भारतीय स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सराहनीय भूमिका
✍️टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट
नागपुर में स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। साल 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के महोत्सव के निमित्त स्कूल में बांटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह अंग्रेजों के प्रति उनका पहला प्रतिकार था। बाल्यकाल से उनके मन में भारत की तरफ कुदृष्टि रखने वाले विदेशी ताकतों के प्रति विरोध की भावना थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने अपने निधन (1940) से पहले 1921 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के संघर्षों में उन्होंने ना सिर्फ स्वयं भाग लिया बल्कि हजारों स्वयंसेवकों को मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित भी किया।
डॉ. मनमोहन वैद्य लिखते हैं, “एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का एक प्रयास चल रहा है। भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है। और किसी ने कुछ नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया। लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ सके, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आन्दोलन या पार्टी को देना यह इतिहास से खिलवाड़ है, अन्य सभी के प्रयासों का अपमान है।”
नागपुर में स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। साल 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के महोत्सव के निमित्त स्कूल में बांटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह अंग्रेजों के प्रति उनका पहला प्रतिकार था। बाल्यकाल से उनके मन में भारत की तरफ कुदृष्टि रखने वाले विदेशी ताकतों के प्रति विरोध की भावना थी।
साल 1907 में रिस्ले सेक्युलर नाम से वंदे मातरम के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का अन्यायपूर्ण आदेश घोषित किया गया। उसके विरोध में केशव ने अपने विद्यालय में सरकारी निरीक्षक के सामने अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों द्वारा वंदे मातरम का उद्घोष करवाया।
डॉ हेडगेवार को स्कूल में अंग्रेज अफसर के निरीक्षण के समय वंदे मातरम् के उद्घोष के बाद अंग्रेजो से माफी मांगने से इनकार करने पर रेजिंलेण्ड क्रडोक के निर्देश पर पुलिस महानिरीक्षक सीआर क्लीवलैंड की अनुशंसा पर स्कूल से निष्काषित कर दिया गया। (गोविन्द गणेश आवदे, महाराष्ट्र, 28 जुलाई, 1940, पृष्ठ 12)
डॉ हेडगेवार ने 16 वर्ष की आयु में युवाओं में राष्ट्रीय घटनाओं पर चर्चा के लिए 1901 में ‘देशबंधु समाज’ की शुरुआत की।
रामपायली में अक्तूबर 1908 में दशहरे के रावण दहन कार्यक्रम में उन्होंने देशभक्ति पूर्ण जोशीला भाषण दिया, पूरी भीड़ वन्देमातरम का नारा लगाने लगी। डॉ हेडगेवार पर अंग्रेजो ने राजद्रोही भाषण आईपीसी धारा 108 में केस दर्ज कर लिया। (पोलिटिकल क्रिमिनल हूज हु, पृष्ठ 97)
बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क
डॉक्टरी पढ़ने के लिए मुंबई में सुविधा होने के बावजूद क्रांतिकारियों का केंद्र होने के नाते उन्होंने कलकत्ता को पसंद किया। वहां वे क्रांतिकारियों की शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के विश्वासपात्र सदस्य बने थे। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार युगान्तर और अनुशीलन समिति जैसे संगठनो में डॉक्टर पांडुरंग खानखोजे, श्री अरविन्द, वारिंदर घोष, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती आदि के सहयोगी रहे।
रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में सम्पूर्ण भारत की सैनिक छावंनियो में क्रांति की योजना में वे मध्यभारत के प्रमुख थे।
डॉ. हेडगेवार बंगाल और मध्य प्रान्त की क्रन्तिकारी गतिविधियों के बीच कड़ी का भी काम कर रहे थे।
प्रमुख क्रांतिकारियों ने उनकी भूमिका को सम्मानीय एवं उच्च स्तर का बताया है। जेल में 24 साल बिताने वाले जोगेश चन्द्र चटर्जी ने भी अपनी पुस्तक में उनकी अहम् भूमिका स्वीकार की है।
