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(भाग:284) चार प्रकार के भक्तों में ज्ञानी भक्त भगवान को बहुत ही प्रिय है माने गये है

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भाग:284) चार प्रकार के भक्तों में ज्ञानी भक्त भगवान को बहुत ही प्रिय है माने गये है

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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ज्ञानी भक्त अधिक उच्च कोटिका समझा जाता है। क्योंकि मैं ज्ञानियों का आत्मा हूँ इसलिये उसको अत्यन्त प्रिय हूँ। संसार में यह प्रसिद्ध ही है कि आत्म ज्ञानी ही भगवान को सबसे प्रिय होता है। इसलिये ज्ञानीका आत्मा होने के कारण भगवान् वासुदेव उसे अत्यन्त प्रिय मानते है।

भगवान कृष्ण ने बताए हैं ये चार प्रकार के भक्त, जानिए कौन सी श्रेणी में आते हैं आप

जिसने भी इस पृथ्वी जन्म लिया और ईश्वर में विश्वास करता है तो वह ईश्वर की भक्ति अवश्य करता है। पृथ्वी पर जन्म लेने वाले ज्यादातर लोग भगवान में आस्था रखते हैं और उनकी भक्ति करते हैं, परंतु हर मनुष्य का भक्ति करने का तरीका भिन्न होता है। सभी अपनी तरह से ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्वंय इस बारे में बताते हुए कहा है कि

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

इस तरह से भगवान कृष्ण ने चार प्रकार के भक्तो के बारे में बताया है। ये चार प्रकार के भक्त होते हैं ”आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी”

अर्थार्थी सबसे निम्न श्रेणी के भक्त हैं। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ भक्त ज्ञानी हैं।

अर्थार्थी भक्त

जो लोग ईश्वर को केवल लोभ यानि धन-वैभव, सुख-समृद्धि आदि के लिए ही ईश्वर का स्मरण करते हैं। ऐसे लोगों के लिए भगवान से ज्यादा भौतिक सुख सर्वोपरि होता है, इस तरह से भक्तों को (अर्थार्थी) निम्न कोटि के भक्त की श्रेणी में रखा जाता है।

आर्त भक्त

कुछ लोग भगवान को केवल तभी याद करते हैं जब उन्हें किसी प्रकार का कष्ट हो, वे दुख और समस्या से घिरे हुए हो। यानि जो भक्त समस्या के समय ईश्वर को याद करते हैं वे (आर्त) भक्त की श्रेणी में आते हैं। ये निम्नकोटि से थोड़े श्रेष्ठ होते हैं।

जिज्ञासु भक्त

जिज्ञासु अर्थात जिसमें कुछ जानने की जिज्ञासा हो कहने का अर्थ यह है कि जो लोग भगवान को अपनी निजी समस्या के लिए याद न करें संसार में फैले हुए अनित्य को देखकर ईश्वर की खोज में लगते हैं और ईश्वर की भक्ति करते हैं।

 

ज्ञानी भक्त

ऐसा भक्त जो केवल ईश्वर की चाह रखता है। वह केवल ईश्वर में लीन रहना चाहता है, वह भगवान के किसी भी प्रकार की कोई इच्छा नहीं रखता है। ईश्वर ऐसे भक्तों पर हमेशा अपनी कृपा रखते हैं और हमेशा अपने भक्त की रक्षा करते हैं। ऐसे भक्त ईश्वर की आत्मा होते हैं

भगवान ने निर्गुण और सगुण उपासना में सगुण उपासकों को श्रेष्ठ बताकर अर्जुन को सगुण उपासना करने की सलाह दी। अब आगे के श्लोकों में अपने प्रिय भक्तों के लक्षणों का वर्णन करते हुए कहते हैं-भगवान ने अर्जुन को पहले विश्वरूप, फिर चतुर्भुज रूप और फिर द्विभुज रूप दिखाया

श्रीभगवानुवाच

 

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥

 

भक्ति में स्थिर मनुष्य के लक्षण बताते हुए भगवान कहते हैं- जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता है, सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखता है, सभी जीवों के प्रति दया-भाव रखने वाला है, ममता से मुक्त, मिथ्या अहंकार से मुक्त, सुख और दुःख को समान समझने वाला, और सभी के अपराधों को क्षमा करने वाला है। श्रीमद् भागवत में जड़ भरत की कथा आती है- लोगों ने उनको बहुत सताया, परेशान किया किन्तु उन्होंने किसी का विरोध नहीं किया, बल्कि यह सोचते रहे कि इससे मेरे पापकर्मों का नाश हो रहा है। यह भगवान का विधान है इससे मेरा कल्याण ही होगा।

 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

 

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! जो मनुष्य निरन्तर भक्ति-भाव में स्थिर रहकर सदैव प्रसन्न रहता है, दृढ़ निश्चय के साथ मन सहित इन्द्रियों को वश में किये रहता है और मन एवं बुद्धि को मुझमें अर्पित किए हुए रहता है ऎसा भक्त मुझे प्रिय होता है।

 

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥

 

जो मनुष्य न तो किसी के मन को विचलित करता है और न ही अन्य किसी के द्वारा विचलित होता है, जो हर्ष, अमर्ष और भय से मुक्त है वह मुझे अत्यंत प्रिय है। सच्चे साधकों के लिए यह श्लोक अत्यंत उपयोगी है। भगवान के कहने का यह तात्पर्य है कि— सच्चे भक्त को इस संसार में इस ढंग से रहना चाहिए कि उनके द्वारा किसी के मन को ठेस न लगे, जबकि इस दुनिया में ऐसे भी बहुत लोग मिलेंगे जो अकारण ही आपको सताना चाहेंगे क्योंकि यह उनका स्वभाव है।

भगवान श्रीकृष्ण से क्यों बार-बार माफ कर देने के लिए कह रहे थे अर्जुन ?

