(भाग-54) गीता में सस्ती लोकप्रियता का त्याग और निस्वार्थ सेवा कर्म का महत्व समझाया है?

निस्वार्थ एवं निष्काम सेवा कर्म करने जाओ तो ‘बंधन’ ही है। निष्काम कर्म करने से यह संसार अच्छी तरह से चलता है। वास्तव में निष्काम व निस्वार्थ सेवा कर्म, ‘खुद कौन है’ वह नक्की हुए बगैर हो ही नहीं सकता। जब तक क्रोध-मान-माया-लोभ हों, तब तक निष्काम कर्म किस तरह हो सकता है?

मनुष्य खुद ही मानता है कि ‘यह मैं निस्वार्थ व निष्काम सेवा कर्म करता हूँ।’ लेकिन वास्तव में उसका कर्ता कोई और ही है। जिस-जिस प्रकार की क्रिया होती है, वह सब ‘डिस्चार्ज’ है। ‘मैं निष्काम कर्म करता हूँ’ ऐसा मानता है, वही सब बंधन है। निष्काम कर्म का कर्ता है तब तक बंधन है।

वह निष्काम कर्म किसे कहते हैं? अपने घर की आय आती है। ज़मीन से आती है, उसके अलावा यह छापाखाना खोला उसमें से मिलेगी। ऐसे, बारह महीनों में बीस-पच्चीस हज़ार मिलेंगे, ऐसा अनुमान लगाकर करने जाएँ, और फिर पाँच हज़ार मिलें तो बीस हज़ार का घाटा हुआ, ऐसा लगता है। और धारणा ही नहीं रखी हो तो? निष्काम कर्म यानी उसके आगे के परिणाम का अनुमान लगाए बगैर करते जाओ। कृष्ण भगवान ने बहुत सुंदर वस्तु दी है, लेकिन किसी से वह हो सकता है

खुद ही मान लीजिए कि ‘मैं यह निस्वार्थ व निष्काम कर्म कर रहा हूँ’, जब कि वास्तव में उसका कर्ता कोई और ही है। जिस-जिस प्रकार की क्रियाएँ होती हैं वे सब डिस्चार्ज ही हैं। ‘मैं निष्काम कर्म करता हूँ’ ऐसा मानता है, वही सारा बंधन है। निष्काम कर्म का कर्ता है, तब तक बंधन है।

कृष्ण भगवान ने लोगों को दूसरा रास्ता बताया कि जिसे करने से भौतिक सुख मिलते हैं। निष्काम व निस्वार्थ कर्म किसे कहा जाता है? अपने घर की आमदनी आती है, ज़मीन की आती है, उसके अलावा यह छापाखाना लगाया उसमें से मिलेगा। इस तरह, बारह महीने में बीस-पच्चीस हज़ार मिलेंगे, ऐसा मानकर करने जाए और फिर पाँच हज़ार मिलें तो लगता है कि बीस हज़ार का नुकसान हो गया। और धारणा ही नहीं रखी हो तो? निष्काम कर्म अर्थात् उसके आगे के परिणाम की इच्छा किए बिना करते जाना। कृष्ण भगवान ने बहुत सुंदर चीज़ दी है, परन्तु किसीसे वह हो नहीं सकता न? मनुष्य का सामर्थ्य ही नहीं है न! इस निष्काम कर्म को यथार्थ रूप से समझना मुश्किल है। इसीलिए तो कृष्ण भगवान ने कहा था कि मेरी गीता का सूक्ष्मतम अर्थ समझनेवाला कोई एकाध ही है

मनुष्य को प्रकृति की तरह उदार-ह्रदय वाला होना चाहिए
हमारी पूरी प्रकृति निस्वार्थ भाव से अपने सभी कार्य करती है। कहा भी गया है कि नदियां अपना जल स्वयं नहीं पीती वल्कि वह निस्वार्थ भाव से समस्त प्राणी मात्र निशुल्क व निस्वार्थ जल,प्राणवायू और ऋतुयें प्रदान करती हैं। हमेभी प्रकृति की तरह उदार-ह्रदय होना व वाला होना चाहिए