साल 1921 में जब प्रांतीय कांग्रेस की बैठक में क्रांतिकारियों की निंदा करने वाला प्रस्ताव रखा गया तो डॉ. हेडगेवार ने इसका जबरदस्त विरोध किया, परिणामस्वरूप प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। बैठक की अध्यक्षता लोकमान्य अणे ने की थी। उन्होंने लिखा, “डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारियों की निंदा एकदम पसंद नहीं करते थे। वह उन्हें ईमानदार देशभक्त मानते थे। उनका मानना था कि कोई उनके तरीकों से मतभिन्नता रख सकता है, परंतु उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना अपराध है।”
1916 में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापस आए। डॉ. हेडगेवार के मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन का कोई विचार न करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्ट्र को अर्पित करते हुए स्वतंत्रता के लिए चलने वाले हर प्रकार के आन्दोलन से अपने आपको जोड़ दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन का ध्यान भारत में स्वतंत्रता के आन्दोलनों को कुचलने पर केन्द्रित हो रहा था। डॉ. हेडगेवार को इस सन्दर्भ में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से सहयोग की अपेक्षा थी। वह डॉ. बी.एस. मुंजे का पत्र लेकर उनसे मिलने पूना गए। दो दिन तहत डॉ. हेडगेवार लोकमान्य के साथ रहे।
लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1,200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे। उस अधिवेशन में पारित करने हेतु कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने डॉ. हेडगेवार ने ऐसे प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए।
डॉ. हेडगेवार को कारावास और बाद की गतिविधियाँ
मराठी मध्य प्रान्त की तरफ से डॉ. हेडगेवार की अगुआई में एक असहयोग आन्दोलन समिति की स्थापना की गयी। इसका उद्देश्य कार्यकर्ताओं को असहयोग आन्दोलन के लिए तैयार करना था। इस समिति ने 11 नवम्बर, 1920 से एक सप्ताह ‘असहयोग सप्ताह’ के रूप में मनाया। डॉ. हेडगेवार ने दर्जन सभाओं को संबोधित किया। साल 1921 की शुरुआत से उनके नेतृत्व में सभाओं और प्रदर्शनों का दौर भी तेज हो गया।
ब्रिटिश सरकार ने 1921 के जनवरी माह से लेकर 1922 के जून तक 25 राष्ट्रवादियों पर ‘राजद्रोही’ भाषण देने के लिए मुकदमा चलाया गया था, जिनमे से 11 लोगो को कठोर कारावास, 2 लोगों को सामान्य कारावास एवं दो लोगों को विशेष कारावास की सजा दी गयी। डॉ. हेडगेवार पर मई 1921 में ब्रिटिश सरकार के विरोध में भाषण देने पर मुकदमा चलाया गया।
डॉ हेडगेवार ने 13 अप्रैल, 1922 को जेल के अन्दर ‘जलियांवाला बाग दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। उन्होंने एक छोटी सभा को संबोधित किया जिसमें उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद का विषय रखा।
एक वर्ष जेल में रहने के बाद, डॉ. हेडगेवार 11 जुलाई, 1922 को रिहा हुए। महाराष्ट्र समाचारपत्र ने लिखा, “उनकी (डॉ. हेडगेवार) की देशभक्ति सभी विवादों से परे है।” (महाराष्ट्र, 12 जुलाई, 1922, पृष्ठ 5)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना
वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन विशेष रूप से निमंत्रित 25 व्यक्तियों के साथ विचार विमर्श करके एक नए संघठन एवं नई कार्य पद्धति का श्रीगणेश किया। भाऊ जी कावरे, अन्ना सोहोनी, विश्वनाथ राव केलकर, बालाजी हुद्दार, बापुराव भेदी उपस्थित लोगों में प्रमुख थे। इनमे अधिकांश डॉ हेडगेवार के बाल्यकाल जीवन के साथी एवं बाद में गांधीवादी आन्दोलन के दौरान सहकर्मी थे।
डॉ. मनमोहन वैद्य लिखते है, “स्वतंत्रता प्राप्ति का महत्व तथा प्राथमिकता को समझते हुए भी एक प्रश्न डॉ. हेडगेवार को सतत् सताता रहता था कि, 7000 मील से दूर व्यापार करने आए मुट्ठी भर अंग्रेज, इस विशाल देश पर राज कैसे करने लगे? जरूर हममें कुछ दोष होंगे। उनके ध्यान में आया कि हमारा समाज आत्म-विस्मृत, जाति प्रान्त-भाषा-उपासना पद्धति आदि अनेक गुटों में बंटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहां राज कर सके। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी समाज ऐसा ही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जाएगा। वे कहते थे कि ‘नागनाथ जाएगा तो सांपनाथ आएगा’। इसलिए इस अपने राष्ट्रीय समाज को आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियों से मुक्त करना और राष्ट्रीय गुणों से युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीति से अलग, प्रसिद्धि से दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करने का है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ। उस हेतु 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ स्थापना के पश्चात् भी सभी राजनीतिक या सामाजिक नेताओं, आन्दोलन एवं गतिविधि के साथ उनके समान नजदीकी के और आत्मीय संबंध थे।”
