(भाग:101) ईश्वर चराचर जगत में सर्वव्यापक परमात्मा अगोचर अनंन्त साकार एवं निराकार ब्रह्म स्वरूप है

भाग:101) ईश्वर चराचर जगत में सर्वव्यापक परमात्मा अगोचर अनंन्त साकार एवं निराकार ब्रह्म स्वरूप है

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट

श्रीमद्-भगवत गीता के अनुसार हम अपने शरीर व संसार को देखते हैं तो विवेक बुद्धि से यह निश्चय होता है कि यह अपौरुषेय रचनायें हैं जिन्हें ईश्वर नाम की एक सत्ता ने बनाया है। वह ईश्वर आकारवान या साकार तथा एकदेशी वा स्थान विशेष में रहने वाला कदापि नहीं हो सकता। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। उसको सृष्टि की रचना करने तथा प्राणियों के मनुष्यादि शरीरों को बनाने सहित अन्न व वनस्पतियों आदि को बनाने का भी ज्ञान है। जब हम इस ब्रह्माण्ड की विशालता को देखते हैं तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान भी है। वह उत्पत्तिधर्मा अर्थात् जन्म-मरण के बन्धनों से सर्वथा मुक्त सत्ता है। जिसका जन्म व मरण होता है उसका कारण उस चेतन सत्ता के इच्छा व द्वेष अथवा राग-द्वेष आदि के वश में किये गये पूर्व कर्म होते हैं। यदि ईश्वर को भी ऐसा मानेंगे तो वह ईश्वर न होकर एक साधारण मनुष्य के समान हो जायेगा। संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। एक ज्ञानी व दूसरे अज्ञानी वा अल्पज्ञानी। ईश्वर को साकार व एकदेशी मानना अल्पज्ञानी मनुष्यों की कल्पना ही कही जा सकती है।

जो मनुष्य तपस्वी न हो, जिसको उच्च कोटि के ऋषि, मुनि, विद्वान व आप्तपुरुष आचार्य के रूप में प्राप्त न हों, वह मनुष्य सत्यासत्य को भली प्रकार से नहीं जान सकता। तपस्वी और योगी होने तथा श्रेष्ठ आदर्श आचार्य को प्राप्त होकर मनुष्य में विवेक ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे वह संसार के प्रायः सभी रहस्यों को भली प्रकार से जान सकता है। आज शिक्षित व्यक्ति बहुत हैं परन्तु इन सबको विवेक ज्ञान सुलभ नहीं है। इसका कारण इनका केवल भौतिक विद्याओं का अध्ययन करना होता है। भौतिक विज्ञान से मनुष्य अभौतिक सत्ता ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अभौतिक सत्तायें ईश्वर व जीवात्मा आदि अत्यन्त सूक्ष्म हैं जिन्हें आंखों से न तो देखा जा सकता है और न ही इन्हें शब्द, गन्ध, स्पर्श व रस इन्द्रियों के द्वारा पहचाना व जाना जा सकता है। अतः ईश्वर व आत्मा का ज्ञान व साक्षात्कार तो सिद्ध योगी, तपस्वियों व वेद के ज्ञानियों की शरण में जाकर ही हो सकता है। मध्यकाल का समय अज्ञान का समय था। इस बात का ज्ञान प्रायः सभी लोगों को है। वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति ग्रन्थ सभी को प्राप्त व सुलभ नहीं थे। इन वेदादि ग्रन्थों के सत्यार्थ भी देश देशान्तर के लोगों व आचार्यों को विदित नहीं थे। अतः वह ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप, जो कि अनादि व नित्य है, जान पाने में असमर्थ रहे। इस क्षेत्र में ऋषि दयानन्द को सफलता इस कारण से मिली कि वह वेदों के व्याकरण और महर्षि यास्क के निरुक्त ग्रन्थ को प्राप्त हुए। इसका उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया और अपने योग एवं तप के बल पर वह ईश्वर व आत्मा सहित संसार के सत्य रहस्यों को जानने में सफल हुए। इसके साथ ही उन्हें वेद व समस्त वैदिक वांग्मय भी उपलब्ध हुआ जिसके सत्यार्थ भी उन्होंने अपने विद्या व योग की उपलब्धियों से साक्षात् किये। इसी कारण वह सत्योपदेश करने सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि साहित्य दे सके। उनका दिया गया साहित्य सत्य की कसौटी पर पूर्णतः खरा है। सभी विद्वान अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरुक्त आदि ग्रन्थों को पढ़कर तथा सिद्ध योगी व तपस्वी बनकर ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों की सत्यता की पुष्टि कर सकते हैं। इसके लिये उनका पूर्णतः निष्पक्ष होना भी आवश्यक है।

