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(भाग:161) तेरे गिरने से हार नहीं°°तू आदमी है°° अवतार नहीं°°गिर उठ चल° फिर भाग°° क्योंकि जीत संक्षिप्त है। 

भाग:161) तेरे गिरने से हार नहीं°°तू आदमी है°° अवतार नहीं°°गिर उठ चल° फिर भाग°° क्योंकि जीत संक्षिप्त है।

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥22॥

जिस प्रकार लोग अपने फटे-पुराने वस्त्र छोड़कर दूसरे नये वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार यह आत्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर को स्वीकार करता है।[1]

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूत:॥23॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।

नित्य: सर्वगत स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥24॥

यह आत्मा अनादि, नित्यसिद्ध, निरुपाधि और विशुद्ध है; इसीलिये शस्त्र आदि से इसका छेदन नहीं किया जा सकता। प्रलय के जल से भी यह भीग नहीं सकता और अग्नि से भी यह दग्ध नहीं किया जा सकता। वायु की महाशोषक शक्ति भी इस पर अपना असर नहीं डाल पाती। हे अर्जुन! यह आत्मा शाश्वत, नित्य, निरन्तर, अचल और सर्वव्यापी है, इसलिये यह स्वयं ही परिपूर्ण रहता है

धीरो लोक विपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।नो समाधिं न विक्षेपंन लोपं स्वस्य पश्यति॥

तत्त्वज्ञानी तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और नलय ही ॐ

आप भगवान का आशीर्वाद प्राप्त कर रहे होंगे क्योंकि भगवान का नाम आग की तरह है। यहां तक कि अगर आप अनजाने में या गलती से भी आग को छू लेते हैं, तो आपकी उंगली जल जाएगी। आप बर्फीले शीतल जल को छू लेंगे तो हाथ में ठन्डक महसूस होगी।इसी तरह अगर आप इसे सर्वशक्तिमान को जाने बिना या गलती से भी पढ़ लेते हैं, तो आपको भगवान का आशीर्वाद मिल ही जाएगा। आप इस खूबसूरत ग्रह पृथ्वी पर आध्यात्मिकता बनाने के लिए को अग्रेषित कर सकते हैं। भगवान का असीम प्रेम को स्वीकार करो, धन्यवाद और प्रणाम ! ज्यादा जानने की जरूरत नहीं

 

अधिक शास्त्र पढ़ने का क्या प्रयोजन ? यदि आप परमात्मा को केवल गीता पढ़ने से जान सकते है – भगवद गीता और अष्टावक्र गीता! किन्तु दोनों आपको समझ में आ जाये ! तब आप आश्चर्य देखिये! यदि आप समझ जाते हैं तो आपने जीवन के सारे उद्देश्य प्राप्त कर लिए है।

संसार में कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नहीं है, सभी अल्पज्ञ हैं। इसलिए कोई भी व्यक्ति संपूर्ण ज्ञानी न होने के कारण अपने सारे काम स्वयं ठीक-ठीक नहीं कर पाता। उसे दूसरों से बहुत सा ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है। इसीलिए आप भी अपने बच्चों को बचपन से ही स्कूल भेजते हैं, कि “जाओ, कुछ ज्ञान प्राप्त करो, जिससे कि आपका भावी जीवन सरल एवं सुखमय बने।”

केवल एक ईश्वर ही सर्वज्ञ है। उसका ज्ञान पूर्ण है, शुद्ध है, सर्वथा निर्दोष है। उसमें भ्रांति संशय आदि कोई भी दोष नहीं है। ऐसे सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान ईश्वर ने जब संसार बनाया, तब सभी लोग अज्ञानी थे। वे कुछ नहीं जानते थे। “तब सृष्टि के आरंभ काल में ईश्वर ने चार वेदों का ज्ञान मनुष्यों को दिया। और आरंभ के मनुष्यों अर्थात ऋषियों ने ईश्वर से चार वेदों का ज्ञान प्राप्त करके अन्य मनुष्यों को वेदों का ज्ञान दिया। और वही गुरु शिष्य परंपरा तब से आज तक चली आ रही है।”

“वेदों का शुद्ध ज्ञान प्राप्त करके और संसार में परिश्रम पुरुषार्थ कर करके कुछ लोग ऊंचे तत्त्वज्ञानी हो गए। वे संन्यासी बन गए, और संसार में घूम-घूम कर वेदों का प्रचार करने लगे।” “उनमें से कुछ गिने चुने लोग आज भी मिलते हैं, जो तपस्या करते हैं, वेदों के सच्चे विद्वान हैं और वे भी देश दुनियां में घूम घूमकर सबको वेदों का शुद्ध ज्ञान बांटते रहते हैं।”

“ऐसे वेदों के विद्वान उत्तम आचरण वाले सच्चे संन्यासी लोग जहां भी जाते हैं, वहां पर दीपक के समान वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं। ऐसे विद्वानों का सत्संग प्राप्त करना बहुत ही सौभाग्य की बात होती है।”

