गीता मे संन्यासी वह है जो गृहस्थ जीवन में भाग नहीं लेता और समाज को त्याग कर साधना का अभ्यास करता है। त्यागी वह है जो कर्म में संलग्न रहता है लेकिन कर्म-फल का भोग करने की इच्छा का त्याग करता है। (यही गीता की वाणी का मुख्य अभिप्राय है) श्रीकृष्ण दूसरे प्रकार के त्याग की संतुति करते हैं।
भारतीय चिंतन में मानव जीवन का परम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति माना गया है। स्वामी शिवानंद ने गीता की अपनी व्याख्या में अँग्रेज़ी में इसे – The Yoga of Liberation by Renunciation अर्थात त्याग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का नाम दिया है । भारतीय संस्कृति में चार तरह के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। पुरुषार्थ का अर्थ है – ऐसी वस्तु जिसे मनुष्य को अपने प्रयत्नों से प्राप्त करना चाहिए। ये चार पुरुषार्थ हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये चारों ऐसी वस्तु हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए काफी प्रयत्न करना पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में इन चारों ही का महत्व है। पहला स्थान धर्म का है।’धारणात् धर्मः। साने गुरू जी ने कहा कि जो सारे समाज को धारण करता है वही धर्म है और जो धर्म को धारण करता है वही मानव है। (साने गुरुजी – भारतीय संस्कृति – प १४१) । दूसरा पुरुषार्थ है ‘अर्थ’ अर्थात धन सम्पति आदि। भारतीय संस्कृति पैसे को निकृष्ट नहीं मानती। यह द्रव्य सम्पत्ति है जो किसी भी तरह से त्याज्य नहीं है। सभी से यह अपेक्षा है कि सब काम करें, धन कमाये और सुन्दर, स्वस्थ और समृद्ध अनुशासित जीवन यापन करें। अर्थ की कामना और प्राप्ति धर्म सम्मत साधनों से होना चाहिए। सम्पति प्राप्त करो और उसका उपभोग करो – यही एक मूल मंत्र है। यही अर्थशास्त्र का आधार है। यह पूरे समाज का है और पूरे समाज को प्रभावित करता है। जो अर्थशास्त्र किसी जाति,धर्म अथवा राष्ट्र विशेष के लिए सीमित होता है वह धर्म के अनुकूल नहीं है।
तीसरा पुरुषार्थ ‘काम’ है। काम का अर्थ व्यापक है संकीर्ण नहीं, उपभोग करना। विषय सुख इस का मूल तत्व है। विषय सुख यदि विधि पूर्वक किया जाये तो वह धर्म आधारित कहलाता है। (साने गुरूजी, प- १३१) । अंतिम पुरुषार्थ है मोक्ष। यह मानव जीवन का अंतिम पुरुषार्थ है। हर आदमी जो इस दुनिया में जन्म लेता है वह जीवन के अंत में मोक्ष की इच्छा रखता है।
मोक्ष का अर्थ है सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों से मुक्ति। बंधन वे जो मनुष्य को संसार से बांध कर रखते हैं, जो सांसारिक सुखों और सुविधाओ के प्रति आसक्ति पैदा करते हैं । इस में जीवन ‘मैं’ और ‘मेरा’ तक सीमित हो जाता है। इस आसक्ति के कारण हम अनेक तरह की चिंता, दुःख, अशांति, अभाव, निराशा, हताशा, जीवन के प्रति अवसाद और उदासीनता से घिरे रहते हैं। ये दुःख और चिंता जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। इन से मुक्ति का एक मात्र साधन है ज्ञान की प्राप्ति अथवा विवेकशीलता क्योंकि इन का मूल कारण है अज्ञान ।
गीता में भी अन्य उपनिषदों की तरह गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह किया गया है। अन्य उपनिषदों से इस में अंतर यह है कि यहाँ शिष्य अर्जुन है जो गुरु अर्थात भगवान श्रीकृष्ण का मित्र भी है, सखा भी और अंतरंग भी। उस की शंकाएं भी उसकी अपनी अकेले की इतनी अधिक नहीं हैं जितनी वे समाज हित की हैं। भगवान श्रीकृष्ण उन का निराकरण करते हैं। गीता के इस अंतिम अध्याय का नाम है – मोक्ष संन्यास योग। इस से पूर्व पाँचवें अध्याय में भी श्रीकृष्ण ने संन्यास और मोक्ष की बात कही है। वहाँ अर्जुन ने कृष्ण से पूछा आप कर्म के त्याग की बात करते हैं और फिर आप कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं । इन दोनों में जिस एक का भी आप ने मोक्ष साधन रूप में निश्चय किया हो, वह मुझ से स्वयम् निर्णय कर के कहे। (स्वामी विद्यानंद गिरि – प २४७) ।
सन्यासः कर्मयोगश्च नि:श्रेयसक़रावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।५ / २।। .
