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(भाग:265) अपने पुत्र लव-कुश को जन्म शिक्षा और संस्कार देकर अंतत: माता सीता धरती में समा गई?

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भाग: 265) अपने पुत्र लव-कुश को जन्म शिक्षा और संस्कार देकर अंतत: माता सीता धरती में समा गई?

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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देवी सीता माता धरती से ही प्रकट हुई थीं और अंत में धरती में ही समा गईं। जिस स्थान पर देवी सीता भूमि में समाई थीं उस स्थान को लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार देवी सीता जहां धरती में समाई थीं वह स्थान आज नैनीताल में है। इस स्थान का रामायण में बड़ा महत्व है क्योंकि यहीं पर देवी सीता ने अपने जुड़वां पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया था। यह स्थान ऐसा है जहां आकर आप हैरान रह जाएंगे क्योंकि घने जंगलों के बीच में जहां जमीन पर कदम रखना भी खतरनाक माना जाता है क्योंकि कभी भी बाघ का हमला हो सकता है और मतवाले हाथी आक्रमण कर सकते हैं वहां एक खुले मैदान में देवी सीता का मंदिर है।

जब श्रीराम ने माता सीता को अयोध्या से निकाला

देवी सीता के जीवन से संबंधित यह स्थान नैनीताल का जिम कार्बेट नेशल पार्क है जो बाघों के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित है। यहां कभी महर्षि बाल्मीकि का आश्रम हुआ करता था। भगवान राम द्वार देवी सीता को अयोध्या से निकाले जाने के बाद लक्ष्मणजी देवी सीता को यहीं छोड़ आए थे। यहीं पर देवी सीता ऋषि के आश्रम में रहीं इसलिए इस स्थान को सीताबनी के नाम से जाना गया।

रामायण की कथा के अनुसार जिस समय भगवान राम ने देवी सीता को वनवास का आदेश दिया था उस समय देवी सीता गर्भवती थीं। ऋषि बाल्मीकि के आश्रम में ही इन्होंने अपने जुड़वां पुत्रों को जन्म दिया था और इनका पालन-पोषण किया था। इस घटना की याद मेंं सीताबनी में देवी सीता की प्रतिमा के साथ उनके दोनों पुत्रों को भी दिखाया गया है।

इन धर्म ग्रंथों में मिलता है सीताबनी का जिक्र

सीताबनी का उल्लेख कई धर्म ग्रंथों में मिलता है। रामायाण, स्कंदपुराण और महाभारत में भी इस तीर्थ के महत्व को दर्शाया गया है। महाभारत के 83वें अध्याय में वर्णित श्लोक संख्या 49 से 60 श्लोक तक सीताबनी का उल्लेख किया गया है।

 

स्कंदपुराण में मिलता है यह वर्णन

 

स्कंदपुराण में जिन सीतेश्वर महादेव की महिमा का वर्णन किया गया है, वह यहीं विराजित हैं। स्कंदपुराण के अनुसार, कौशिकी नदी, जिसे वर्तमान में कोसी नदी कहा जाता है के बाईं ओर शेष गिरि पर्वत है। यह सिद्ध आत्माओं और गंधर्वों का विचरण स्थल है।

यहां सीता को वन में छोड़ा था लक्ष्मणजी ने

इसी के पास स्थित है लक्ष्मणपुरा। लक्ष्मणपुरा वह स्थान बताया जाता है, जहां लक्ष्मणजी देवी सीता को अपने रथ से उताकर वन में छोड़ गए थे। तब उदास सीता ने बाल्मीकि ऋषि के आश्रम में शरण ली थी

 

विष्णु के अवतार राम जो अयोध्या नगरी के राजा थे, उनकी पत्नी सीता माता थी, जब सीता माता को 14 साल का बनवास हुआ था तब लंका के राजा रावण का हरण करके ले गए थे तो वहां से लौटने के बाद राम भगवान ने उनकी एक परीक्षा ली कि उन्हें अग्नि को पार करना होगा, इस परीक्षा में भी सीता माता पास हो गई फिर वह अयोध्या नगरी आ गई और राजा राम अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठ गए और फिर वहां की जनता ने सीता को रावण के यहां रहने वाली एक दासी कहकर विरोध किया ,तो राजा राम ने उनको सीता बनवास लगा के घर से निकाली थी और वह ऋषि बाल्मीकि के यहां जा बसी , उनके वहां दो पुत्र हुए लव और कुश जब वह बड़े हो गए तो उनका जब राम से युद्ध हुआ त

 

माता सीता धरती में क्यों समा गई?