“यदि कभी आपके गांव नगर में या आपके आसपास ऐसे वेदों के विद्वान संन्यासी लोग पधारें, तो उनका सत्संग अवश्य करें। अथवा कभी कभी आप उनके आश्रमों गुरुकुलों आदि स्थानों पर जाकर उनसे शुद्ध ज्ञान का लाभ अवश्य प्राप्त करें।”

क्योंकि संसार में सभी लोग शुद्ध ज्ञानी एवं पूर्ण सत्यवादी नहीं होते। सबके पास वेदों का शुद्ध ज्ञान नहीं होता। “अनेक गुरुओं के पास शुद्ध अशुद्ध मिश्रित ज्ञान होता है। क्योंकि वे वेदों को ठीक ढंग से नहीं पढ़ते, उनको नहीं समझते, और उन पर सही ढंग से आचरण भी नहीं करते। इसलिए सभी विद्वान प्रवक्ता लोग उतने लाभकारी नहीं होते, जितने कि वेदों के सच्चे विद्वान वैराग्यवान एवं उत्तम आचरण वाले संन्यासी लोग।”

“अतः ऐसे वैदिक विद्वान संन्यासी वैरागी लोगों का सत्संग अवश्य करें और अपने जीवन को सफल बनाएं।”

*”मनुष्य अकेला नहीं जी सकता, क्योंकि वह अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है। ठीक प्रकार से या सुख पूर्वक जीवन जीने के लिए उसे अनेक लोगों का सहयोग लेना पड़ता है।” “दूसरे लोगों का सहयोग मिलने पर व्यक्ति का जीवन सरल हो जाता है। इससे उसकी अनेक समस्याएं सुलझ जाती हैं, और अनेक प्रकार से उसे सुख मिलता है।” “संसार में जो दूसरे लोग उसे सहयोग करते हैं, वे क्यों करते हैं? क्योंकि उनका उसके साथ कुछ न कुछ संबंध होता है।”*

मान लीजिए, ईश्वर ने आपको किसी एक परिवार में जन्म दिया। *”जन्म के साथ ही आपका बहुत लोगों के साथ संबंध भी बना दिया। जैसे माता पिता भाई-बहन चाचा चाची मामा मामी बुआ फूफा मौसी मौसा इत्यादि।” “उक्त सभी संबंधी लोग उस व्यक्ति की समस्याओं को सुलझाते रहते हैं। उसके दुखों को दूर करते रहते हैं, और अनेक प्रकार से उसे सुख देते रहते हैं।” “ईश्वर ने इसी प्रयोजन से जन्म से ही ये सारे संबंध बनाए थे।”*

इसके अतिरिक्त व्यक्ति धीरे-धीरे बड़ा होता है। वह स्कूल कॉलेज गुरुकुल आदि में जाने लगता है। *”वहां भी कुछ दूसरे मनुष्यों के साथ उसके संबंध बन जाते हैं, उन्हें मित्रता का संबंध कहते हैं। आगे चलकर पति-पत्नी का भी संबंध बनता है।” “इन संबंधों को ईश्वर नहीं बनाता, वे तो आपने अपनी इच्छा और पसंद से बनाए हैं।” “ये सारे संबंध एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाने तथा एक दूसरे को सुख देने के लिए होते हैं।”*

ईश्वर का अभिप्राय भी यही था, कि *”ये सब संबंधी लोग परस्पर एक दूसरे को सुख देवें, और उनके दुखों को दूर करें।”*

*”परंतु संसार में सब लोगों के संस्कार एक जैसे नहीं होते। कुछ लोगों के संस्कार अच्छे होते हैं, और कुछ लोगों के बुरे। वे अपने-अपने संस्कारों से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं।” “जिनके संस्कार अच्छे होते हैं, वे दूसरे संबंधी लोगों को सुख देते हैं। और जिनके संस्कार खराब होते हैं, वे अपने संबंधी लोगों को दुख देते हैं। अनेक प्रकार से उनका शोषण करते हैं। उन्हें धोखा देते हैं, छल कपट से उनकी संपत्तियां भी हड़प लेते हैं। ऐसा करना अत्यंत ही अनुचित कार्य है।” “ईश्वर न्यायकारी है। वह ऐसे दुष्ट लोगों को इस जन्म में भी मानसिक तनाव आदि देकर तथा अगले जन्म में भी पशु-पक्षी कीड़ा मकोड़ा वृक्ष वनस्पति आदि योनियों में जन्म देकर अवश्य ही दंडित करता है।”*

*”यदि कर्म फल की इस व्यवस्था को संसार के लोग समझ लें, और सबके साथ ठीक ठीक न्यायपूर्वक व्यवहार करें। संबंधों के सही उद्देश्य को ध्यान में रखकर एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाएं, और उन्हें सुख देवें, तो यह संसार स्वर्ग बन जावे।”*

*”परंतु संसार में लोगों के व्यवहार को देखने से ऐसा लगता नहीं है, कि यह संसार कभी स्वर्ग बन पाएगा।” “फिर भी यथाशक्ति सबको प्रयत्न तो करना ही चाहिए। जितनी मात्रा में भी स्वर्ग बन सकता है, उतना तो बनाएं!” “एक दूसरे पर अन्याय करके, उनका शोषण करके, कम से कम इसे नरक तो न बनाएं!!!”*

—- *”स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।”*

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