वेद ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है। वेद ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। इन ऋषियों को सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर ने एक-एक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान ईश्वर ने इन ऋषियों की आत्मा के भीतर अन्तर्यामीस्वरूप वा जीवस्थ-स्वरूप से आत्मा में प्रेरणा देकर स्थापित किया था। सभी ऋषि पवित्र व शुद्ध आत्मा थे, इसलिये वह ईश्वर द्वारा प्रेरित वेदों के ज्ञान को अपने चित्त में धारण कर सके व उसे स्मरण रख सके। इसके बाद इन ऋषियों व अन्य ऋषि ब्रह्माजी के द्वारा वेदाध्ययन, वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हुई जो अद्यावधि जारी है। वेद ईश्वर द्वारा दिया गया ज्ञान है, इसकी पुष्टि वेदों की अन्तःसाक्षी से होती है। वेदों की कोई भी बात, तर्क, युक्ति, ज्ञान व विज्ञान के विरुद्ध नहीं है। वेदों में ईश्वर, आत्मा व सृष्टि सहित सृष्टि के सभी पदार्थों का ज्ञान है। वेदों का ज्ञान जैसा सृष्टि में है, पूरा वैसा ही उपलब्ध होता है। इससे वेद सर्वांगपूर्ण व सत्य सिद्ध होते हैं। ऐसा ग्रन्थ संसार में दूसरा कोई नहीं है। कोई मनुष्य कितना भी ज्ञानी क्यों न हो जाये, वास्तविकता यह है कि बिना वेद पढ़े कोई ज्ञानी नहीं हो सकता। वह वेद में उपलब्ध ज्ञान से अधिक बुद्धिमान व ज्ञानी तो कदापि नहीं हो सकता। ऐसा होना सर्वथा असम्भव है।

मनुष्य अल्पज्ञ अर्थात् अल्पज्ञानी होता है। उसकी रचना व ग्रन्थ कभी भी सर्वज्ञ ईश्वर व उसके ज्ञान वेद के समान नहीं हो सकते। ऐसा होना असम्भव है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को ईश्वर व उसके ज्ञान वेद पर विश्वास करना चाहिये और मनुष्यकृत ग्रन्थों को उसी सीमा तक मानना चाहिये जिस सीमा तक वह शुद्ध वेदज्ञान के अनुकूल हों। इस नियम को अज्ञानी तथा दुराग्रही मनुष्य अपने अविद्यादि दोषों के कारण स्वीकार नहीं करते। यदि ऐसा होता तो आज पूरे विश्व में वेदमत ही प्रचलित होता और अविद्यायुक्त मतों का त्याग कर दिया गया होता। अतः ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान वेदों को विश्व में सर्वत्र प्रचलित करने में कितना समय लगेगा, कहा नहीं जा सकता? यह तो ईश्वर की अपनी कृपा व प्रेरणा पर निर्भर करता है। जो भी हो, परन्तु संसार में सभी मनुष्यों के सत्यवादी व सत्याचारी न होने से वह सदाचारी व धार्मिक लोगों को पीड़ा देते रहते हैं। आज यह स्थिति शिखर पर पहुंची हुई दिखाई दे रही है जिसमें धार्मिक, सदाचारी, निष्पक्ष लोग दुःख पा रहे हैं। हमने तीन वर्ष सन् 2020 में देखा कि सभी मतों के लोग व वैज्ञानिक एक छोटे से वायरस केरोना से पीड़ित थे। ज्ञान का दम्भ भरने वाले इन सब लोगों के पास कोरोना जैसे तुच्छ वायरस और उसकी चिकित्सा वा निवृत्ति का ज्ञान नहीं था। इनसे बचाव के साधनों का ही प्रचार किया गया तथापि लोग वायरस से संक्रमित होते रहे। पूरे विश्व के धार्मिक ज्ञानी एवं वैज्ञानिकों को ईश्वर के बनाये एक केरोना वायरस ने पराजित कर दिया था। ऐसी अवस्था में भी जो ईश्वर के सत्यस्वरूप को नहीं मानता, उसे मननशील, ज्ञानी एवं सत्याचारी मनुष्य कदापि नहीं कह सकते।