🌹 बहुत ही मार्मिक प्रश्न है। आइए इसका विवेचन करते हैं।राम के विजय में सीता के सत्याग्रह की बड़ी भूमिका रही है। राम के साथ वानर-भालुओं की सेना थी, सुग्रीव और विभीषण, हनुमान और जांबवान, अंगद जैसे मंत्री और महावीर थे, लक्ष्मण जैसा तेजस्वी शूरवीर भाई था। सीता का प्रतिरोध एक अकेले व्यक्ति का सत्याग्रह था। उसके पास तो बस चरित्र का बल था। राम की विजय सीता के इस एकाकी सत्याग्रह पर निर्भर थी। सीता यदि रावण के आगे समर्पण कर देती तो राम का सारा पुरुषार्थ, सारा बल – विक्रम, सारा सैनिक बल धरा रह जाता। सीता राम की शक्ति है। “सीता सुरुजवा क जोति” – जिस पुरखिन ने यह गीत रचा होगा, वह सीता और राम के चरित्र का मर्म जान गई थी।

 

राम सूर्य वंश के थे तो सीता पृथ्वी कुल की। समस्त वनस्पतियों को उष्मा सूर्य से मिलती है। पृथ्वी का जल खीच-खीच कर सूर्य मेघों के घड़े भर-भर कर उन्हें सींचता है। सूर्य उन्हें रंग देता है तो पृथ्वी उसे गंध देती है। प्राण का शक्ति-प्रवाह पृथ्वी से लेकर आकाश तक निरन्तर गतिशील है। सबके सब प्राणी सूर्यवंशी हैं, सबके सब पृथ्वी कुल के हैं। हम सब एक ही गोत्र के है – सौर-पार्थिव गोत्र के। सूर्य हमारे पिता हैं, पृथ्वी हमारी माता। यह तो रही महत्ता की बात, अब प्रश्न पर चलते हैं।

 

 

सीता के धरती में समा जाने की लम्बी कथा है। सीता भूमि पुत्री है। वाल्मीकि रामायण में इसका विस्तृत उल्लेख है। राजा राम के दरबार में मुनिवर वाल्मीकि सीता को साथ लेकर आते है और कहते हैं – ‘लोकोपवाद से भयभीत आपको यह अपनी शुद्धता का विश्वास दिलाएगी। मैने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया था कि इसका भाव शुद्ध है तभी यह मेरे आश्रम में प्रवेश कर सकी। यह आप को प्रिय है, आप भी जानते हैं कि यह शुद्ध है फिर भी लोकोपवाद के भय से आप की बुद्धि कलुषित हो गई है और आपने इसका त्याग कर दिया- ‘लोकोपवाद-कलुषीकृत चेतसा या त्यक्ता त्वया प्रियतमा विदितापि शुद्धा।’ (उत्तर. ९६/२४)

 

राम ने मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि की बातों का समर्थन करते हुए कहा- आपने सीता के बारे में जो कुछ कहा है वह सही है लेकिन समाज के आगे शुद्धता प्रमाणित होने पर ही वैदेही में मेरी प्रीति हो सकती है – ‘शुद्घायां जगतो मध्ये वैदेह्याम प्रीतिरस्तु मे।’

 

और तब सीता ने अपनी दृष्टि और अपना मुख नीचे किए हुए हाथ जोड़ कर बोली –

 

यथाहं राघवा दन्यम मनसापि न चिंतये।

 

तथा में माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।।

 

मनसा धर्मणा वाचा यथा रामम समर्चये।

 

तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।।

 

यथैतम सत्यमुक्तम मे वेदमि रामात परम न च।

 

तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति ।।

 

(रामायण,उत्तर.९७/१४-१६)

 

