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(भाग:305)महर्षि वाल्मीकि ने ही माता सीता की पहचान छिपाने के लिए उनका नाम वनदेवी रखा था

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(भाग:305)महर्षि वाल्मीकि ने ही माता सीता की पहचान छिपाने के लिए उनका नाम वनदेवी रखा था

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक

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वाल्मीकी रामायण के अनुसार कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि ने ही माता सीता की पहचान को छुपाने के लिए उनका नाम वनदेवी रख दिया था. धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि इसी स्थान पर लवकुश का जन्म हुआ था. जब भगवान राम के आदेश पर लक्ष्मण जी ने वन में छोड़ा तब वो इसी स्थान पर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं, जिन्हें वनदेवी कहा जाने लगा

हिंदू धर्म में त्योहारों का विशेष महत्व है. खासकर शक्ति की उपासना के लिए नवरात्रि पर्व को बहुत महत्व बताया माना गया है. मां दुर्गा के भक्तों को पूरे साल शारदीय नवरात्रि का इंतजार रहता है. अश्विन माह के शुक्ल पक्ष की नवरात्रि 26 सितंबर से शुरू हो रहे हैं. इन्हें शारदीय नवरात्रि के नाम से जाना जाता है. इन नौ दिनों में मां दुर्गा के 9 स्वरूपों की पूजा की जाती है. आज हम आपको बताएंगे उस मंदिर के बारे में जहां पर मां सीता ने लव-कुश को जन्म दिया था. इस मंदिर का नाम है वनदेवी.

 

उत्तर प्रदेश में मऊ जिला मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर दूर दक्षिण पश्चिम दिशा में जगत जननी सीता माता का मन्दिर वनदेवी है. आज यह जगह श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केन्द्र बिन्दु है. जनश्रुतियों एवं भौगोलिक साक्ष्यों के आधार पर यह स्थान महर्षि वाल्मीकि की साधना स्थली के रूप में विख्यात रहा है.

 

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मां सीता ने लवकुश को दिया था यहीं पर जन्म

कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि ने ही माता सीता की पहचान को छुपाने के लिए उनका नाम वनदेवी रख दिया था. धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि इसी स्थान पर लवकुश का जन्म हुआ था. जब भगवान राम के आदेश पर लक्ष्मण जी ने वन में छोड़ा तब वो इसी स्थान पर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहीं, जिन्हें वनदेवी कहा जाने लगा. वनदेवी मन्दिर अनेक साधु-महात्मा और साधकों की तपस्थली भी रहा है. यहां के साधु-महात्माओं में लहरी बाबा की विशेष ख्याति है. यहां श्रद्धालुओं को मानसिक और शारीरिक परेशानियों से छुटकारा मिल सकता है,

सपने में मां ने दिए थे दर्शन

ये जगह साहित्य साधना के आदि पुरुष महर्षि वाल्मीकि और भगवान राम और माता सीता से जुड़ा हुई है. किवदंतियों और जनश्रुति के अनुसार समीप के ही नरवर गांव के रहने वाले सिधनुआ बाबा को सपना आया था. उनको सपने में दिखाई दिया कि देवी की प्रतिमा जंगल में जमीन के अन्दर दबी पड़ी है. देवी ने बाबा को उस जगह की खुदाई कर पूजा पाठ का निर्देश दिया. सपने के मुताबिक बाबा ने सपने में बताई गई जगह पर खुदाई शुरू की तो उन्हें मूर्ति दिखाई दी. बाबा के फावड़े की चोट से मूर्ति क्षतिग्रस्त भी हो गई. बाबा जीवन पर्यन्त वहां पूजन-अर्चन करते रहे.

 

वृद्धावस्था में उन्होंने उक्त मूर्ति को अपने घर लाकर स्थापित करना चाहा लेकिन सफल नहीं हुए और वहीं उनका प्राणांत हो गया. बाद में वहां मन्दिर बनवाया गया. उनकी मौत के बाद मां वनदेवी अपने सिंहासन के साथ प्रकट हुईं. श्रद्धालु नारियल आदि चढ़ाकर ही मां की पूजा अर्चना करते हैं. इस धाम पर प्रतिवर्ष सैकड़ों युवक और युवतियां दांपत्य बंधन में बंधकर साथ जीने मरने का संकल्प लेते हैं. यहां के साधकों के तीसरी पीढ़ी में बाबा दशरथ दास का नाम बड़े आदर से लिया जाता है. ये अपनी अपूर्व और आलौकिक सिद्धियों के कारण विशेष चर्चित रहे.

 

भक्तों की होती है हर मुराद पूरी

कहते है कि मां वनदेवी का बहुत बड़ा चमत्कार है. यहां आने वाले भक्तों की हर मुराद पूरी होती है. रामनवमी के दिन महिलाओं ने माता को हलूआ पूड़ी, सिन्दूर गुड़हल के फूल, चुनरी आदि चढ़ाकर मां से मुरादें पूरी करने की कामना की. चैत्र राम नवमी के अवसर पर यहां विशाल मेले का भी आयोजन होता है जो कई दिनों तक चलता रहता है.

