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(भाग:326)पाप, पुण्य,धर्म, अधर्म, सत्य और असत्य की परिभाषा को समझना ही वैदिक सनातन हिन्दू धर्म है?

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(भाग:326)पाप, पुण्य,धर्म, अधर्म, सत्य और असत्य की परिभाषा को समझना ही वैदिक सनातन हिन्दू धर्म है?

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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ईश्वर के वैदिक सनातन संस्कृतिक संविधान के विरुद्ध आचरण करना, अपने लिए और दूसरों के लिए दुख उत्पन्न करना ही ‘पाप’ कहलाता है। और ईश्वर के वैदिक सनातन संविधान के अनुकूल आचरण करना, अपने तथा दूसरों के लिए सुख उत्पन्न करना ही ‘पुण्य’ कहलाता है।

अपने निज स्वार्थ के लिए व्यक्ति पाप तो करना चाहता है, परंतु उसका फल भोगना नहीं चाहता। और पुण्य का फल तो भोगना चाहता है, परंतु पुण्य कर्म करना नहीं चाहता। यह कितने आश्चर्य की बात है, और कितनी विचित्र बात है।

व्यक्ति सोचता है, “मैं पाप करके कहीं छिप जाऊंगा। मुझे कोई नहीं देखेगा। किसी को पता नहीं चलेगा, कि मैंने पाप किया है। अथवा जब वह छिपकर पाप करता है। तब वह सोचता है, कि कोई मुझे देख न ले। मैं कभी पकड़ा न जाऊं। कभी मुझे दंड न मिल जाए।”* आदि आदि बातें सोचकर वह छिपकर पाप करता है।

पाप करने के बाद यदि कोई उस पर उंगली उठाए, तो वह उसे छिपाने की कोशिश करता है। और कहता है *”नहीं नहीं, मैंने ऐसा कोई पाप नहीं किया.”

“हो सकता है, वह मनुष्यों को धोखा देने में सफल हो जाए। छिपकर पाप कर ले, और लोगों को पता न चले। चतुराई से अथवा किसी को रिश्वत आदि देकर पाप के दंड से छूट जाए।” “परंतु ईश्वर से कैसे बचेगा? अपने आप को ईश्वर से कैसे छिपाएगा? क्योंकि ईश्वर तो नदी पहाड़ जंगल नगर समुद्र आकाश आदि जगह पर विद्यमान है। उससे तो छिपना तो असंभव है।”

ध्यान रहे, “पाप कर्म करने वाला व्यक्ति न तो ईश्वर से स्वयं छिप सकेगा, और न ही वह अपने पाप को छिपा सकेगा।” “फिर भी यदि कोई व्यक्ति पाप करेगा, तो उसके दंड से वह बच नहीं पायेगा। ईश्वर तो दंड देगा ही। पाप करने पर वह कभी किसी को माफ नहीं करता, दंड दिए बिना छोड़ता नहीं। चाहे ईश्वर हजारों लाखों वर्षों बाद भी उस बात का फल देवे। परंतु ईश्वर फल देगा अवश्य। पाप का फल दुख है। और कोई भी व्यक्ति दुख भोगना चाहता नहीं। इसलिए बुद्धिमत्ता की बात यही है, कि पाप न करना ही अच्छा है।”

“अतः पाप कर्म करने से बचें, पुण्य कर्म करें। आपका यह जीवन भी सुखमय होगा और अगला जन्म भी आप को अच्छे मनुष्य का मिलेगा।”

यह संसार है। यहां मनुष्य पशु पक्षी कीड़े मकोड़े जंगली एवं समुद्री जीव जंतुओं के रूप में असंख्य जीव रहते हैं। कोई छोटा, कोई बड़ा। कोई कमजोर, कोई बलवान। कोई अधिक बुद्धिमान, कोई कम बुद्धिमान। “ये जीव स्वार्थ के कारण अथवा अविद्या के कारण एक दूसरे पर आक्रमण भी करते रहते हैं। इसलिए यहां अपनी अपनी रक्षा के लिए संघर्ष करना और अपनी रक्षा करना सबके लिए अनिवार्य है।”

“जो जीव विद्या बल बुद्धि आदि में बलवान होता है, वह इन गुणों की सहायता से अपनी रक्षा कर लेता है। वह जीवित और सुरक्षित रहता है। और जिसके पास विद्या बल बुद्धि आदि गुण कम होते हैं, वह कमजोर पड़ जाता है। वह संसार में बहुत मार खाता है, और अन्त में नष्ट हो जाता है।”

