रजस्वला स्त्रियों को सूतक संक्रमण की वजह से अनुष्ठानों में उपस्थिति वर्जित
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
आयुर्विज्ञान और गरुण पुराण विशेषज्ञों के अनुसार (मासिक धर्म वाली) स्त्री के दर्शन से होने वाले लाभ या हानि इस बात पर निर्भर करते हैं कि आप पारंपरिक या आधुनिक दृष्टिकोण से देख रहे हैं। या आध्यात्मिक पारंपरिक रूप से है. रजस्वला स्त्री को विशेष अनुष्ठानो- पुण्यकार्यों के दौरान शारीरिक रूप से अशुद्ध माना जाता है और उसे धार्मिक अनुष्ठानों या कुछ खास जगहों पर जाने से रोका जाता है, जो संक्रमण के जोखिम को कम करने और स्त्री को आराम देने के लिए था। आधुनिक दृष्टिकोण से, इसे एक स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया माना जाता है और इसके दर्शन से किसी को कोई विशेष नुकसान नहीं है, सिवाय कुछ पारंपरिक मान्यताओं को तोड़ने के। पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, स्त्री को इस दौरान अशुद्ध माना जाता है, जिससे उसकी उपस्थिति से मंदिर या पवित्र स्थानों की शुद्धता भंग हो सकती है।
यह भी माना जाता है कि रजस्वला स्त्री मे सूतक दोष के कारण शरीर की ऊर्जा तरंगें, इस दौरान बदलती हैं, धार्मिक स्थलों की उच्च ऊर्जा तरंगों से टकराती हैं, जो स्त्री के लिए नुकसानदेह हो सकती हैं।
मासिक धर्म के दौरान रजस्वला स्त्री का शरीर अधिक संवेदनशील होता है, और संक्रमण या दूषित स्राव के संपर्क में आने से संक्रमण फैल सकता है, खासकर जब वह घर में भोजन बनाती है या परिवार के सदस्यों को छूती है।
इस समय स्त्री को धार्मिक कार्यों, पूजा-पाठ और पवित्र स्थानों में जाने से मना किया जाता है, क्योंकि यह धार्मिक परंपराओं के विरुद्ध माना जाता है। स्वाभाविक शारीरिक प्रक्रिया: मासिक धर्म एक स्वाभाविक और स्वस्थ शरीर का संकेत है। इस दौरान स्त्री को शारीरिक और मानसिक आराम की आवश्यकता होती है।
स्वच्छता बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण है, और आधुनिक शिक्षा ने परिवार के सदस्यों में संक्रमण फैलने के जोखिम को कम करने के लिए स्वच्छता के महत्व को बढ़ावा दिया है।
तर्कहीन अंधविश्वासों से दूरी:
आधुनिक समय में, स्त्री के दर्शन को नुकसानदायक मानना एक दकियानूसी प्रथा है, जो तर्कहीन अंधविश्वासों पर आधारित है। आधुनिक समय में, मन की शुद्धता शारीरिक शुद्धता से अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए, मासिक धर्म वाली स्त्री के दर्शन से नुकसान होने के बजाय मन की आस्था को बनाए रखना अधिक महत्वपूर्ण है।
सनातन हिन्दू धर्म में रजस्वला स्त्री को पूजा करना प्रतिबंधित बताया गया है ?हिंदू रजस्वला स्त्री को पूजा करना क्यों प्रतिबंधित है? प्रश्न जितना मूल्यवान है अतः मिथकतापूर्ण अपवादों को छोड़कर हमारे उत्तर को भी उतनी ही गहराई से समझा जाना चाहिए! रजस्वला स्त्री के लिए पूजा करना इसलिए प्रतिबंधित होता है क्योंकि उन चार छः दिनों में वह स्वयं ही ‘पूजनीय’ होती है. उसका शरीर एक आदर्श पवित्र अवस्था में होता है जब वह एक नए प्राणी को जन्म देने की ‘अवधारणा’ को स्वीकार करती है! और जो स्वयं ही पूजनीय होती है उसके लिए किसी ओर की पूजा करना प्रतिबंधित होना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि नैसर्गिक भी है..!