पांडवों ने की थी वनदेवी दुर्गा की स्थापना

दुर्गापूजा ऐतिहासिक भगवती स्थल की महिमा अपरंपार, हजारों भक्त पूजा करने आते हैं हरदी वाली मैया मां वनदेवी दुर्गास्थान आम जनमानस में असीम आस्था व विश्वास का केंद्र है और शक्ति पीठ के रूप में विख्यात है. सुपौल : जिला मुख्यालय से महज 12 किलो मीटर दूर पूरब सुपौल-सिंहेश्वर मुख्य मार्ग में अवस्थित जिले की […]

 

दुर्गापूजा ऐतिहासिक भगवती स्थल की महिमा अपरंपार, हजारों भक्त पूजा करने आते हैं

 

हरदी वाली मैया मां वनदेवी दुर्गास्थान आम जनमानस में असीम आस्था व विश्वास का केंद्र है और शक्ति पीठ के रूप में विख्यात है.

 

सुपौल : जिला मुख्यालय से महज 12 किलो मीटर दूर पूरब सुपौल-सिंहेश्वर मुख्य मार्ग में अवस्थित जिले की ऐतिहासिक हरदी वाली मैया मां देवी वन दुर्गास्थान आम जनमानस में असीम आस्था व विश्वास का केंद्र है और शक्ति पीठ के रूप में विख्यात है. यहां स्थापित मां दुर्गा को सिद्धपीठ के रूप में माना जाता है और आसपास के ग्रामीण प्रतिदिन पूजा-उपासना करने के लिए यहां आते हैं. ऐतिहासिक भगवती स्थल की महिमा अपरंपार है. श्रद्धालुओं का मानना है कि जो भक्त यहां सच्चे मन से पूजा- अर्चना करने आते हैं. उसकी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होती है. वैसे तो हर दिन यहां श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है.

 

लेकिन मंगलवार व शुक्रवार को पूजा की विशेष महत्ता मानी जाती है. सालों भर यहां छाग बलि देने की परंपरा है. हरदी दुर्गा स्थान स्थित मां वन देवी दुर्गा की ख्याति काफी दूर-दूर तक फैली हुई है. यही वजह है कि उक्त मंदिर में सालों भर भक्तों का तांता लगा रहता है. दुर्गा पूजा के मौके पर यहां विशेष तौर से श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है. इस मेले में लोकदेव लोरिक की भी प्रतिमा बनाये जाने की परंपरा है. इस मेला का आयोजन कब से और किसके द्वारा शुरू की गयी है इसकी भी जानकारी किसी के पास नहीं है.

 

चंदे के पैसे से किया जा रहा है मंदिर का निर्माण कार्य : हरदी दुर्गा स्थान में माता का पिंड रूप मौजूद है. वर्षों से माता बैर के पेड़ों के बीच रहती आयी है. यही वजह है कि उन्हें वन देवी की संज्ञा दी गयी है. श्रद्धालुओं द्वारा वर्षों से उक्त स्थल पर मंदिर बनाने का प्रयास किया जाता रहा है. लेकिन मंदिर का निर्माण सफल नहीं हुआ. बताते हैं कि माता को यहां खुले आकाश व बैर के पेड़ों के नीचे रहने की इच्छा थी. लिहाजा मंदिर का निर्माण सफल नहीं हो पा रहा था.

 

हाल के वर्षों में श्रद्धालुओं द्वारा मंदिर निर्माण हेतु माता की विशेष पूजा व मन्नतें की गयी. जिसके बाद जून 2014 में ग्रामीणों द्वारा बैर के पेड़ के नीचे स्थापित पिण्ड रूपी दुर्गा की पूजा-अराधना लगातार दो दिनों तक करने के बाद मां वन देवी मंदिर में रहने को तैयार हुई. उस समय ग्रामीणों के चेहरे खिल-खिला उठे और ग्रामीणों द्वारा चंदा इकट्ठा करके मंदिर का निर्माण शुरू किया गया. अभी तक चंदा के पैसे से बनने वाले इस पांच मंजिले मंदिर के दो मंजिले छत तक का काम संपन्न हो गया है.

 

पौराणिक कथाओं के अनुसार अज्ञातवास के दौरान विराटनगर जाने के क्रम में विश्रामावधि में पांडवों द्वारा हरदी में मां वन दुर्गा की स्थापना कर पूजा-अर्चना की गई थी. लोगों का यह भी मानना है कि महान योद्धा वीर लौरिक उत्तर प्रदेश के गौरा गांव से पांचवीं शताब्दी में हरदी गांव आया था. यहां के राजा महबैर अपने प्रजा के साथ अत्याचार व जुल्म किया करते थे.