स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य
संघ में देशभक्ति से ओतप्रोत बौधिक कार्यकर्मों एवं खेलों का आयोजन किया जाता था। वर्धा में 27-28 अप्रैल, 1929 को एक सौ स्वयंसेवकों का प्रशिक्षण शिविर लगाया गया था। सभी वक्ताओं ने अपील की थी की स्वराज्य प्राप्ति के लिए वे अपना सर्वस्व त्याग करने हेतु तैयार रहे और सार्वजानिक तौर पर घोषणा की गयी की ‘संघ का अंतिम लक्ष्य स्वराज्य प्राप्त करना है।’
डॉ हेडगेवार ने कहा कि ब्रिटेन की सरकार ने अनेक बार भारत को स्वतंत्र करने का आश्वाशन दिया, परन्तु वह झूठा साबित हुआ।अब यह साफ़ हो गया की भारत अपने ही बल पर स्वतंत्रता हासिल करेगा।
दिसम्बर 1929 में कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया। जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता को अपना ध्येय घोषित करते हुए 26 जनवरी, 1930 को देशभर में स्वतंत्रता दिवस मनाने का निर्देश दिया। डॉ हेडगेवार को इसका पूर्वाभ्यास था और उन्होंने कांग्रेस के निर्णय पर अपनी प्रसंन्नता प्रकट की।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन
1930 में गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन 6 अप्रैल को दांडी (गुजरात) में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। नवम्बर 1929 में ही संघचालकों की त्रिदिवसीय बैठक में इस आन्दोलन को बिना शर्त समर्थन करने का निर्णय संघ में हुआ था।
संघ की नीति के अनुसार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। और संघ कार्य अविरत चलता रहे इस हेतु उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने मित्र डॉ. परांजपे को सौंप कर बाबासाहब आप्टे और बापू राव भेदी को शाखाओं के प्रवास की जिम्मेदारी दी।
इस सत्याग्रह में उनके साथ प्रारंभ में 21 जुलाई, को 3-4 हजार लोग थे। वर्धा, यवतमाल होकर पुसद पहुंचते-पहुंचते सत्याग्रह स्थल पर 10,000 लोग इकट्ठे हुए। इस सत्याग्रह में उन्हें 9 महीने का कारावास हुआ। वहां से छूटने के पश्चात् सरसंघचालक का दायित्व पुन: स्वीकार कर वे फिर से संघ कार्य में जुट गए।
जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ हेडगेवार ने अपने संबोधन में कहा, “स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजो के बूट की पालिश करने से लेकर, उसके बूट को पैर से निकालकर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं।मैं तो इतना ही जानता हूँ कि देश को स्वतंत्र कराना है।”
डॉ साहब के साथ गए सत्याग्रह जत्थे में आप्पाजी जोशी, दादाराव परमार्थ आदि प्रमुख 12 स्वयंसेवक थे. उनको 9 महीने का सश्रम कारावास दिया गया। उसके बाद श्री मार्तंडराव जोग, श्री अप्पाजी हलदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे।
वर्ष 1931 की विजयादशमी पर डॉ हेडगेवार जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गाँव-गाँव में संघ की शाखाओं पर एक सन्देश पढ़ा गया, जिसमे कहा गया था, “देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नही होता तब तक हमें किसी सुख को नही भोगना है।”
संघ पर पहला प्रतिबन्ध
मध्यप्रांत की ब्रिटिश सरकार ने एक नोटिस जारी करके सरकारी कर्मचारियों के संघ में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया। पुलिस एवं गुप्तचरों की रिपोर्टों को आधार बना तैयार किये गए इस परिपत्रक में संघ को साम्प्रदायिक कहा गया और राजनैतिक आन्दोलनों में भाग लेने के आरोप लगाए गए। यह परिपत्रक 15 दिसंबर, 1932 को जारी किया गया और दूसरे ही दिन ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक संस्थानों में इसे लागू कर दिया।
परिपत्र के अनुसार, “सरकार (ब्रिटिश) ने यह निर्णय लिया है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य बनने अथवा उसके कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति नहीं है