“यदि आप इस संसार में ठीक ढंग से जीना चाहते हों, तो आपको भी ईश्वर की कृपा से वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन कर के, माता-पिता और गुरुजनों के अनुशासन में रहकर अपनी विद्या बल बुद्धि आदि को बढ़ाना होगा। तभी सही ढंग से आपके जीवन की रक्षा हो पाएगी।”

यह ठीक है, कि यह संसार है। “यहां स्वार्थी और परोपकारी सब प्रकार के लोग तथा अनेक प्रकार के जीव जंतु भी रहते हैं। वे अपने स्वार्थ के कारण एक दूसरे पर अन्याय भी करते हैं।” “यहां कुछ-कुछ मात्रा में दूसरों का अन्याय सहन भी करना पड़ता है। उसके बिना भी जीवन ठीक प्रकार से नहीं चलता।”

परंतु यह सहन करना भी एक सीमा तक ही उचित है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान नहीं हैं। “आप अन्याय को अनंत मात्रा तक सहन नहीं कर सकते। “कुछ मात्रा तक अन्याय को सहन करना चाहिए,” ऐसा धर्म के लक्षणों में ऋषियों ने लिखा है।” सीमा से अधिक धैर्य रखना, या सहन करना, (डरपोकपन) ‘कायरता’ कहलाती है।” “इसलिए जब आपकी सहनशक्ति की सीमा पूरी हो जाए, तब आपको अन्याय के विरोध में अपनी प्रतिक्रिया तेज करनी होगी, यह भी धर्म है। जैसे भगत सिंह महारानी लक्ष्मीबाई चंद्रशेखर आजाद इत्यादि महापुरुषों ने किया।” “यदि आप अन्याय का विरोध नहीं करेंगे, सीमा से अधिक सहन करेंगे, तो आप डिप्रेशन में जा सकते हैं। तब आप अपनी रक्षा नहीं कर पाएंगे, और दुष्ट लोग आपका नाश कर देंगे।”

“अतः कुछ-कुछ मात्रा में अन्याय को सहन भी करें, और दुष्ट लोगों से सावधान भी रहें, ताकि आपके जीवन की रक्षा हो सके।”

“पाप और पुण्य की परिभाषा क्या है? ईश्वर के वैदिक सनातन संस्कृतिक संविधान के विरुद्ध आचरण करना, अपने लिए और दूसरों के लिए दुख उत्पन्न करना ही ‘पाप’ कहलाता है। और ईश्वर के वैदिक सनातन संविधान के अनुकूल आचरण करना, अपने तथा दूसरों के लिए सुख उत्पन्न करना ही ‘पुण्य’ कहलाता है।”

“अपने निज स्वार्थ के लिए व्यक्ति पाप तो करना चाहता है, परंतु उसका फल भोगना नहीं चाहता। और पुण्य का फल तो भोगना चाहता है, परंतु पुण्य कर्म करना नहीं चाहता।”* यह कितने आश्चर्य की बात है, और कितनी विचित्र बात है।

व्यक्ति सोचता है, “मैं पाप करके कहीं छिप जाऊंगा। मुझे कोई नहीं देखेगा। किसी को पता नहीं चलेगा, कि मैंने पाप किया है। अथवा जब वह छिपकर पाप करता है। तब वह सोचता है, कि कोई मुझे देख न ले। मैं कभी पकड़ा न जाऊं। कभी मुझे दंड न मिल जाए।” आदि आदि बातें सोचकर वह छिपकर पाप करता है।

पाप करने के बाद यदि कोई उस पर उंगली उठाए, तो वह उसे छिपाने की कोशिश करता है। और कहता है “नहीं नहीं, मैंने ऐसा कोई पाप नहीं किया.”

“हो सकता है, वह मनुष्यों को धोखा देने में सफल हो जाए। छिपकर पाप कर ले, और लोगों को पता न चले। चतुराई से अथवा किसी को रिश्वत आदि देकर पाप के दंड से छूट जाए।” “परंतु ईश्वर से कैसे बचेगा? अपने आप को ईश्वर से कैसे छिपाएगा? क्योंकि ईश्वर तो नदी पहाड़ जंगल नगर समुद्र आकाश आदि जगह पर विद्यमान है। उससे तो छिपना तो असंभव है।”

ध्यान रहे, “पाप कर्म करने वाला व्यक्ति न तो ईश्वर से स्वयं छिप सकेगा, और न ही वह अपने पाप को छिपा सकेगा।” “फिर भी यदि कोई व्यक्ति पाप करेगा, तो उसके दंड से वह बच नहीं पायेगा। ईश्वर तो दंड देगा ही। पाप करने पर वह कभी किसी को माफ नहीं करता, दंड दिए बिना छोड़ता नहीं। चाहे ईश्वर हजारों लाखों वर्षों बाद भी उस बात का फल देवे। परंतु ईश्वर फल देगा अवश्य। पाप का फल दुख है। और कोई भी व्यक्ति दुख भोगना चाहता नहीं। इसलिए बुद्धिमत्ता की बात यही है, कि पाप न करना ही अच्छा है।”

