मनुष्य के लिए आज का वर्तमान जीवन जितना सुविधाओं से परिपूर्ण है , उतना ही बैचेनी ,दुःख और संताप से भरा हुआ हैं।पश्चिमी देशों ने मनुष्य के विकास का जो वातावरण खड़ा किया है , उसने मनुष्य के मन को न समझकर सिर्फ बाहरी पहलू को ही देखा और जिससे मनुष्य का कहीं संतुलन खोया और वो अधूरा है ।आज का मनुष्य जो सुखी जीवन की बड़ी चाहत लिए खड़ा है ,उसका मार्ग उसके कर्म में ही निहित है और उसे अपने कर्म के रहस्य को समझना होगा जो कि गीता के कर्मयोग के माध्यम से ही सम्भव है ।इसमें भगवान श्री कृष्ण ने मनुष्य को बिना फल प्राप्ति के कर्म करने का उपदेश दिया है क्योंकि जब मनुष्य बिना फल प्राप्ति के अपना कार्य कुशलता पूर्वक करता है ,तब मनुष्य की सारी शक्तियां केन्द्रीभूत हो जाती है तथा आध्यात्मिक ऊर्जा उतपन्न होती है क्योंकि बिना आध्यात्मिक ऊर्जा के मनुष्य अपने कर्म को श्रेष्ठ एवं उपयोगी नही बना सकता और इस ऊर्जा से जो कोई भी कर्म होता है, वो सिर्फ मानव जाति के लिए ही शुभ नही होता वरन पूरे अस्तित्व के लिए हितकारी होता है ।इसलिए जरूरत है गीता के कर्मयोग के रहस्य को जानकर मानव जीवन को सुखद बनाया जाये।
आज हमारा जीवन आधुनिकता से परिपूर्ण है। आज मनुष्य का जीवन विज्ञानं के भरपूर विकास के साथ जीवन की सभी उच्चकोटि सुविधाओं से परिपूर्ण लगता है ।यदि हम पृथ्वी पर कुछ ऐसे विकसित देश या कुछ विकसित होने के करीब देशों की बात करें तो यहां के लोग सभी आधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न हैं साथ ही उतने बेचौन एवं संताप से भरे हुए हैं , वो अपने जीवन में सुख सुविधाओं की चाहत में सुख और आनंद से उतना ही दूर होता जा रहा है ।यदि हम पश्चिम की दृष्टि से देखें तो मनुष्य ने विज्ञानं के सहारे जो तरक्की की है और आज पूरी दुनिया इसका अनुसरण कर रही है। मनुष्य ने बाहरी तल पर अर्थात भौतिकतावादी दुनिया में किसी लोभ के लालच में दूसरो का शोषण करते हुए एक प्रतियोगिता के वातावरण में कुछ पाने की कोशिश की है।
प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि आज अमेरिका सबसे विकसित देश है जो कि विज्ञानं की प्राप्ति करने में विश्व में उच्च स्थान बनाये हुए है लेकिन इस देश के नागरिक सबसे ज्यादा विक्षिप्त है, जिन्हें सोने के लिए नींद की गोलियां लेनी पड़ती है ं।इतनी सुविधाओं से युक्त जीवन होने पर भी आज मनुष्य बैचेनी ,दुःख और संताप को झेल रहा है और एक गलत जगह पर जाकर खड़ा हो गया है। क्या मनुष्य से कहीं चूक हो रही है ? ये ऊपर कुछ सवाल हैं जो हमें सोचने पर मज़बूर कर रहे हैं ।
वर्तमान जीवन में दुःख ,बैचेनी एवं अवसाद के मूल कारण कर्मयोग के रहस्य को समझने से पहले हमें मनुष्य के मन के रहस्य को समझना होगा ।यदि हम पूर्व के मानव विकास को देखें तो इन देशों में भौतिकतावादी विकास की बजाय ,जो क़ि पश्चिम में आधार बना हुआ था इस प्रतिसपर्धा के माहौल में उसे कुछ मिलता तो है लेकिन मानसिक संतोष नही मिल पाता और मनुष्य मानसिक रोगी होता चला जाता है। इसी बैचेनी का कारण घर के झगडे ,समुदाय के झगडे और देश की सीमाओ की झगडे हैं , जिनमें मनुष्य अपनी गुणवत्ता खोकर सम्पन्न होने की बजाय अधिक आशंकित और भयभीत नज़र आता है और जिससे मनुष्य का कहीं संतुलन खो गया और वो अधूरा सा हो गया ।पश्चिमी देशों ने मनुष्य के मन को न समझकर सिर्फ बाहर के एक के पहलू को ही द ेखा।आज जरूरत है मनुष्य के मन को समझने की।
यदि हम मनुष्य शब्द को गहराई से समझे तो मनुष्य का मतलब होगा… मन वाला इस पृथ्वी पर जितना मन इंसान के पास है और किसी प्राणी के पास नही इसलिए जीवन की विकास यात्रा को इस पर काम करना एक अहम हिस्सा बन जाता है अर्थात आंतरिक यात्रा मन को समझना और बाहरी या विज्ञानं के साथ विकास दोनों का संतुलन बनाते हुए मनुष्य एक ऐसी विकास यात्रा करके वहां पहुँच सकता है ,जहां जीवन विषाद और भय से मुक्त आनंद की चरम र्सीमा को छू सकता है और यही वास्तविक विकास है।
