारामारी है.लोगों का कहना है जिम्मेदार लोगों से शिकायत करने के बाद भी यहां के हालत नहीं सुधरते. सरपंच से लेकर कलेक्टर तक समस्या को मौखिक और लिखित तौर पर दिया जा चुका है. कई बड़े अधिकारी इस गांव तक पहुंचे हैं, उनके द्वारा कुछ ही दिनों में हालत ठीक करने आश्वाशन भी दिया जाता है, मगर कोई समाधान नहीं किया जाता. गांव के छोटे बच्चों को देखकर साफ पता चलता है की गांव में इतने दूर से लाए गए गंदे पानी को पीने से बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा रहा है. बच्चों में कुपोषण की बीमारी साफतौर पर देखा जा सकता है. इसके अलावा, जंगल-पहाड़ों को पार कर झिरिया तक पहुंचने के दौरान ग्रामीणों को भालू और हाथियों का डर भी बना रहता है. यह क्षेत्र भालू और जंगली जानवरों से भरा पड़ा है और हाथी मरवाही वन मंडल में इन्हीं क्षेत्रों से अंदर आते हैं, ऐसे में जान जोखिम में डालकर पानी की झिरिया तक पहुंचाना इनके लिए हमेशा ही खतरों से भरा होता है.

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