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(भाग:312) तुंगभद्र नदी तटवर्तीय ऋषियों की हड्डियों से निर्मित है ये ऋष्यमूक पर्वतमाला का रहस्य

(भाग:312) तुंगभद्र नदी तटवर्तीय ऋषियों की हड्डियों से निर्मित है ये ऋष्यमूक पर्वतमाला का रहस्य

टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

सनातन हिंदू धर्म में ऐसे कईं रहस्यमयी जगहों के बारे में बताया गया है जिनका निर्माण कुछ अलग ही ढंग से किया गया है। लेकिन आज जिस जगह के बारे में आपको बताने जा रहे हैं जिसके बारे में सुनकर आप शायद हैरान हो जाएं और यकीन भी न करें। तो आइए बताते हैं आपको इस जगह के बारे में-

हम बात कर रहे हैं रामायण काल के एक प्रसिद्ध पर्वत की। बता दें कि इस पर्वत का रामायण में कई बार जिक्र किया गया है। इसका नाम ऋष्यमूक पर्वत है। कहे हैं कि पर्वत के इस नाम से संबंधित एख रोचन कथा का वर्णन मिलता है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब रावण का अत्याचार बहुत बढ़ गया था बहुत से ऋषि उससे डरकर एक साथ एक पर्वत पर जाकर रहने लगे। कहते हैं ये भी ऋषि यहां मौन होकर रावण का विरोध कर रहे थे। बता दें कि रामायण में किष्किंधा के पास जिस ऋष्यमूक पर्वत की बात कही गई है वह आज भी उसी नाम से तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है। जब रावण विश्व विजय प्राप्त करने के लिए इस पर्वत के समीप से गुज़रा तो उसने बहुत से ऋषियों को एक साथ देखा तो उसने उनके इक्टठे होने का कारण पूछा तो राक्षसों ने उसे बताया महाराज आपके द्वारा सताए हुए ऋषि मूक यानि मौन होकर यहां आपका विरोध कर रहे हैं।

 

ये सुनकर रावण को क्रोध आ गया और उसने एक-एक करके सारे ऋषियों को मार डाला। कहा जाता है कि उन्हीं के अस्थि अवशेषों से यहां पहाड़ बन गया, तभी से इस पर्वत को ऋष्यमूक पर्वत के नाम से जाना जाने लगा। बता दें पौराणिक ग्रंथों में इससे जुड़ी एक जानकारी मिलती है। रामायण के अनुसार ऋष्यमूक पर्वत में ऋषि मतंग का आश्रम था। बालि ने दुंदुभि असुर का वध करके दोनों हाथों से उनका मृत शरीर एक ही झटके में एक योजन दूर फेंक दिया था। हवा में उड़ते हुए मृत दुंदुभि के मुंह से रक्तस्राव हो रहा था जिसकी कुछ बूंदें मतंग ऋषि के आश्रम पर भी पड़ गई थी। मतंग यह जानने के लिए कि यह किस ने किया है, अपने आश्रम से बाहर निकले। उन्होंने अपने दिव्य तप से सारा हाल जान लिया और जब उन्हें पता चला कि ये बालि ने किया है तो उन्होंने उसे शाप दे डाला कि अगर वह कभी भी ऋष्यमूक पर्वत के एक योजन के पास भी आएगा तो अपने प्राणों खो बैठेगा। कहते हैं इस बात के बारे में बालि के छोटे भाई सुग्रीव को पता था। इसी कारण से जब बालि ने सुग्रीव को देश-निकाला दिया तो उसने बालि से बचने के लिए अपने अनुयायियों के साथ ऋष्यमूक पर्वत में जाकर शरण ली।

ऋष्यमूक पर्वत पर आज भी है सुग्रीव गुफा

सत्तारूढ़ राजशाही के भीतर कलह का यह दुर्लभ

रामायण में जितने भी चरित्रों का उल्लेख है, उन सभी की भूमिका अपने आप में महत्वपूर्ण है। राजा दशरथ सहित तीनों माताएं, गुरु वशिष्ठ, निषादराज गुह, राजा जनक, विभीषण, अंगद इत्यादि जितने व्यक्तित्व राम कथा से जुड़े हैं, सभी अपनी-अपनी भूमिका में महत्वपूर्ण लगते हैं। इन्हीं में से एक हैं सुग्रीव। किष्किन्धा के राजा, प्रभु राम के मित्र। रावण द्वारा सीता-हरण के बाद उनकी तलाश के दौरान ऋष्यमूक पर्वत पर प्रभु राम की सुग्रीव से भेंट होती है। यहीं राम को सुग्रीव पर उसके भाई बाली द्वारा किए गये अत्याचार का पता लगता है। भगवान राम सुग्रीव को अपना मित्र मान कर उन्हें बाली के त्रास से मुक्त करवाने का वचन देते हैं और उन्हें किष्किन्धा का राजा घोषित करते हैं।