डॉक्टर साहब ने स्पष्ट कहा सरकार को यह जान लेना चाहिए की संघ जो कार्य देश की आज़ादी के लिए कर रहा है उसे दबाया नही जा सकता। मध्यप्रांत की विधानसभा में 7 मार्च, 1934 को जब इस परिपत्रक से संबधित प्रस्ताव पर चर्चा हुई तो अधिकतर सदस्यों ने प्रस्ताव का विरोध किया। आखिरकार संघ पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया।
भारत छोडो आन्दोलन
8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई।
विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया।
इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर इस संघ स्वयंसेवक की हुई। कांग्रेस, श्री तुकडो महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया। भारतभर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े।
स्वतंत्रता संग्राम में संघ के स्वयंसेवकों को कांग्रेस के आंदोलनों में भाग लेने के लिए कभी भी नही रोका गया। अलबता भारी संख्या में स्वयंसेवक गांधीजी के द्वारा संचालित सत्याग्रह में जाया करते थे। इतना ही नही हजारों स्वयंसेवक कांग्रेस की सभी प्रकार की गतिविधियों में सक्रियता से भागीदारी करते थे।
अपने जिन कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर अन्य स्वयंसेवकों को साथ लेकर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं : राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे। आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे। जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। दिल्ली में वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे। बिहार (पटना), में वहां के प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे।
दिल्ली में ही चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका। बाद में वे प्रसिद्ध कवि और अनेक संघ गीतों के रचनाकार हुए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव देवडे़ जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने और इसी तरह उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे का अवदान है जो बाद में संघ प्रचारक हुए।
अंग्रेजों के दमन के साथ-साथ एक तरफ सत्याग्रह चल रहा था तो दूसरी तरफ अनेक आंदोलनकर्ता भूमिगत रहकर आन्दोलन को गति और दिशा देने का कार्य कर रहे थे। ऐसे समय भूमिगत कार्यकर्ताओं को अपने घर में पनाह देना किसी खतरे से खाली नहीं था।
1942 के आन्दोलन के समय भूमिगत आन्दोलनकर्ता अरुणा आसफ अली दिल्ली के प्रान्त संघचालक लाला हंसराज गुप्त के घर रही थीं और महाराष्ट्र में सतारा के उग्र आन्दोलनकर्ता नाना पाटील को भूमिगत स्थिति में औंध के संघचालक पंडित सातवलेकर ने अपने घर में आश्रय दिया था।
डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी। संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था। वे दावे के साथ आश्वासन देते थे कि अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिये, उस जाल को अधिक्ताम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघशाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय आज़ादी से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जायेगी।
इन वर्षों में जिससे भी उनका संपर्क हुआ उन्होंने उनकी और उनके कार्यों की हमेशा सरहना की। जिनमे महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, बी. एस. मुंजे, बिट्ठलभाई पटेल, महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी जैसे नाम प्रमुख थे।
राजगुरु और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
शिवराम हरि राजगुरु (1908-1931) की पढाई भोंसलें वेदशाला में हुई थी। यहाँ उनकी मुलाकात डॉ. हेडगेवार से 1925 में हुई। इसके बाद राजगुरु का नागपुर स्थित मोहिते बाड़ा शाखा में कई बार आना हुआ। दरअसल राजगुरु को व्यायाम से गहरा लगाव था। क्रांतिकारियों गतिविधियों से जुड़ने के लिए वे वाराणसी आ गए। यहाँ उनका संपर्क भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों से हुआ।
