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भारत-चीन सीमा विवाद हिमालय के जलवायु को नुकसान पहुंचा रहा है!

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नई दिल्ली। हिमालय के बहुत सारे इलाकों में जलवायु संबंधी स्थानीय आंकड़े वैज्ञानिक समुदाय को साझा नहीं हो पाते हैं जो दोनों देशों के लिए हितकारी है। हिमालय में बहुत सारी जगहों पर पर्यावरण संबंधी आकंड़े जमा किए जाते हैं जो बहुत उपयोगी होते हैं.
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद 50 साल से ज्यादा पुराना है. कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश के बीच हिमालय का बहुत सारा हिस्सा भारत और चीन की बीच सीमा बनाता है. हिमालय भारत और उसके आसपास के देशों की जलवायु के निर्धारण और उसके बदलाव में अहम भूमिका ही नहीं निभाता, इसके साथ ही वह पूरे क्षेत्र के जलवायु परिवर्तन के संकेतों को भी समेटे रखता है. इन संकेतों को आंकड़े भारत-चीन विवाद के कारण हासिल नहीं हो पा रहे हैं जबकि दोनों देशों को यहां के वैज्ञानिक आंकड़ों को साझा करने से बहुत फायदा हो सकता है.
हिमालय पर आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑबजर्वेशनल साइंसेस जैसे संस्थान वहां की हवा और आसमान की निगरानी लंबे समय से कर रहे हैं. हिमालय की तलहटी में जमा होने वाली प्रदूषित हवा जो मानसून में मैदानी इलाकों से आती है. अनडार्क की रिपोर्ट के मुताबिक एरीज संस्थान से बहुत से ऐसे उपयोगी आंकड़े मिल सकते हैं.
हिमालय की संवेदनशीलता
दरअसल, अफगानिस्तान से म्यानमारतर हिंदुकुश हिमालय इलाका 2000 मील लंबा पर्वतीय क्षेत्र है जिसमें दुनिया की सबसे ऊंची पर्वतीय चोटियां हैं. इसके खास जलवायु हालात के कारण यहां की चोटियां ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव में आकर तेजी से गर्म हो रही हैं. यदि पृथ्वी 1.5 डिग्री सेल्सियस के न्यूनतम अनुमानों के तरह ही गर्म हुई तो भी इन इलाकों के एक तिहाई ग्लेशियर इस सदी के अंत तक गायब हो जाएंगे जिन पर दुनिया के एक अरब लोगों का जीवन निर्भर है.
सीमा विवाद ना केवल आंकड़े साझा करने में परेशानी होती है, बल्कि उन्हें जमा करने में भी दिक्कत होती है हिमालय में हवा और मौसम की स्थानीय जानकारी इकठ्ठा करते हैं और अंतरराष्ट्रीय टीम से उसके आंकड़े साझा करते हैं जिसका उपोयग व टीमें कम्प्यूटर के जरिए वैश्विक स्तर पर जलवायु के पैटर्न, प्रभाव आदि का अध्ययन कर अपने अनुमानों की जांच करती हैं.
इसके आंकड़े साझा ना हो पाना लेकिन स्थानीय स्तर के ऐसे आंकड़े हमेशा साझा नहीं हो पाते. इलाके की प्राकृतिक जटिलताओं के अलावा सीमा विवाद इसमें सबसे बड़ी बाधा है. इससे पहले भी कूटनीतिक नाकामियों के कारण वैज्ञानिकों को सीमा पार पिरिस्थिकी तंत्रों के प्रोजेक्ट पर काम करना मुश्किल होता रहा है. पिछले साल मई में हुए सीमा विवाद के कारण ऐसी कई प्रक्रियाओं को बाधा पहुंचाने वाला रहा जो जो उस इलाके में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए बनाई गईं थीं और दोनों देशों के बीच साझा भी की जा रही थीं.
हिमालय के ग्लेशियरों पर दक्षिण एशिया के एक अरब लोगों की निर्भरता है.
बड़ी बाधा से समस्या
नेपाल में स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) हिमालय के हिंदुकुश इलाके आठ देशों के साथ काम करती है जो वहां के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए काम करती है. सीमा विवाद जैसी समस्याएं उनके काम में सीधे तौर पर बाधा डालती हैं. इसके पूर्व निदेशक डेविड मोल्डन का कहना है कि ऐसे मामलों में कई छोटी परियोजनाओं की बलि तक चढ़ जाती है.
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वैज्ञानिक जोर देते हैं कि शोध और आंकड़ों को साझा करने को सैन्य विवादों से अलग करना बहुत जरूरी है. इससे हिमालयक के सभी देश जलवायु परिवर्तन के साझा खतरे निपट सकते हैं. ऐसा ही बहुत से चीन शोधकर्ता भी शिद्दत से महसूस करते हैं जिन्हें अपने शोध के लिए भारतीय इलाकों के आकंड़ों की जरूरत होती है. लेकिन राजनैतिक दखलंदाजी भी दोनों देशों के लिए समस्या ही बनी है.

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