एक समय था जब एक महिला को आटा पीसने से लेके पानी भरने तक के कहीं काम खुद करने पड़ते थे, उस समय इन पांच दिन के लिए उस आराम मिले इसलिए ये प्रथा लाई गई थी ऐसा मेरा मान ना है, क्युकी में इसे एक सामान्य प्रक्रिया मानता हूं, और अगर हम इस चीज को इतना गन्दा मानते तो अंबु वाची जैसा त्याहर थोड़ी होता है.मेरी एक महिला मित्र का कहना है के इन पांच दिन में जब हमे खुद ही खुद के शरीर से गिन्न आती है ऐसे में हमारा ध्यान क्या पूजा में लग सकता है क्या, इसलिए ऐसा है
हिंदुओं के लिए अपने इष्ट की पूजा का क्या महत्व है, क्या उसका कोई फल मिलता है?
अपने इष्ट की पूजा करना ज़्यादातर हिंदुओं की आस्था और संस्कृति से जुड़ा है और पूजा एक धार्मिक दिनचर्या के रूप में निभाई जाती है। ज़्यादातर हिंदू घरों में थोड़े बहुत अंतर के साथ दिन में एक-दो बार, विशेषकर घर की महिलाओं और बड़े-बुजुर्गों द्वारा, पूजा विधि निभाई जाती है। कहीं तो पूरी औपचारिकता के साथ और कहीं केवल एक पारिवारिक नियम के तौर पर। इसके लिए किन्हीं घरों में तो एक कमरे को ही पूजा-घर बनाया होता है और किन्हीं घरों में कोई विशेष स्थान पूजा के लिए नियत होता है — अक्सर रसोई का कोई शेल्फ, जिस पर इष्ट की मूर्ति या चित्र आदि रखा जाता है। रजस्वला स्त्री मन्दिर जा सकती है या नहीं, यह विभिन्न धार्मिक समुदायों और परंपराओं के आधार पर भिन्न होता है।
परंपरागत रूप से: हिंदू धर्म में, रजस्वला स्त्री को मन्दिर जाने से मना किया जाता है। इसका कारण यह माना जाता है कि इस समय स्त्री अशुद्ध होती है और उसकी उपस्थिति मन्दिर की पवित्रता को भंग कर सकती है।आधुनिक दृष्टिकोण: कुछ लोग इस परंपरा को अंधविश्वास मानते हैं और रजस्वला स्त्री को मन्दिर जाने की अनुमति देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि रजस्वला स्त्री मन्दिर जा सकती है, लेकिन उसे कुछ नियमों का पालन करना चाहिए, जैसे कि मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश पूजापाठ नहीं करना चाहिए.
मेरा सवाल है कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार पूजा करने की असल विधि क्या है? मेरे घर के पूजाघर में सभी देवी देवता (तस्वीर या पीतल की मूर्ति) मौजूद हैं इसीलिए आप से अनुरोध करता हूँ कि यदि ऐसी विधि हो जिससे की सभी की पूजा हो जाए तो उस विधि का वर्णन करें। हिन्दू धर्म की ये अंधवैश्वासिक मान्यताएं हैं जिनमें अनेक देवी देवताओं की पूजा बताई या की जाती है । हिन्दू धर्म का मूल आदि स्रोत वेद हैं । वेद में स्पष्ट कहा गया है कि एक ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी भी देवी देवता की पूजा मत करो
अहं दान गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।
अहं भुवन यजमानस्य चोदिताअऽयज्वन: साक्षि विश्वस्मिन्भरे ।।ऋग्वेद मंडल १० सूक्त ४९ मंत्र१
इस मन्त्र का अर्थ महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इस प्रकार किया है ” — से मनुष्यो ! मैं सत्यभाषण स्तुति करने वाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं । मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करने हारा और मुझको वह वेद यथावत् कहे है.क्या रजस्वला स्त्री को खाना नहीं बनाना चाहिए?
ऐसा कुछ भी नहीं है. रजस्वला स्त्री को इन सबसे दूर रखने का वैज्ञानिक कारण सिर्फ इतना है कि इस समय स्त्री परेशानी, दर्द और तनाव से गुजरती है वो भी हॉर्मोन में बदलाव के कारण. इसीलिए उसे अलग रखा जाता है ताकि उसके शरीर को आराम मिल सके. लेकिन इसे लोगों ने “छूत” का नाम दे दिया.