 

राजा महबैर के आतंक से निजात दिलाने के फैसले के साथ ही वीर लौरिक यहीं रह गये थे. उसी समय मां देवी वन दुर्गा के परम उपासक वीर लौरिक ने उपासना के लिए हरदी में मां भगवती की स्थापना कर पूजा-अर्चना शुरू की थी. तब से लेकर अब तक इस स्थल पर मां की पूजा-अर्चना नियमित रूप से की जाती है.

 

उदासीन है पर्यटन व पुरातत्व विभाग : धार्मिक स्थल व धरोहरों के लिए कोसी क्षेत्र की अपनी एक गौरवमयी इतिहास है. कोसी क्षेत्र के गर्भ में एक से बढ़कर एक देवी-देवता के मंदिर हैं. लेकिन पर्यटन विभाग के पास ऐसे धरोहरों को संजोने व विकसित करने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है. यही वजह है कि पांडवों के अज्ञातवाशकाल के दौरान जिले के हरदी गांव में स्थापित पिंड रूपी मां देवी वन दुर्गा मंदिर आज भी उपेक्षा का दंश झेल रहा है. वैसे कहा जाता है कि राज्य व केन्द्र सरकार ने वर्ष 2005 में युनेस्को की मदद से इसके जीर्णोद्धार के लिए विस्तारित कार्य योजना बनाये जाने की चर्चा इलाके के प्रबुद्धजन करते हैं. लेकिन वह कार्य योजना फाइल में ही सिमट कर रह गयी.

 

प्रधानमंत्री नेहरू के भी पड़े हैं कदम

 

सबसे चौकाने वाली बात तो यह है की भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने प्रथम कार्यकाल में ही मां देवी वन दुर्गा की पूजा-अर्चना करने आये थे. जिसका जिक्र नेहरू जी द्वारा लिखित पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में दर्शाया गया है. इतना ही नहीं नेहरू जी के द्वारा लिखित पुस्तक में मां देवी वन दुर्गा हरदी स्थान के महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है. जाहिर सी बात है कि इस स्थल पर देश के प्रधानमंत्री भी आये थे. लेकिन सरकार के द्वारा इस स्थल की ओर ध्यान नहीं दिया जाना कहीं न कहीं इस क्षेत्र के लिए उदासीनता को दर्शाता है.

 

मां पार्वती के हृदय का गिरा था कुछ अंश

 

पंडितों के अनुसार मां पार्वती के पिता राजा दक्ष के द्वारा विश्व विजेता यज्ञ का आरंभ किया गया था. जिसमें सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया. लेकिन संसार के संहारकर्त्ता बाबा भोलेनाथ को इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया गया था. पार्वती जी की जिद पर शंकर जी भी यज्ञ स्थल पर पहुंच गये. पार्वती जी ने देखा की आये हुये देवी-देवताओं को राजा दक्ष के द्वारा आग्रह कर के बैठाया जा रहा है. लेकिन उनके महादेव जी को किसी ने बैठने का आग्रह नहीं किया. इस बेइज्जती के बाद पार्वती जी ने गुस्से में आकर यज्ञ को भंग करने के ख्याल से हवन कुंड में कुद गयी. उसके बाद गुस्से में आकर महादेव जी ने तांडव नृत्य शुरू कर दिया और पार्वती जी के अधजले शरीर को अपने त्रिशुल से इक्यावन टुकड़ों में विभक्त कर दिया. मान्यताओं के मुताबिक उसी टुकड़ों में से मां पार्वती के हृदय के कुछ अंश इस मां वन देवी दुर्गा स्थान में गिरा था. तब से इस जगह का नाम मां वन देवी दुर्गा हृदय नगर पड़ गया था. जो बाद में हृदय नगर से हरदी हो गया.

 

शक्तिपीठ के रूप में चर्चित है हरदी

 

यह भी कहा जाता है कि 07 वीं शताब्दी के आस-पास बंगाल के राजा व पालवंश के संस्थापक गोपाल आर्य का यहां राजधानी एवं सबसे बड़ी सैनिक छावनी हुआ करता था. यह स्थल आज भी एक प्रसिद्ध शक्ति पीठ के रूप में देश-विदेश में भी चर्चित है. कहते हैं कि राजा महिचन्द साह जिनका साक्ष्य आज भी यहां महिचंदा गढ़ी व महिचंदा गांव के नाम से प्रसिद्ध है. राजा महिचन्द साह ने सेनापति बेंगठा चमार, बारूदी चौकीदार, सजल धोबी और सांभर को साथ लेकर हरदी के राजा महबैर को न केवल पराजित किया बल्कि अपना साम्राज्य स्थापित किया और एक कुशल प्रजा पालक राजा के रूप में विख्यात हुए. इतना ही नहीं हरदी स्थान से 2 किमी पूरब रामनगर सीमा क्षेत्र स्थित वीर लौरिक के नाम से 15 डिसमील जमीन आज भी दस्तावेज में दर्ज है. जिसे लौरिकडीह के नाम से जाना जाता है

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