 

माना जाता है कि रामायण में जिस ऋष्यमूक पर्वत का उल्लेख है, वह कर्नाटक प्रदेश के हम्पी में है। हम्पी कभी प्रसिद्ध विजयनगर साम्राज्य की राजधानी था। यहीं पर वानरराज सुग्रीव और बाली की राजधानी किष्किन्धा नगरी बसी थी। हम्पी और आसपास के क्षेत्र में आज भी रामायण के विभिन्न प्रसंगों से जुड़े कई स्थल यहां रामजी के आगमन के साक्षी हैं। यहां स्थित ऋष्यमूक पर्वत पर आज भी वो गुफा विद्यमान है, जहां वानरराज सुग्रीव अपने मंत्रियों सहित रहते थे। रामायण में वर्णित प्रसंग के अनुसार बाली से विवाद के कारण जब सुग्रीव को राजमहल छोड़ कर वनों में भागना पड़ा, तब वो अपने सहयोगियों सहित इस स्थान पर आये। कथा है कि इस ऋष्यमूक पर्वत पर ऋषि मातंग का आश्रम था। ऋषि मातंग ने एक समय अपने आश्रम को अपवित्र करने के कारण बाली को शाप दिया था। उस शाप के अनुसार बाली जैसे ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेगा, उसकी मृत्यु हो जाएगी। यही कारण था कि सुग्रीव के लिए छिपने के दृष्टिकोण से यह स्थान सबसे उपयुक्त था।

सुग्रीव जिस गुफा में रहे, वहां आज उनका एक विग्रह स्थापित है, जिसकी पूजा की जाती है। तुंगभद्रा नदी के तट पर बसा यह क्षेत्र बहुत ही मनोरम है। यहां आज भी ऐसा प्रतीत होता है, जैसे रामायण के कालखंड में आ गए हों। यहां के भौगोलिक परिदृश्य में आज भी अधिक परिवर्तन नहीं आया है

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्री राम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबलि बालि ने अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

 

राम-हनुमान मित्रता स्थल

 

ऋष्यमूक पर्वत रामायण की घटनाओं से सम्बद्ध दक्षिण भारत का पवित्र पर्वत है। विरूपाक्ष मन्दिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहीं सुग्रीव और राम की मैत्री हुई थी। यहाँ तुंगभद्रा नदी धनुष के आकार में बहती है। सुग्रीव किष्किंधा से निष्कासित होने पर अपने भाई बालि के डर से इसी पर्वत पर छिपकर रहता था। उसने सीता हरण के पश्चात् राम और लक्ष्मण को इसी पर्वत पर पहली बार देखा था-

 

‘तावृष्यमूकस्य समीपचारी चरन् ददर्शद्भुत दर्शनीयौ,

शाखामृगाणमधिपस्तरश्ची वितत्रसे नैव विचेष्टचेष्टाम्'[1]

 

अर्थात् “ऋष्यमूक पर्वत के समीप भ्रमण करने वाले अतीव सुन्दर राम-लक्ष्मण को वानर राज सुग्रीव ने देखा। वह डर गया और उनके प्रति क्या करना चाहिए, इस बात का निश्चय न कर सका।”

 

तीर्थ स्थल

तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्री राम मन्दिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था। पास ही चित्रकूट और जालेन्द्र नाम के शिखर भी हैं। यहीं तुंगभद्रा के उस पार दुन्दुभि पर्वत दिखाई देता है, जिसके सहारे सुग्रीव ने श्री राम के बल की परीक्षा करायी थी। इन स्थानों में स्नान और ध्यान करने का विशेष महत्त्व है। श्रीमद्भागवत में भी ऋष्यमूक का नामो। का उल्लेख मिलता है।

 

तुलसीरामायण, किष्किंधा कांड में ऋष्यमूक पर्वत पर राम-लक्ष्मण के पहुँचने का इस प्रकार उल्लेख है-

 

‘आगे चले बहुरि रघुराया, ऋष्यमूक पर्वत नियराया।’

 

दक्षिण भारत में प्राचीन विजयनगर साम्राज्य के खंडहरों अथवा हम्पी में विरूपाक्ष मन्दिर से कुछ ही दूर पर स्थित एक पर्वत को ऋष्यमूक कहा जाता है। जनश्रुति के अनुसार यही रामायण का ऋष्यमूक है। मंदिर को घेरे हुए तुंगभद्रा नदी बहती है। ऋष्यमूक तथा तुंगभद्रा के घेरे को चक्रतीर्थ कहा जाता है। चक्रतीर्थ के उत्तर में ऋष्यमूक और दक्षिण में श्री राम का मंदिर है। मंदिर के निकट सूर्य और सुग्रीव आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं। प्राचीन किष्किंधा नगरी की स्थिति यहाँ से 2 किमी दूर, तुंगभद्रा नदी के वामतट पर, अनागुंदी नामक ग्राम में मानी जाती है