यदि हम श्रीकृष्ण जी की गीता में अध्यात्म को देखें तो इसमें बहुत से मार्ग हैं जो मानवता को प्रगति की तरफ ले जाता है जैसे ज्ञान योग ,भक्ति योग और कर्मयोगगीता में जो कर्मयोग है ये मार्ग एक ऐसा मार्ग है ,जो बिना कुछ किये हुए अनायास ही मनुष्य से जुड़े हुए है ।जरूरत है तो बस इसके रहस्य को नजदीक से समझने की और इसको समझकर अपने हर कार्य में अमल करने की ,जिसकी सहायता से मनुष्य आध्यात्मिकता को प्राप्त करे और अपने कार्य को सम्पूर्णता देते हुए जब मनुष्य अपने मन को आध्यात्मिक बनाएगा तभी वह श्रेष्ठ कार्य कर पायेगा। कहने का अभिप्रायः है क़ि अध्यात्म हमें सीधे मन से जोड़ता है ।चाहे महिलाएं घर के कामकाज में हो ,और किसान खेतों में हों या फिर मजदूर कारखानों में हों और नेता सबको अपने मन की बात समझा रहे हो ………
इसके बाद का जो विकास होगा वह आसक्ति रहित मानवता का विकास होगा तथा व्यर्थ के दुःख और संतापों से रहित होगा क्योंकि उसने अपने मन को समाप्त कर लिया है और उसका प्रत्येक कार्य ही पूजा बन गया है। इसके बाद मनुष्य जितना अंदर की तरफ से शक्तिशाली होगा उतना ही बाहरी दुनिया की तरफ से विज्ञानं के साथ मिलकर नई ऊंचाइयां छुएगा ।कहने का अभिप्रायः है कि धेर्म् और विज्ञानं के मिलन से एक नए मानव का जन्म होगा।
आज मनुष्य सबसे ज्यादा कर्मशील है और श्री कृष्ण की गीता जो कर्मयोग के माध्यम से कर्म के रहस्य को समझती है ।वह आज के वर्तमान जीवन में मनुष्य के लिए सबसे ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकती है। ये हज़ारों साल पुराना ग्रन्थ हमें आज के आधुनिक जीवन में जीने के लिए नया दृष्टिकोण दे सकता है।
न ही कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। (१)
अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्मकरना पड़ता है। मनुष्य अपना गुण धर्म (रज ,तम और सत) के अनुसार फल प।ता है और काम करता है।ये प्रकृति गुण उसमें परिवर्तन शील भी होते हैं एजब मनुष्य का मन प्राकृतिक गुणों के कारण विचलित होता है तो वो अपने काम को सम्पूर्णता से नहीं कर पाता और इसका मुख्य कारण है -हम लोग कार्य करते हुए उसके लाभ हानि के विषय में सोचते ब् ।अपने कार्य को सिर्फ फायदे के लिए करना। इन सब से मनुष्य अहंकार और प्रतिसपर्धा की भावना से युक्त होकर कार्य करता है ,जिसकी वजह से मनुष्य हमेशा चिंता ग्रसित तथा भययुक्त रहता है कोई काम अपने आप में छोटा और बड़ा नही है ।बस जरूरत है अपने कार्य को बिना उसमें आसक्त हुए करने की अर्थात बिना फल की चिंता न करते हुए उसमें अपना पूर्ण लगाना । स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि मनुष्य के चरित्र का निर्माण उसके अच्छे या बुरे कर्मों से होता हैं ।
जब हमारा मन लाभ हानि के विचार से दूर हो कर कोई कार्य करेगा तो उसके परिणाम भी अच्छे होंगे और आप को एक आत्मसंतुष्टि मिलेगी क्योंकि आपने अपने कार्य को पूजा बना लिया और आप अध्यात्म से जुड़ गए। रविंदर नाथ टैगोर ने भी कहा है,- वर्किंग फॉर लव इस फ्रीडम इन एक्शनं। (३)
आज मनुष्य क्षत्रिय के समान अपने रोजमर्रा की जिंदगी में अर्जुन की तरह लगा हुआ है ।बस समझने की जरूरत है वो अपने काम को कैसे बिना आसक्त हुए अंजाम दे सकता है यानि कि बिना फल की चिंता किए हुए लाभ, हानि की व्यर्थ चिंता से दूर होकर काम करना जिससे आप एक अध्यात्म की तरफ अग्रसर होंगे और एक मानसिक स्वास्थ्य को पाकर जीवन में परम आनद को प्राप्त होंगे।