आप ही बताइए, जिस बायोलॉजिकल कारण से स्त्री को माँ बनने की शक्ति और सौभाग्य प्राप्त होता है वो छूत का कारण कैसे माना जा सकता है? क्या आप चाहेंगे कि कोई भी बेटी बिना रजस्वला के रहे? उसे स्वीकार करेंगे आप? आजकल जब सभी परिवार न्यूक्लीयर हो गये हैं,वैसे में स्त्री का 5 दिन घर के कामों से दूर रहना संभव नहीं है. बस अगर वो शरीर से स्वस्
मानस पूजा क्या है?
मानसी पूजा किसे कहते हैं ?
बाह्य पूजा को कई गुना अधिक फलदायी बनाने के लिए शास्त्रों में एक उपाय बतलाया गया है, वह है–मानसी-पूजा। वस्तुत: भगवान को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं, इसलिए पुराणों में मानसी-पूजा का विशेष महत्व माना गया है। मानसी-पूजा में भक्त अपने इष्टदेव को मुक्तामणियों से मण्डितकर स्वर्णसिंहासन पर विराजमान कराता है. स्वर्गलोक की मन्दाकिनी गंगा के जल से अपने आराध्य को स्नान कराता है, कामधेनु गौ के दुग्ध से पंचामृत का निर्माण करता है। वस्त्राभूषण भी दिव्य अलौकिक होते हैं। मानसी चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य भी भगवान को हजारगुना अधिक संतोष देते हैं। आराधक अपने आराध्य के लिए कुबेर की पुष्पवाटिका से स्वर्णकमल के पुष्पों व पारिजात पुष्पों का चयन करता है। इन सब चीजों को जुटाने के लिए उसे इन्द्रलोक से ब्रह्मलोक, साकेत से गोलोक आदि तक मानसिक दौड़ लगानी पड़ती है।मानसी-पूजा का महत्व
इस तरह मानसी-पूजा में मन को दौड़ने की और कल्पनाओं की उड़ान भरने की पूरी छूट होती है और इस दौड़ का दायरा ब्रह्माण्ड से भी आगे वैकुण्ठ और गोलोक तक पहुंच जाता है। इतनी दौड़-धूप से लाई गई उत्तमोत्तम वस्तुओं, पारिजात-पुष्पों की मालाओं को आराधक जब अपने भगवान को पहनाता है, तब उन पुष्पों की सुगन्ध व इष्ट का स्पर्श मिलकर उसकी नस-नस में मादकता भर देता है, उसका चित्त भगवान में समरस हो जाता है, और इष्ट से बना मधुर सम्बन्ध गाढ़ से गाढ़तर हो जाता है, तब उसे कितना संतोष मिलता होगा? उसका रोम-रोम पुलकित व प्रमुदित हो जाता होगा।
इन मानसिक पूजा सामग्रियों को जुटाने व भगवान को अर्पित करने में आराधक को जितना समय लगता है, उतना समय वह अन्तर्जगत में बिताता है। इस तरह मानस-पूजा साधक को समाधि की ओर अग्रसर करती है।
मानस-पूजा करने वाले के मन में नये-नये भाव जाग्रत होते हैं। अत: कलिकाल में भी मनुष्य मानस-पूजा द्वारा अपने आराध्य को एक-से-बढ़कर एक उपचार अर्पित कर सकता है और बाह्य पूजा से कई गुना अधिक फल प्राप्त कर सकता है।आज के भाग-दौड़ भरे जीवन में और मंहगाई के दौर में हर किसी के लिए भगवान की विधिवत् षोडशोपचार पूजा के लिए न तो समय है और न ही साधन। अत: मानसी-पूजा का बहुत महत्व है।हिंदुओं में पूजा करने की सही विधि क्या है?जो प्रशन आपने पूछा है उससे लगता है कि आप बहुत बड़े भक्त हैं। और यह बहुत अच्छी बात है कि आप बहुत बड़े भक्त हैं।
परंतु भक्ति की भी एक सीमा होती है अगर आप सोचते होंगे कि भगवान की पूजा कुछ विशेष तरीके से की जाती होगी तो आप गलत है।
भगवान आपको बिना पूजा कि यह भी आपको फल प्रदान कर देंगे आप उसकी चिंता ना करें।
हिंदू सुबह खाना खाने से पहले मंदिर में पूजा करते हैं परंतु मुस्लिम रात को करते हैं।
इसका यह मतलब तो नहीं है कि भगवान किसी एक की पूजा को नहीं मानता होगा।
इसका सीधा मतलब यह है कि भगवान आपकी पूजा को स्वीकार कर लेंगे चाहे आप कुछ भी कर रहे हो आप मंदिर जाएं जान आ जाए चाहा चलते-चलते पूजा कर रहे हो या फिर बै
क्या हिन्दू धर्म के अलावा ऐसा कोई और धर्म है, जिसमें महिलाओं की पूजा होती है?