भर्तृहरि अपने नीतिशतक में कहते हैं— हिरण, मछली और सज्जन क्रम से घास, जल और संतोष पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं किसी से कुछ नहीं कहते, फिर भी शिकारी, मछुए और दुष्ट लोग बिना किसी कारण के उनसे दुश्मनी रखते हैं और समय-समय पर उन्हे दुख देते रहते हैं।

 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥

 

जो मनुष्य किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं करता है, जो शुद्ध मन से मेरी आराधना में स्थित है, जो सभी कष्टों के प्रति उदासीन रहता है और जो सभी कर्मों को मुझे अर्पण करता है ऐसा भक्त मुझे प्रिय होता है। किसी-किसी भक्त को तो भगवान के दर्शन की भी अपेक्षा नहीं होती। भगवान दर्शन दें तो आनंद और न दें तो भी आनंद। ऐसे निरपेक्ष भक्त के पीछे-पीछे भगवान भी घूमा करते हैं।

 

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥

 

जो मनुष्य न तो कभी हर्षित होता है, न ही कभी शोक करता है, न ही कभी पछताता है और न ही किसी चीज की कामना करता है, जो शुभ और अशुभ कर्मों से ऊपर उठा हुआ है वह भक्त मुझको प्रिय होता है।

 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः ॥

 

जो मनुष्य शत्रु और मित्र में, मान तथा अपमान में समान भाव से स्थित रहता है, जो सर्दी और गर्मी में, सुख तथा दुःख आदि द्वंद्वों में भी समान भाव से रखता है और जो दूषित संगति से मुक्त रहता है, वह मेरा प्रिय भक्त है। यहाँ भगवान बताना चाहते हैं कि साधारण मनुष्य धन-दौलत और अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्न होता है तथा विपरीत और दुख की घड़ी में रोने-धोने लगता है। किन्तु एक सच्चा साधक सुख और दुख दोनों को प्रभु का प्रसाद मानकर सदा प्रसन्न रहता है।

 

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌ ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥

 

जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त हैं, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने घर गृहस्थी में बहुत आसक्ति नही होती है ऐसा स्थिर बुद्धि वाला भक्त मुझे अत्यंत प्रिय लगता है।

 

जब भगवान ने अर्जुन से कहा, चलने की कोशिश तो करो, दिशाएँ बहुत हैं

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥

 

भगवान कहते हैं- हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस धर्म रूपी अमृत का ठीक उसी प्रकार से पालन करते हैं जैसा मेरे द्वारा कहा गया है और जो पूर्ण श्रद्धा के साथ मेरी शरण ग्रहण किये रहते हैं, ऐसी भक्ति में स्थित भक्त मुझको अत्यधिक प्रिय होते हैं। प्राय: संसार में ऐसा देखा जाता है कि लोग सत्संग तो करते हैं, पर साथ-साथ जाने-अनजाने में कुसंग भी करते रहते है, संयम तो करते हैं पर कहीं न कहीं असंयम भी होता रहता है, साधना तो करते हैं पर साथ ही असाधना भी चलती रहती है। जब तक साधना के साथ असाधना या गुणों के साथ अवगुण रहेंगे तब तक साधक की साधना और भक्त की भक्ति पूर्ण नहीं होती, क्योंकि गुण-अवगुण और संयम-असंयम उनमें भी पाए जाते हैं जो सच्चे साधक या भक्त नहीं हैं। इस जगत में पाप करना आसान है और पुण्य करना कठिन है। लोग पुण्य तो बहुत करते हैं लेकिन पाप को छोड़ते नहीं। इसलिए पुण्य को जितना फल मिलना चाहिए उतना मिल नहीं पाता। इसलिए इस विषय में हमें विशेष सावधान रहना चाहिए। यदि हमारे व्यवहार और वृति में कोई दोष हो तो उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि कोशिश करने के बावजूद भी दूर न हो सके तो प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए

भगवान श्रीकृष्ण के सच्चे भक्त और सगुण उपासक सूरदास जी अपने जाने-अनजाने अवगुणों को दूर करने के लिए किस तरह भगवान से प्रार्थना करते हैं