भगवान ने कहा – हे अर्जुन संन्यास और कर्म योग दोनों ही यद्यपि मोक्ष के साधन हैं तथापि दोनों में संन्यास की अपेक्षा कर्म योग ही श्रेष्ठ है। लेकिन अर्जुन की शंका का पूर्णतः समाधान नहीं हुआ। इस लिए यहाँ अंत में – अंतिम अध्याय में फिर कहता है –
सन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन। । (१८. १)
हे महाबाहो, हे हृषिकेश हे केशी दैत्य के संहारक श्रीकृष्ण, मैं आप से संन्यास और त्याग – दोनों के तत्व को अलग अलग जानना चाहता हूँ। अलग अलग अर्थात विश्लेषण करके। अब सबसे अधिक अनूठी बात यह है कि भगवान भी अपनी बात कहने से पूर्व संन्यास और त्याग के बारे में विभिन्न विद्वानों का मत प्रकट करते हैं।
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।१८ / २ ||
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति चापरे ।।१८ /३ ||
भगवान कहते हैं –
1. कुछ विद्वान कामना के लिए किये जाने वाले कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और
2. कुछ पंडित कर्मों के फल के त्याग को त्याग अर्थात सन्यास कहते हैं।
3. कुछ विद्वान् ऐसे हैं जिन्हें सभी कर्मों में दोष की आशंका रहती है इस कारण से वे सभी कर्मों के त्याग की बात करते हैं। इन के अनुसार कोई कर्म दोषरहित नहीं हो सकता। अच्छे कर्म करते समय भी कुछ न कुछ उस से जुड़ा बुरा काम हो ही जाता है जैसे हवन करते समय लकड़ी के साथ छोटे छोटे जीव जंतु मर जाते हैं। खेत में हल चलाते समय कोई न कोई जीव अवश्य मर जाते हैं। युद्ध के समय अनेक अनजानी मृत्यु हो जाती हैं। अतः सभी कर्मों का त्याग कर देना चाहिए।
4. कुछ विद्वान ऐसे हैं जो यज्ञ, दान, तप आदि कर्मों को न छोड़ने की बात कहते हैं।
इन व्याख्यायों का परिणाम था कि लोग प्रमादी हो गए। वाह्य रूप से वे स्वयं को अनजाने पाप कर्म से बचाने की बात कह रहे थे लेकिन वास्तविक रूप में ये पलायनवादी हो गए थे। अर्जुन भी इस पलायनवाद का प्रतीक बन रहा था।
अतः अब भगवान कृष्ण ने १८वें अध्याय के चौथे श्लोक से १२ वें श्लोक तक अर्जुन को अपना मत बताया। वे कहते है, ‘संन्यास का वास्तविक अर्थ है कर्तापन का त्याग, कर्मों के फल का त्याग। कृष्ण कह्ते हैं कि कर्मों का त्याग करना सरल है परन्तु कर्म करके उस के फल का त्याग करना कठिन है। लेकिन सृष्टि को गतिशील रखने के लिए कर्म करना आवश्यक है । भगवान ने सारी प्रक्रिया का विश्लेषण कर के अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया। इस के बाद १८ से ४०वें श्लोक तक भगवान ने कर्म, ज्ञान, कर्ता, बुद्धि, धीरता, सुख आदि के तीन तीन भेद बताये और व्याख्या की । ४१वें श्लोक में स्वधर्म की बात करते हैं तो ४९ वें श्लोक में फिर भक्ति और कर्म के साथ सांख्य योग की चर्चा करते हैं।