आपके सवाल का जवाब देने के पहले मै आपके प्रश्न पर ही आपत्ति करता हूं।कृपया करके किसी भी मत,मजहब धर्म,संप्रदाय,पंथ आदि को धर्म न कहे।क्योंकि धर्म जबसे यह श्रृष्टि है तभी से है।धर्म और अधर्म प्राकृतिक है।धर्म सत्य,न्याय,कर्तव्य आदि को कहते है।धर्म का कोई प्रवर्तक नहीं होता।धर्म शाश्वत होता है,सनातनी होता है।जबकि पंथ का कोई न कोई प्रवर्तक होता है।पंथ के अभ्युदय की तिथि भी होती है। जहां धर्म यानी (सत्य,न्याय) लग गया वहा अधर्म (असत्य,अन्याय) कैसे हो सकता है?मेरी जो भी जानकारी है उसके अनुसार विश्व के किसी भी मत(जिसे आप धर्म समझ रहे है) में महिलाओं की या कन्याओं की पूजा नहीं होती है, हा अपवाद स्वरूप हिन्दू निर्जीव चिजों की पूजा क्यों करते हैं, जैसे की कार, किताबें, शस्त्र, इत्यादी?
माफ कीजिए इस प्रश्न का एक और उत्तर देखा,देखकर बहुत निराशा हुई। किसी ने पूछा था कि “हिंदू निजी वस्तुओं की पूजा क्यों करते हैं” पर जिन श्रीमान ने उत्तर दिया वह और धर्मों की बुराइयां दिखाने लगे।
आजकल यही होता है, हर कोई आक्रामक हो जाता है; बिना यह समझे कि शांति से भी जवाब दिया जा सकता है।
किसी और को तो मैं जानता नहीं,पर मैं हिंदू हूं और मैं भी अन्य हिंदुओं की भांति निर्जीव वस्तुओं जैसे कलम, पुस्तक इत्यादि वस्तुओं की विशेष अवसरों पर पूजा करता हूं और हमेशा इज्जत भी करता हूं। यदि कभी गलती से भी कोई पढ़ने लिखने की चीजें,पैसे, सोना-चांदी, पूजा का कोई सामान जैसे नारियल, फूल गलती से भूमि पर गिर जाए तो उसे पूजा करते समय हिन्दू स्त्री और पुरुष अपना सर क्यों ढंकते हैं?पूजा करते समय हम सभी अपना सिर ढकते हैं, इसके पीछे हमारी धामिर्क मान्यताएँ हैं।
धामिर्क मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है जिनको हम आदर देते हैं उनके आगे हमेशा सिर ढक कर जाते हैं।इसी कारण से कई महिलाएं अभी भी जब भी अपने सास-ससुर या बड़ों से मिलती हैं तो सिर ढक लेती हैं।
ईश्वर तो हमारे आराध्य हैं। जिनको हम पूजते हैं। इसीलिए पूजा करते समय हम अपना सिर ढकते हैं।
एक कारण यह है भी है कि हमारे सिर के मध्य में सहस्त्रासार चक्र होता है ।जिस पर पूजा करते वक्त निगेटिव चीजों का असर नहीं होना चाहिए।
हिन्दू निर्जीव चिजों की पूजा क्यों करते हैं, जैसे की कार, किताबें, शस्त्र, इत्यादी?
सारे धर्मो में प्रतीक चिन्ह है क्या है, निर्जीव या सजीव? एक धर्म बता दे जो सजीव को पूजता हो ? इस्लाम? ईसाइयत? जैन ? बौद्ध? एक धर्म बता दे जो स्वयं सजीव हो? एक धर्म बता दे जो मॉडर्न विचारधारा रखता हो?