वायसराय ने 8 नवम्बर, 1927 को घोषणा की कि भारत में शासन सुधारों के लिए सायमन की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया गया हैं। यह कमीशन मुंबई में 3 फरवरी, 1928 को पहुंचा। दिल्ली आने के बाद 30 अक्तूबर 1928 में लाहौर आया। यहाँ लाला लाजपत के नेतृत्व में उसका विरोध किया गया। रेलवे स्टेशन पर पुलिस अधीक्षक स्कॉट ने सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स को लाठी-चार्ज की अनुमति दी हुई थी। लाजपत राय को गंभीर चोंटे आई और 17 नवम्बर, 1928 को उनका निधन हो गया।
भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजगुरु और जयगोपाल ने इसका बदला लेने का निर्णय लिया। चारों ने मिलकर 27 दिसंबर 1928 को पुलिस अधीक्षक स्कॉट को मारने का प्लान बनाया। हालाँकि उन्होंने सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स को गोली मार दी। पिस्तौल का ट्रिगर राजगुरु ने दबाया और भगत सिंह ने भी पांच बार फायर किये।
ब्रिटिश सरकार ने राजगुरु और अन्य क्रांतिकारियों को पकड़ने के प्रयास शुरू कर दिए। राजगुरु को पकडे जाने का कोई डर नहीं था। वे अपनी नियमति गतिविधियों में संलग्न रहे और युवाओं को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जागने का काम करते रहे।
सांडर्स की हत्या के बाद एक अन्य क्रन्तिकारी के साथ वे अमरावती आ गए। यहाँ वे हनुमान प्रसारक मंडल के ग्रीष्मकालीन कैंम्प से जुड़ गए। यहाँ से वे अकोला गए और राज राजेश्वर मंदिर के समीप एक किराए के घर में रहने लगे। जिसका इन्तेजाम बापू साहब सहस्त्रबुद्धे ने किया था। इसके बाद उनका अमरावती, नागपुर और वर्धा लगातार जाना लगा रहा।
इसी दौरान 1929 में जब राजगुरु नागपुर में थे तब उनकी मुलाकात डॉ. हेडगेवार से हुई। सरसंघचालक ने उन्हें सलाह दी कि वे पुणे न जाए। ब्रिटिश सरकार से बचाने के लिए उन्होंने राजगुरु के रहने की व्यवस्था भैयाजी दाणी के उमरेड स्थित एक स्थान पर कर दी थी। हालाँकि उन्होंने इस सलाह को नहीं माना और वे पुणे चले गए। जहाँ उन्हें 30 सितम्बर, 1929 को गिरफ्तार कर लिया गया।
भारत छोडो आन्दोलन में संघ कार्यकर्ताओ की भूमिका
8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। भारत भर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े।
दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई। विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए।
चिमूर आन्दोलन के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया।
इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर की हुई। जो संघ के स्वयंसेवक थे। श्री तुकडो जी महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।
कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में से एक रहे तिलकवादी लोकनायक अणे ने लिखा, “डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारियों की निंदा एकदम पसंद नहीं करते थे। वह उन्हें ईमानदार देशभक्त मानते थे। उनका मानना था कि कोई उनके तरीकों से मतभिन्नता रख सकता है, परंतु उनकी देशभक्ति पर उंगली उठाना अपराध है।”
लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1,200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे।
1920 के कांग्रेस अधिवेशन में डॉ. हेडगेवार ने प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करने और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए।
डॉ हेडगेवार ने 13 अप्रैल, 1922 को जेल के अन्दर
‘जलियांवाला बाग दिवस’ मनाने का निर्णय लिया। उन्होंने एक छोटी सभा को संबोधित किया जिसमें उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद का विषय रखा।
महाराष्ट्र समाचारपत्र ने लिखा, “उनकी (डॉ. हेडगेवार) की देशभक्ति सभी विवादों से परे है।” (महाराष्ट्र, 12 जुलाई, 1922, पृष्ठ 5)
वर्ष 1931 की विजयादशमी पर डॉ हेडगेवार जेल में थे, उनकी अनुपस्थिति में गाँव-गाँव में संघ की शाखाओं पर एक सन्देश पढ़ा गया, जिसमे कहा गया था, “देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नही होता तब तक हमें किसी सुख को नही भोगना है।”
वर्तमान में वामपंथी विचारकों और पत्रकारों के साथ साथ कुछ दलों का ऐसा गिरोह है जिन्होंने पिछले 70 वर्षों तक देश की सरकारों के साथ-साथ महत्वपूर्ण संस्थानों को भी अपने हिसाब से ढाला है। यही कारण है कि आज भी स्वाधीनता संग्राम के महासमर में अपने जीवन का त्याग देने वाले और प्राणों की आहुति देने वाले महान हुतात्माओं को अनदेखा कर एक समूह के लोगों का महिमामंडन किया गया है।