यदि मैंने राघव के सिवा किसी अन्य पुरुष का मन से भी चिन्तन न किया हो तो पृथ्वी देवी मुझे विवर प्रदान करें। यदि मैं मन, कर्म और वचन से केवल राम की अर्चना करती हूं तो पृथ्वी देवी मुझे विवर प्रदान करें। मैं राम को छोड़ अन्य किसी पुरुष को नहीं जानती – यदि मेरी कही हुई बात सत्य हो तो पृथ्वी देवी मुझे विवर प्रदान करें।

 

संताप जब असह्य हो जाता है तो मन मुक्ति चाहता है। वैसा ही हुआ, सीता के शपथ करते ही भूतल से एक अद्भुत दिव्य सिंहासन उठकर ऊपर आया और पृथ्वी देवी मैथिली सीता को अपने सिंहासन पर बैठाकर धरती में समा गई।

 

सीता वनवास का प्रसंग वाल्मीकि के बाद अनेक कवियों को खटकता है। उन्होंने अपने – अपने ढंग से उसका मार्जन करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि में भवभूति अतुलनीय हैं। उन्होंने सीता के निंदकों को खलनायक की भूमिका में डालकर, राम और सीता के आपसी प्रेम की जो अंत: सलिला प्रवाहित की है उसमें सारी जलन, सारा विष, सारा त्रास शमित हो जाता है। राम के सच्चे अनुताप में समाज और राजनीति की कसी हुई गाठें गल जाती हैं और रह जाता है केवल प्रेम और करुणा का शीतल अमृत ! तुलसीदास की पूरी सहानुभूति सीता के प्रति है और वे पिता की आयु -भोग की युक्ति के द्वारा राम को बचा भी ले जाते हैं। उन्होंने सीता और राम के ‘परम पावन प्रेम-परमिति’ को ठीक से समझकर ही इस चरित का गान किया है। इसीलिए उन्होंने ‘मानस’ में न सीता वनवास का प्रसंग दिया, न भूमि प्रवेश का !

 

सीता के धरती में समा जाने की घटना का उल्लेख हमारे यहां के लोकगीतों में भी मिलता है :,

 

सीता अखियां में भरलीन बिरोग एकटक देखिन।

 

सीता धरती में गई समाय, कुछौ नाहीं बोलिन ।।

 

(कविता- कौमुदी)

 

सीता जीवनभर की नाराजगी, जीवन भर की जलन, जीवन भर की शिकायत आंखों में भरे हुए एकटक देखती रही और धरती में समा गई।

 

इस गीत के संदर्भ में रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है, “करुण रस का जैसा सुन्दर चित्र इस गीत में है वैसा किसी महाकवि की कविता में नहीं मिलता। भवभूति की कविता में भी नहीं।

 

खड़ी बोली (कौरवी) में इस घटना से संबंधित गीत है :

 

फट जा री धरती समा जा री सीता केसों की हो गई दूब हो राम।

 

इस रे पुरुष का मुख नहीं देखूं जीवत दिया बनवास हो राम।।

 

इस रे काया पर हल भी चलेंगे खेती करेंगे श्रीराम हो राम।

 

इस रे काया पर दूब जमैंगी गौवें चरावें श्रीराम हो राम।।

 

इस रे काया पर गंगा बहैंगी नीर पिलावें श्रीराम हो राम।।

 

(कविता-कौमुदी, भाग -५)

 

इस गीत में सीता का इतना आक्रोश अभिव्यक्त है कि वह धरती में समा जाना ही उपयुक्त समझती है। दूसरी ओर इतना गहरा प्रेम भी है कि मर जाने के बाद, मिट्टी में मिल जाने के बाद भी राम का प्रिय करने को, उन्हें सुख देने को लालायित हैं। यह प्रेम की पराकाष्ठा है। इस लोक गीत में वाल्मीकि का तेज और भवभूति की करुणा-दोनों का अपूर्व संगम हुआ है।

 

इस तरह सीता धरती में समा गई। कुछ नहीं बोली। उनके केश दूब बनकर धरती पर छा गए।

 

दूब सब कुछ कह रही है – चुप चाप।

 

सीता कवि की भावभूमि में समा गई।

विवाह का मंगल आनंद हो, या वनवास का अमंगल विषाद हो सभी जगह सीता का सहज मानवीय रूप लोक गीतों में देखने को मिलता है। सीता लोक के मानस में हजार तरह से समाई हुई हैं

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