रहा सवाल कार, किताबें, शस्त्र पूजने का तो कार धन का प्रतीक है , किताबे ज्ञान का और शस्त्र शक्ति का , गृहस्थ जीवन में इनका कितना महत्त्व है आप भलीभांति जानते है , दुनियाँ की सारी मारामारी ही इन तीनो को पाने के लिए ही है। फिर उन्हें पाने की आस रखने में क्या गलत है?
एक अनुरोध, किसी धर्म के बारे प्रश्न करने से पहले थोड़ा उसकी मूल अवधारणा को पढ़ लिया करे । क्यों हिन्दू पूजा औऱ आराधना इतनी जटिल, महंगी और काफी समय खाने वाली होती है ? और क्या इसीलिए हिन्दू धर्म का नुकसान होता आया है ?
प्रिय मित्र पुजा पाठ प्रार्थना ध्यान या कोई भी क्रिया कर्म जटिल व समय बर्बाद करने वाला होता है चाहे को भी धर्म हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई आदी हो। समय बर्बाद का मतलब इस किसी भी क्रिया से आप सत्य नहीं जान सकते अर्थात इश्वर को?
तो भाई मनुष्य पुजा पाठ अराधना आदी इश्वर प्राप्त करने के अलावा तो करता नहीं होगा। वो ईसे मिलते नहीं कभी जाने भी नहीं जा सकता है मिलना तो दुर की कौड़ी है। इसमे हिन्दू धर्म का नुकसान नहीं बल्कि समस्त मनुष्य जाती का बहुत बड़ा नुकसान होता है क्योंकि मनुष्य जन्म बर्बाद चला जाता है वह तो मिला नहीं जिसके लिये मनुष्य जन्म मिला था जीव को। इस प्रकार समय सबको खा जाता है बल्कि समय को ये नह
हिन्दू निर्जीव चिजों की पूजा क्यों करते हैं, जैसे की कार, किताबें, शस्त्र, इत्यादी?
इसके बाकी जबाव मुझे पसंद नहीं आए इसलिए मुझे इसका जबाव लिखना पड़ा
हिन्दू निर्जीव चिजों की पूजा क्यों करते हैं, जैसे की कार, किताबें, शस्त्र, इत्यादी?
तो ऐसा है कि हम हिन्दू जब कण कण मे भगवान का वास मानते हैं तो इन सब की पूजा करने मे क्या बुराई है आखिर ये सब वस्तुएं भी तो कणों से ही मिलकर बनीं हैं. एक बात सभी पाठकों को बता दूँ कि हिन्दू सिर्फ ऊर्जा की पूजा करते हैं और विज्ञान के अनुसार ब्रम्हांड के प्रत्येक कण मे ऊर्जा निहित है. इसलिए पेड़ पौधे, पशु पक्षी, कार बाईक, सभी की पूजा करने मे किसी भी तरह की कोई बुराई नहीं है.
हिन्दू धर्म में हनुमान जी पूजा करने को स्त्रियों को क्यों मना किया जाता है? पूजा करने से नहीं बल्कि मूर्ति का स्पर्श करने से रोका जाता है. जबकि सनातन धर्म के अनुसार यह एकदम कुतर्क और अंधविश्वासी वाली बात है.जरा सोचिए अगर किसी माता का पुत्र ब्रह्मचारी बन जाता है तो क्या माता उसे स्पर्श नहीं करेगी, बिल्कुल करेगी. किसी बहन का भाई ब्रह्मचारी हो तो क्या वो उसे राखी नहीं बांधेगी, जरुर बढेंगी.असल में तार्किक नियम के अनुसार सच्चाई यह है कि जिस महिला के पीरियड चल रहे हो या जो कामवासना में रमी रहती हो. उस महिला का स्पर्श किसी ब्रह्मचारी को नहीं करना चाहिए. बाकी हर महिला को ब्रह्मचारी भी छू सकता है और महिलाएं भी ब्रह्मचारी को छू सकती हैं.