भारत की मुख्य नदियों में से एक तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत की प्रमुख नदी है। आइए जानें इस नदी से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों के बारे में जानिएगा।

हमारे देश भारत में अलग -अलग प्रकार की न जाने कितनी नदियां सदियों से अपनी पवित्रता को कायम रखे हुए हैं। ऐसी ही नदियों में से एक है तुंगभद्रा नदी। तुंगभद्रा नदी दक्षिण भारत की एक पवित्र नदी है जो कर्नाटक राज्यों और आंध्र प्रदेश के हिस्से से होकर आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी में मिल जाती है।

 

तुंगभद्रा नदी भारत की एक बड़ी नदी कृष्णा नदी की मुख्य सहायक नदी है। महाकाव्य रामायण में तुंगभद्रा नदी को पम्पा के नाम से जाना जाता था। आइए जानें भारत की सबसे ज्यादा पवित्र नदियों में से एक तुंगभद्रा नदी का उद्गम कहां से होता है और इसके इतिहास से जुड़े रोचक तथ्य।

 

तुंगभद्रा नदी का उद्गम स्थान

तुंगभद्रा नदी का उद्गम पश्चिमी घाट में गंगा मूल नामक स्थान पर वराह पर्वत नामक पहाड़ी से होता है। इस जगह से तुंगभद्रा नदी कर्नाटक के दो जिलों चिकमंगलूर जिले और शिमोगा जिले से होकर बहती है। यह पूरा रास्ता लगभग 147 किमी लंबा है और कर्नाटक (कर्नाटक के ऐतिहासिक स्थल) के शिमोगा शहर के पास एक छोटे से शहर कुदली में भद्रा नदी में मिल जाता है।

तुंगभद्रा नदी की सहायक नदियां

तुंगभद्रा नदी दो नदियों, तुंगा नदी और भद्रा नदी के संगम से बनती है, जो कर्नाटक राज्य में पश्चिमी घाट के पूर्वी ढलान से नीचे बहती है। इसके बाद यह पत्थरों के ढेर से बनी ऊबड़-खाबड़ लकीरों के माध्यम से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रुख करती है। जैसे ही यह नदी दक्षिण की ओर बहती है यह एक चौड़े मैदान में बहती है। तुंगभद्रा नदी पूर्व दिशा की ओर बहती है और आंध्र प्रदेश राज्य में कृष्णा में मिल जाती है। यहां से कृष्णा नदी पूर्व की ओर खाली होकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है।

 

तुंगभद्रा नदी का इतिहास

 

हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में हिरण्याक्ष राक्षस को मारने के बाद, वराह स्वामी को जब बहुत थकान महसूस हुई तब उन्होंने उस क्षेत्र पर विश्राम किया जिसे अब वराह पर्वत के नाम से जाना जाता है। जब वे उस शिखर पर बैठे तो उनकी खोपड़ी से पसीना बहने लगा। उसकी सिर के बाईं तरफ जो पसीना बहता था वह तुंगा नदी बनी और जो पसीना दाहिनी ओर से बहा उसे भद्रा नदी के नाम से जाना गया। इस प्रकार तुंगभद्रा नदी का निर्माण हुआ।(गंगा नदी की उत्पत्ति कहां से हुई)

 

दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप की प्रमुख नदी

तुंगभद्रा दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप की एक प्रमुख नदी है। हम्पी इस नदी के रास्ते के बीच में कहीं दक्षिण तट पर स्थित है। इस क्षेत्र में चट्टानी इलाके के कारण नदी कई मोड़ लेती है। हम्पी के राजनीतिक और धार्मिक इतिहास को बनाने में नदी का अत्यधिक महत्व है। वास्तव में इस नदी का नाम तुंगभद्रा इसलिए पड़ा क्योंकि ये तुंगा और भद्रा के मिलन से बनी है । तुंगा और भद्रा दोनों नदियां पश्चिमी घाट के पूर्वी ढलानों पर उत्पन्न हुई है। पूर्वी नदी कृष्णा में शामिल होने से पहले तुंगभद्रा उत्तर-पश्चिम दिशा में बहती है।

वास्तव में जब भी दक्षिण भारत की मुख्य नदियों की बात आती है तब तुंगभद्रा नदी की अलग कहानी है जो इसे एक महत्वपूर्ण स्थान देती है। अगर आपको यह लेख अच्छा लगा हो तो इसे शेयर जरूर करें व इसी तरह के अन्य लेख पढ़ने के लिए जुड़ी रहें आपकी अपनी वेबसाइट हरजिन्दगी के साथ

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