भगवान श्री शंकराचार्य भक्ति को आत्मा के प्रति समर्पण के रूप में परिभाषित करते हैं। आप भक्ति को ज्ञान से पूरी तरह अलग नहीं कर सकते। जब भक्ति परिपक्व होती है, तो वह ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है। एक सच्चा ज्ञानी भगवान हरि, भगवान कृष्ण, भगवान राम, भगवान शिव, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, भगवान यीशु और बुद्ध का भक्त होता है। वह समरस भक्त हैं। कुछ अज्ञानी लोग सोचते हैं कि ज्ञानी सूखा आदमी होता है और उसमें कोई भक्ति नहीं होती। यह एक दुखद गलती है. ज्ञानी का हृदय बहुत बड़ा होता है। श्री शंकराचार्य के भजनों को पढ़ें और उनकी भक्ति की गहराई को मापने का प्रयास करें। श्री अप्पाय दीक्षितार के लेखन को पढ़ें और उनकी असीम भक्ति की उदार गहराइयों को मापें।

 

स्वामी राम तीर्थ एक ज्ञानी थे। क्या वह भगवान कृष्ण का भक्त नहीं था? यदि कोई वेदांती भक्ति को छोड़ देता है, तो याद रखें, उसने वास्तव में वेदांत को समझा या समझा नहीं है। वही निर्गुण ब्रह्म अपने भक्तों की पवित्र पूजा के लिए सगुण ब्रह्म के रूप में एक कोने में थोड़ी सी माया के साथ प्रकट होता है। ईश्वर ही उनका ततस्थ लक्षण है।

 

भगवान कृष्ण ज्ञानी को प्रथम श्रेणी का भक्त मानते हैं। “इनमें से, बुद्धिमान, निरंतर सामंजस्यपूर्ण, एक की पूजा करने वाला, सर्वश्रेष्ठ है; मैं बुद्धिमानों को परम प्रिय हूं, और वह मुझे प्रिय है। ये सभी महान हैं, लेकिन मैं बुद्धिमानों को वास्तव में अपने आप के रूप में मानता हूं; वह स्वयं एकजुट है , मुझ पर स्थिर है, उच्चतम मार्ग।” (गीता: VII-17, 18.)

 

भक्ति का ज्ञान से तलाक नहीं हुआ है। इसके विपरीत ज्ञान भक्ति को तीव्र करता है। जिसे वेदांत का ज्ञान है वह अपनी भक्ति में अच्छी तरह से स्थापित है। वह स्थिर और दृढ़ है. कुछ अज्ञानी लोग कहते हैं कि यदि कोई भक्त वेदांत का अध्ययन करेगा तो उसकी भक्ति नष्ट हो जायेगी। यह गलत है। वेदांत का अध्ययन व्यक्ति की भक्ति को बढ़ाने और विकसित करने में सहायक है। वेदान्तिक साहित्य में पारंगत व्यक्ति की भक्ति सुदृढ होती है। भक्ति और ज्ञान पक्षी के दो पंखों की तरह हैं जो व्यक्ति को ब्रह्म तक, मुक्ति के शिखर तक उड़ने में मदद करते हैं।

 

इस कथा को ध्यानपूर्वक सुनो। शुकदेव पूर्ण ज्ञानी थे। वह अवधूत थे। फिर ऐसा कैसे हुआ कि उन्होंने भागवत का अध्ययन किया और राजा परीक्षित के लिए सात दिनों तक कथा आयोजित की? यह आश्चर्यों का आश्चर्य है! एक सिद्ध ज्ञानी अपनी ब्रह्मनिष्ठा में लीन थे, लेकिन वे अपनी ऊंचाइयों से नीचे आये और भक्ति का प्रचार किया। क्या उसने अपना आत्म-ज्ञान खो दिया? यहाँ सच्चाई क्या है? श्री वेद व्यास ने संसार के कल्याण के लिए अठारह पुराण लिखे। उन्होंने महाभारत लिखा जो प्रवृत्ति से अधिक संबंधित है। फिर भी वह मन ही मन संतुष्ट नहीं था। वह काफी बेचैन और बेचैन था. नारद ने व्यास से मुलाकात की और पूछा: “हे व्यास, आपके साथ क्या मामला है? आप डूबे हुए, उदास मूड में हैं।” व्यास ने अपने दिल की बात कही। तब नारद ने कहा: “आपको एक पुस्तक लिखनी होगी जिसमें कृष्ण-प्रेम और भगवान कृष्ण की लीलाओं का वर्णन हो। तभी आपको मानसिक शांति मिलेगी।” तब व्यास ने भागवत लिखी, एक ऐसी पुस्तक जो भक्ति रस और कीर्तन से भरपूर है। हरि का. ऋषियों ने भागवत का अध्ययन किया और शुकदेव के आश्रम के आसपास एक सुनसान जंगल में कथाएँ आयोजित कीं। शुकदेव ऋषियों की कथा के प्रति बहुत आकर्षित थे। वह सीधे अपने पिता के पास गये और उनसे भागवत का अध्ययन किया। तभी उन्होंने राजा परीक्षित को भागवत की शिक्षा दी।

 

शुकदेव की भक्ति देखो! इस घटना से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भक्ति और ज्ञान अविभाज्य हैं और ज्ञानी सबसे बड़ा भक्त है और जो वेदांती भक्ति के बारे में बुरा बोलते हैं वे भ्रमित, अज्ञानी व्यक्ति हैं

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