मेरा सवाल है कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार पूजा करने की असल विधि क्या है? मेरे घर के पूजाघर में सभी देवी देवता (तस्वीर या पीतल की मूर्ति) मौजूद हैं इसीलिए आप से अनुरोध करता हूँ कि यदि ऐसी विधि हो जिससे की सभी की पूजा हो जाए तो उस विधि का वर्णन करें। आजकल लोग अगरबत्ती दिखाना, दिया जलाना और प्रसाद चढ़ाना को ही पूजा कहते है, लेकिन पूजा ऐसे नहीं होता पूजा एक साईंटिफिक विधि है इसके पीछे पूरा साइंस है। एक खाश तरह की एनर्जी को मेंटेन रखने के लिए खाश तरह से चीजें की जाती है उसी को पूजा कहा जाता है। जैसे कोई प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग है यानि एक पत्थर को एक खाश आकार दिया गया है और उसको एक एनर्जी दिया गया है तो उस एनर्जी को मेंटेन करने को ही पूजा कहा जाता है अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो वह धीरे धीरे शक्तिहीन हो जाएगी।
इसलिए हर भगवान को अलग अलग चीज चढ़ाया जाता है क्योंकि हर एनर्जी एक खास तरीके से काम करती है। जैसे काली जी को रजस्वला देवी पूजित है तो फिर रजस्वला नारी अपवित्र क्यों! ?रजस्वला देवी पूजित तो फिर रजस्वला नारी अपवित्र! ऐसा क्यों? यह प्रश्न अज्ञान और वामपंथी विचारधारा का परिणाम लग रहा है। पहले एक प्रतिप्रश्न का उत्तर देने की जहमत उठाएं आप कि कहां रजस्वला देवी पूजित हैं? तो हे नरपुंगव वहां भी देवी की तीन दिन तक पूजा नही होती। पट्ट बंद रहता है किसी को भी जाने की ंंमनाही रहती है। भोग राग सब द्वार पर ही होते हैं।
अब दूसरे भाग पर चर्चा आपके प्रत्युत्तर देने व आपके विचार जानने के उपरांत विस्तार से वर्णित किया जाएगा। क्या रजस्वला स्त्री मन्दिर जा सकती है?सम्बन्धित देवी देवता पर आस्था और सम्मान रखने वाली स्त्रियाँ स्वयं ही मन्दिर नहीं जातीं. यदि फिर भी अपनी मान्यता में अनुचित न मानते हुए, या केवल जिद के रूप में कोई जाँय तो इसमें उचित अनुचित का निर्णय उनके और सम्बंधित देवी देवता को करना है.यहाँ तो किसी को नहीं मालूम क्या होता है?अतः कोई अन्य इस पर अपनी राय नहीं दे सकता.वैसे इसमें कोई बहादुरी तो है नहीं. प्रत्यक्ष में तो पत्थर की मूर्ति कुछ नहीं कर सकती.और अन्य लोगों की भावना या आस्था पर चोट करना कोई उपलब्धि नहीं है. न ही इससे समाज की कोई समस्या ही हल हो जाएगी.
अन्य मामलों में तो सोच में पर्याप्त शिथिलता आ चुकी है.
भारतीय संस्कृति में स्त्री को पूजनीय क्यों माना जाता हैं?
संस्कृत का यह श्लोक इस बात को बताता है कि स्त्रियों के प्रति प्राचीनकाल में हमारी वैदिक सभ्यता और संस्कृति कितनी उत्कृष्ट सोच रखती थी
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।
तात्पर्य यह है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका मान-सम्मान नहीं होता है, वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं. आखिर भारतीय संस्कृति में स्त्री को इतना सम्मान क्यों था ? क्यों उन्हें पूजनीय माना जाता था ? आइए, जानते हैं कुछ नारियों के विषय में, जो हमारे भारतीय सभ्यता और संस्कृति की प्रति मूर्ति पूजा क्या है?