हमारी पूरी प्रकृति निस्वार्थ भाव से अपने सभी कार्य करती है। कहा भी गया है कि नदियां अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपना फल स्वयं नही ग्रहण करता और बिंंना स्वार्थ के अन्न जल जंगल पान पत्ते हरी भरी वनस्पती और औष्धियां उत्पन्न करती हैं। इसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी अपना सारा धन निस्वार्थ भाव से कमजोरों व जरूरतमंदों गरीबों को दान देते हैं। वह परोपकार करते हैं।
इसी प्रकार सच्ची मित्रता व सच्चा प्रेम भक्ती भी निस्वार्थ भाव से किया जाता है। सच्चा मित्र भी निस्वार्थ भाव से अपने मित्र के सुख-दुख में उसका सहयोगी बनकर उसका विषम से विषम परिस्थिति में साथ देता है। सब के प्रति निस्वार्थ सेवा का भाव ही कामयाबी का मूलमंत्र है। निस्वार्थ भाव से की गई सेवा से किसी का भी हृदय परिवर्तन किया जा सकता है। जिस प्रकार गुलाब को उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होती वह तो अपनी खुशबू बिखेरता है, उसी प्रकार निस्वार्थ सेवा भाव से समाज की बुराइयों को दूर करता है। हम सभी को निस्वार्थ भाव रखते हुए समाज की सेवा करनी चाहिए। इससे अच्छे संस्कार मिलते हैं सदाचार की भावना आती है वह सहनशीलता आती है सेवाभाव बिना स्वार्थ के करना हमारा नैतिक मूल्य है। शिक्षकों और अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों को निस्स्वार्थ भाव से लोगों की मदद करने की प्रेरणा दें ताकि उसके व्यक्तित्व में नैतिक मूल्य का संचार हो सके। अगर सभी अपने बच्चों को इन गुणों से अवगत कराते हैं, उनके सामने उदाहरण पेश करते हैं तो बच्चे निश्चित रूप से इस अच्छाई को ग्रहण करेंगे। बच्चों के छोटेपन से ही अगर उदाहरण सहित चीजें समझाई जाएं तो वे उनके चरित्र में शामिल हो जाती हैं। ऐसे में शिक्षकों और अभिभावकों को चाहिए कि जो चीजें वे बच्चों को सिखाना चाहते हैं, उसपर पहले स्वयं अमल करें। इससे बच्चा देखेगा और देखा हुआ त्वरित सीखना बच्चों की प्रवृति होती है। इसके अलावा पौराणिक और ऐतिहासिक उदाहरणों से बच्चों को नैतिक मूल्यों से अवगत करवाएं। बच्चों को बताएं कि स्वार्थ रहित सहयोग हमेशा उन्हें बेहतर इंसान बनाएगा। ऐसे में लोगों की मदद भी हो जाएगी और उनके व्यक्तित्व में निखार भी आएगा। बच्चों को स्कूल में कक्षाओं में स्वार्थ और लोभ जैसी चीजों से दूर रहने की सीख देनी चाहिए। बच्चों को भी समझना चाहिए कि निस्स्वार्थ भावना उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती है। अच्छाई और नैतिक मूल्यों का संचार भावी पीढ़ी के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि वर्तमान दौर के बच्चे टीवी और इंटरनेट पर विभिन्न प्रकार के कंटेंट की उपलब्धता से पथ भ्रमित होने लगते हैं। इन बच्चों को सही राह पर लाना शिक्षकों और अभिभावकों के संयुक्त प्रयासों से संभव है।