इस सृष्टि, मानव व मानवेतर शरीरों तथा वनस्पतियों व अन्न आदि पदार्थों को देखकर ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। हम यह भी जानते हैं कि अभाव से भाव व भाव से अभाव की उत्पत्ति नहीं होती। अतः ईश्वर व जीवात्मा एक अनादि व नित्य तथा कभी अभाव व नाश को प्राप्त न होने वाली सत्तायें सिद्ध होती हैं। ईश्वर है तो उसका निश्चित स्वरूप भी है ही। वह साकार है व निराकार? ईश्वर साकार नहीं हो सकता, इसका कारण यह है कि साकार वस्तु सीमित होती है। ईश्वर का यह विशाल ब्रह्माण्ड उसे निराकार व सर्वव्यापक सिद्ध करता है। रचना व क्रिया उसी देश व स्थान विशेष पर होती है जहां क्रिया करने वाली सत्ता विद्यमान हो। ईश्वर की क्रियायें पूरे ब्रह्माण्ड में दृष्टिगोचर होती हैं अतः वह सर्वव्यापक व सर्वदेशी सिद्ध होता है। निमित्त कारण साकार सत्ता से सृष्टि व शरीरों के परमाणु व अणु नहीं बन सकते। साकार को बनाने वाला पूर्णतः साकार नहीं हो सकता। ईश्वर मां के गर्भ में भी रचना करता है। अतः उसका गर्भ के अन्दर व बाहर दोनों स्थानों में होना आवश्यक है। जबकि साकार वस्तु बाहर से ही रचना कर सकती है। सर्वव्यापक व निराकार ईश्वर ही संसार की सभी वस्तुओं के अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर होता है। अतः ईश्वर सदा, सर्वदा, हर स्थिति में निराकार ही होता है। वेदों में भी उसे निराकार बताया गया है। सर्वव्यापक वस्तु कभी भी साकार नहीं हो सकती। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के साकार व निराकार होने या न होने की अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में समीक्षा की है। वहां यह सिद्ध किया गया है कि ईश्वर निराकार ही होता है। अतः ईश्वर को साकार मानने वालों को निष्पक्ष बुद्धि से निर्णय करना चाहिये।

ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक होने से पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है। अतः वह एकदेशी व किसी स्थान विशेष पर रहने वाला नहीं हो सकता। वह सभी मानवों के शरीर में भीतर व बाहर विद्यमान होता है। वह निराकार स्वरूप से ही सृष्टि को बनाता, पालन करता व प्रलयकर्ता है। अतः किसी दुष्ट व पापी को मारना तथा अन्य किसी भी कार्य को करने के लिये उसे जन्म लेने व एकदेशी होने की आवश्यकता नहीं है। सर्वव्यापक होने से वह कहीं न तो जाता है और न कहीं आता है। वह पृथिवी पर भी है, आकाश में भी, सागर में भी और पहले दूसरे से लेकर हजारवें व करोड़वे आसमान पर भी है। अतः उसे किसी एक स्थान पर मानना और उसका पता न बताना व उससे संवाद आदि न करना कराना उसके एकदेशी होने को असत्य सिद्ध करते हंै। ईश्वर को सर्वव्यापक व सर्वदेशी मानने से सृष्टि के सभी रहस्य सुलझ जाते हैं। यह मान्यता ज्ञान व विज्ञान से भी पोषित है। अतः ईश्वर सर्वव्यापक होने से सभी स्थानों में है। मनुष्यों की तरह से उसका अपना शरीर नहीं है। वह घट-घट का वासी है। ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार कोई भी योगी अपनी आत्मा में कर सकता है। ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य होता है। योग का उद्देश्य ही चित्त की वृत्तियों को नियंत्रित कर ईश्वर का साक्षात्कार करना होता है। न केवल महर्षि दयानन्द अपितु उनसे पूर्व सहस्रों ऋषियों व योगियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया है। यह साक्षात्कार पृथिवी पर रहकर ही होता है। अतः ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वदेशी, सर्वत्र विद्यमान होना सिद्ध होता है। ऐसा ही सब मत-मतान्तरों व धार्मिक मनुष्यों को मानना चाहिये। इसी में सबका कल्याण है और इसके विपरीत मानने में लाभ किंचित नहीं अपितु हानि है। ओ३म् शम्।

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