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।’
-यजुर्वेद 32वां अध्याय।
मूर्तिपूजकों तथा मूर्तिभंजकों के संघर्षों से इतिहास भरा पड़ा है। प्रारंभ में मूर्तिपूजकों के धर्म ही थे। मूर्तिपूजकों के धर्म के अंतर्गत ही मूर्तिभंजकों की एक धारा भी प्राचीनकाल से चली आ रही थी। मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए। ऐसे दुनियाभर में सात मंदिर थे। दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे। पूजा पूजा होती है जिस पूजा में आनन्द आये , पूजा वो है जिसमे अपने मन के भाव को पूर्ण रूप से समपर्ण करते हुए उनकी याद और महिमा का गुणगान करते हुए उनको पूरे भाव से पुष्प , चढाना दीपक जलाना चाहिये एवं उनका भोग लगाना चाहिये । स्तुति और आरती करनी चाहिये । ये सब कार्य पूरे विधि विधान से करना चाहिये । पूजा करते समय मन मे ये भाव रखे कि अपने इष्ट को पुत्र या पुत्री एवं परिवार के महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में जाना रहूं एवं उसी तरह उनकी देखभाल और सेवा करनी चाहिये जैसे आपका पुत्र हो ।वैसे पूजा 5 बार होती है पहली सुबह ब्रह्म मुहूर्त में होती है , दूसरी उनको स्नान शृंगार करने के बाद कि जाती है , तीसरी
हिन्दू धर्म में हनुमान जी पूजा करने को स्त्रियों को क्यों मना किया जाता है?
उसका कारण पुरषो मे आत्मविश्वास” की कमी दिखाता है।अब हनुमानजी जो ब्रह्मचारी, बालको पहलवानों एवं रामजी की भक्ति करने वाले लोगों के इष्ट देवता हैं। यदि माता बहने वहां जाये तब समस्या ये पैदा हो जातींहैं ,दंड बैठक लगाये या आटा पिसवाने आटाचक्की जाये ।ये मना करने का प्रथम कारण । दूसरा कारण यदि प्रेमिका या पत्नी चली जाये तब ब्रह्मचर्य नष्टहोने का खतरा कौन मोल लेना चाहेगा।मेरा निवेदन है । खासकर प्रेमिका और पत्नियों से वो अपने प्रेमी एवं पतियों काआत्मविश्वास नहीं घटाये ।आप हनुमान जी की पूजा करने के स्थान पर रामजी की पूजा करे जिससे हनुमानजी भी प्रसन्न ओर, श्रीमान जी का भी आत्मविश्वास बना रहेगा।
इस प्रश्न के उत्तर पर श्री ओम प्रकाश गुप्ता जी की टिप्पणी प्राप्त हुई है जो पूर्णता सत्य है
शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित है। किसी भी हवन अथवा पूजन विधि में बांस को नही जलाते हैं। भारतीय सनातन परंपराओं में
पूजा इत्यादि में बलि क्यों होता है जबकि हिंदुत्व में जीवों की हत्या निषेध है ? भारतीय संविधान का उदय
हिंदू धर्म में जीवों की हत्या को निषेध किया गया है और अहिंसा का मूल्य मान्यता है। हिंदू धर्म में जीवों के प्रति करुणा और सहानुभूति की भावना है। हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए, सभी प्राणी जीवों का सम्मान करना महत्वपूर्ण है और उन्हें पीड़ित नहीं किया जाना चाहिए।
पूजा और बलि का परंपरागत अर्थ है कि भगवान के प्रति अपनी श्रद्धाभक्ति दिखाने के लिए कुछ चीजें उपहार के रूप में चढ़ाई जाती हैं, और यह उपहार आमतौर पर पूजा स्थल पर चढ़ाए जाते हैं।क्या रजस्वला स्त्री मन्दिर जा सकती है? रजस्वला स्त्री के छूने भर से तमाम चीजों के खराब होने का कारण क्या है?
क्या महिलाओं को बजरंग बली की पूजा नहीं करनी चाहिए?हिन्दू धर्म क्या है?
क्या हिंदू धर्म में पीर-फकीर, बाबाओं इत्यादि की पूजा की अनुमति देता है ?पूजा करते समय सिर को क्यों ढका जाता है?मूर्ति पूजा क्यों करें? मूर्ति पूजा से क्या लाभ हैं?
क्या हिन्दू पूजा में अगरबत्ती का प्रयोग वर्जित है?
क्या दो पीढ़ी के हाथों पूजा,आदि में इस्तेमाल किया हुआ पैतृक तांबे के लोटे से पूजा या सूर्यार्घ्य या पितरों को जल देते हैं तो क्या यह शुभ है या पितृ तृप्त होते हैं?
स्त्री को वामांगी क्यों कहा गया है?