सज्जन जन परिणाम का विचार किए बिना काम करते हैं। साहब मुझे गुस्सा करेंगे, डाँटेंगे, ऐसे विचार किए बिना काम करे जाओ। परीक्षा देने का विचार किया हो तो फिर ‘पास हुआ जाएगा या नहीं, पास हुआ जाएगा या नहीं’ ऐसे विचार किए बिना परीक्षा देते जाओ।

कृष्ण भगवान की एक भी बात नहीं समझे और ऊपर से कहते हैं कि कृष्ण लीलावाले थे! अरे, आप लीलावाले या कृष्ण लीलावाले? कृष्ण तो वासुदेव थे, नर में से नारायण हुए थे!
किन्तु भगवान तथा अर्जुन में यह अंतर है कि भगवान को यह घटना याद रही, किन्तु अर्जुन याद नहीं रख सका। अंश जीवात्मा तथा परमेश्वर में यही अंतर है। अत: भौतिक दृष्टि से जीव चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह कभी परमेश्वर की समता नहीं कर सकता।
वे अद्वैत हैं, जिसका अर्थ है कि उनके शरीर तथा उनमें (आत्मा) कोई अंतर नहीं है। उनसे संबंधित हर वस्तु आत्मा है जबकि बद्धजीव अपने शरीर से भिन्न होता है। चूंकि भगवान के शरीर तथा आत्मा अभिन्न हैं, अत: उनकी स्थिति तब भी सामान्य जीव से भिन्न रहती है, जब वे भौतिक स्तर पर अवतार लेते हैं। असुरगण भगवान की इस दिव्य प्रकृति से तालमेल नहीं बैठा पाते जिसकी व्याख्या अगले श£ोक में भगवान स्वयं करते हैं।
मनुष्य द्वारा समाज व देश में समय-समय पर अनेक प्रकार की सेवाएं की जाती हैं लेकिन उनमें यदि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप कहीं स्वार्थ छुपा हुआ है तो वह सेवा सेवा नहीं कहलाती । धर्मग्रन्थों के अनुसार अपने तन-मन-धन का अभिमान त्याग कर निष्काम व निस्वार्थ भाव से की गई सेवा ही फलदायी साबित होती है। यह उद्गार आज दिल्ली से आए सन्त निरंकारी मंडल के महासचिव वीडी नागपाल जी ने सेक्टर 30-ए में स्थित सन्त निरंकारी सत्संग भवन में हुए सत्संग में उपस्थित हजारों श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए प्रकट किए। श्री नागपाल ने सेवा पर चर्चा करते हुए कहा कि इस संसार में जीवित रहने के लिए किसी न किसी रूप में सेवा करना हर इन्सान का परम कर्तव्य है । जिस भाव से इन्सान सेवा करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। हर समय निष्काम व निस्वार्थ भाव से सेवा करना हर इन्सान के लिए संभव नहीं होता क्योंकि गृहस्थ में रहते हुए अपनी जिम्मेवारियों को निभाने के लिए इन्सान के मन में फल की भावना बनी रहती है। इन्सान परमपिता परमात्मा जो कि सर्वव्यापी व अन्तर्यामी है से कुछ नहीं छुपा सकता। इसलिए हमें कोई भी कर्म करते समय हर समय परमात्मा का एहसास करते हुए किसी प्रकार के अभिमान व चतुर-चालाकी से परहेज करना चाहिए। निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी की शिक्षाओं पर चर्चा करते हुए नागपाल ने कहा कि हमारा कोई भी कर्म ऐसा न हो जो किसी के दिल को दुख पहुंचाये या जिससे केवल हमें लाभ हो रहा हो और बाकी सभी को उससे हानि हो रही हो रही थी।

सहर्ष सूचनार्थ नोट्स:-
उपरोक्त लेख श्रीमद-भगवद गीता और संत महात्माओं के प्रवचनों से संकलन कर आध्यात्म सामान्य ज्ञान के लिए भक्त जनों के लिए प्रस्तुत है।

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