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(भाग:113) जो तुमने काल्पनिक और अमर्यादित सोचा वह तुम्हारे अहंकार का विस्तार है?

भाग:113) जो तुमने काल्पनिक और अमर्यादित सोचा वह तुम्हारे अहंकार का विस्तार है?

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट

महागीता का मौलिक संदेश एक है कि चुनाव संसार है। अगर तुमने संन्यास भी चुना, तो वह भी संसार हो गया। जो तुमने चुना, वह परमात्मा का नहीं है; जो अपने से घटे, वही परमात्मा का है। जो तुमने घटाना चाहा, वह तुम्हारी योजना है; वह तुम्हारे अहंकार का विस्तार है। तो महागीता कहती है: तुम चुनो मत–तुम सिर्फ साक्षी बनो। जो हो, होने दो। बाजार हो तो बाजार; अचानक तुम पाओ कि चल पड़े जंगल की तरफ, चल पड़े–नहीं चुनाव के कारण; सहज स्फुरणा से–तो चले जाओ। सहज स्फुरणा से चले जाना जंगल एक बात है; चेष्टा करके, निर्णय करके, साधना करके, अभ्यास करके जंगल चला जाना बिलकुल दूसरी बात है। महागीता कहती है: चुनो मत! क्योंकि चुनोगे तो अहंकार से ही चुनोगे न? चुनोगे तो ‘मैं’ करने वाला हूं–कर्ता हो जाओगे न! महागीता कहती है: न कर्ता, न भोक्ता–तुम साक्षी रहो। ओशो
अध्याय शीर्षक
#1: ज्ञान मुक्ति है
#2: एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे!
#3: दृष्टि ही सृष्टि है
#4: कितनी लघु अंजलि हमारी
#5: दृश्य स्वप्न है, द्रष्टा सत्य है
#6: स्वतंत्रता की झील: मर्यादा के कमल
#7: वासना संसार है, बोध मुक्ति है
#8: बोध से जीओ–सिद्धांत से नहीं
#9: ध्यान अर्थात उपराम
#10: संन्यास बांसुरी है साक्षीभाव की
विवरण
अष्टावक्र-संहिता के सूत्रों पर प्रश्नोत्तर सहित पुणे में हुई सीरीज के अंतर्गत दी गईं अष्टावक्र : महागीता एकटि नमस्कारे प्रभु, एकटि नमस्कारे!
अष्टावक्र ने जनक को कहा कि सब अनुष्ठान बंधन हैं। बिलकुल ठीक कहा। लेकिन तुम यह याद रखना कि यह नाव उस किनारे पहुंच गई है, तब कहे गए वचन हैं। इसलिए मैंने इसको महागीता कहा। कृष्ण की गीता को मैं सिर्फ गीता कहता हूं; अष्टावक्र की गीता को महागीता। क्योंकि कृष्ण की गीता अर्जुन से कही गई है–इस किनारे पर। वह नाव पर सवार ही नहीं हो रहा है। वह भाग-भाग खड़ा हो रहा है। वह कह रहा है, ‘मुझे संन्यास लेना है। मैं नाव पर नहीं चढ़ता। क्या सार है? मुझे जाने दो।’ वह भाग रहा है। वह कहता है, ‘मेरे गात शिथिल हो गए। मेरा गांडीव ढीला हो गया। मैं नहीं चढ़ना चाहता।’ वह रथ पर बैठा है, सुस्त हो गया है। वह कहता है, नाव पर मुझे चढ़ना ही नहीं। कृष्ण उसे पकड़-पकड़ कर, समझा-समझा कर नाव पर बिठाते हैं। कृष्ण की गीता सिर्फ गीता है; इस किनारे अर्जुन को नाव पर बिठा देना है। अष्टावक्र की गीता महागीता है। यह उस किनारे की बात है। ये जनक उस किनारे हैं, लेकिन नाव से उतरने को शायद तैयार नहीं; या नाव में बैठे रह गए हैं। बहुत दिनों तक नाव में यात्रा की है, नाव में ही घर बना लिया है।

अष्टावक्र कहते हैं: उतर आओ। सब अनुष्ठान बंधन हैं, अनुष्ठान छोड़ो!

कृष्ण कहते हैं: उतरो संघर्ष में, भागो मत! सब परमात्मा पर छोड़ दो। वह जो करवाए, करो। तुम निमित्त-मात्र हो जाओ। इस नाव में चढ़ना ही होगा। यही तुम्हारी नियति, तुम्हारा भाग्य है।

अगर अर्जुन नाव में चढ़ जाए–चढ़ ही गया कृष्ण की बात मान कर–तो खतरा है, वह भी बड़ा तर्कनिष्ठ व्यक्ति था। एक दिन उसको फिर अष्टावक्र की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि वह उस किनारे जाकर उतरेगा नहीं। जितना विवाद उसने चढ़ने में किया था, उससे कम विवाद वह उतरने में नहीं करेगा, शायद ज्यादा ही करे। क्योंकि वह कहेगा, कृष्ण चढ़ा गए हैं। अब उतरना एक तरह की गद्दारी होगी। यह तो अपने गुरु के साथ धोखा होगा। बामुश्किल तो मैं चढ़ा था, अब तुम उतारने आ गए? मैं तो पहले ही कह रहा था कि मुझे चढ़ना नहीं है। यह भी क्या खेल है? और अष्टावक्र कहते हैं: सब अनुष्ठान बंधन हैं–ध्यान बंधन है, धारणा बंधन है, योग बंधन है, पूजा-प्रार्थना बंधन है–सब बंधन हैं।

कृष्ण की गीता उसके लिए है जो अभी अ ब स सीख रहा है अध्यात्म का। अष्टावक्र की गीता उसके लिए है जिसके सब पाठ पूरे हो गए, दीक्षांत का समय आ गया। कृष्ण की गीता दीक्षारंभ है। अष्टावक्र की गीता दीक्षांत-प्रवचन है। इन दोनों गीताओं के बीच में सारी यात्रा पूरी हो जाती है। एक चढ़ा देती है अनुष्ठानों में, एक उतार लेती है अनुष्ठानों से। एक बताती है गणेश को कैसे निर्मित करो, कैसे भाव-भक्ति से, कैसे रंग भरो; एक बताती है, कैसे नाचते, गीत गुनगुनाते विसर्जित करो।

ऐसा जन्म और मृत्यु के बीच जीवन है, ऐसे ही नाव में चढ़ने और नाव से उतरने के बीच परमात्मा का अनुभव है। ओशो
इस पुस्तक में ओशो निम्नलिखित विषयों पर बोले हैं:

ज्ञान, स्वप्न, स्वतंत्रता, त्याग, बोध, सिद्धांत, ध्यान, अहंकार, साक्षीभाव, कृष्णमूर्ति

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