“अतः पाप कर्म करने से बचें, पुण्य कर्म करें। आपका यह जीवन भी सुखमय होगा और अगला जन्म भी आप को अच्छे मनुष्य का मिलेगा।”

“पाप और पुण्य की परिभाषा क्या है? ईश्वर के वैदिक सनातन संस्कृतिक संविधान के विरुद्ध आचरण करना, अपने लिए और दूसरों के लिए दुख उत्पन्न करना ही ‘पाप’ कहलाता है। और ईश्वर के वैदिक सनातन संविधान के अनुकूल आचरण करना, अपने तथा दूसरों के लिए सुख उत्पन्न करना ही ‘पुण्य’ कहलाता है।”*

“अपने निज स्वार्थ के लिए व्यक्ति पाप तो करना चाहता है, परंतु उसका फल भोगना नहीं चाहता। और पुण्य का फल तो भोगना चाहता है, परंतु पुण्य कर्म करना नहीं चाहता।” यह कितने आश्चर्य की बात है, और कितनी विचित्र बात है।

व्यक्ति सोचता है, “मैं पाप करके कहीं छिप जाऊंगा। मुझे कोई नहीं देखेगा। किसी को पता नहीं चलेगा, कि मैंने पाप किया है। अथवा जब वह छिपकर पाप करता है। तब वह सोचता है, कि कोई मुझे देख न ले। मैं कभी पकड़ा न जाऊं। कभी मुझे दंड न मिल जाए।”

आदि आदि बातें सोचकर वह छिपकर पाप करता है।

पाप करने के बाद यदि कोई उस पर उंगली उठाए, तो वह उसे छिपाने की कोशिश करता है। और कहता है “नहीं नहीं, मैंने ऐसा कोई पाप नहीं किया.”

“हो सकता है, वह मनुष्यों को धोखा देने में सफल हो जाए। छिपकर पाप कर ले, और लोगों को पता न चले। चतुराई से अथवा किसी को रिश्वत आदि देकर पाप के दंड से छूट जाए।” “परंतु ईश्वर से कैसे बचेगा? अपने आप को ईश्वर से कैसे छिपाएगा? क्योंकि ईश्वर तो नदी पहाड़ जंगल नगर समुद्र आकाश आदि जगह पर विद्यमान है। उससे तो छिपना तो असंभव है।”

ध्यान रहे, “पाप कर्म करने वाला व्यक्ति न तो ईश्वर से स्वयं छिप सकेगा, और न ही वह अपने पाप को छिपा सकेगा।” “फिर भी यदि कोई व्यक्ति पाप करेगा, तो उसके दंड से वह बच नहीं पायेगा। ईश्वर तो दंड देगा ही। पाप करने पर वह कभी किसी को माफ नहीं करता, दंड दिए बिना छोड़ता नहीं। चाहे ईश्वर हजारों लाखों वर्षों बाद भी उस बात का फल देवे। परंतु ईश्वर फल देगा अवश्य। पाप का फल दुख है। और कोई भी व्यक्ति दुख भोगना चाहता नहीं। इसलिए बुद्धिमत्ता की बात यही है, कि पाप न करना ही अच्छा है।”

“अतः पाप कर्म करने से बचें, पुण्य कर्म करें। आपका यह जीवन भी सुखमय होगा और अगला जन्म भी आप को अच्छे मनुष्य का मिलेगा।

प्रायः ऐसा सुनते हैं, कि “प्रत्येक व्यक्ति को व्यवहार कुशल होना चाहिए।” क्योंकि जो व्यक्ति व्यवहार में कुशल होता है। वह अधिकांश लोगों को प्रसन्न कर लेता है। “सबको प्रसन्न करना तो असंभव है। वह तो सर्वशक्तिमान ईश्वर भी नहीं कर सकता।”

एक बार एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा, क्या सर्वशक्तिमान ईश्वर भी सबको प्रसन्न नहीं कर सकता? मैंने उसे उत्तर दिया, “नहीं कर सकता। ईश्वर भले ही सर्वशक्तिमान है, फिर भी वह सबको प्रसन्न नहीं कर सकता। क्योंकि संसार में कुछ लोग तो अच्छे हैं, और कुछ दुष्ट हैं। जब दुष्ट लोग दूसरों को परेशान करते हैं, तो ईश्वर उन्हें दंड देता है। जब ईश्वर उन्हें दंड देता है, तो वे दुखी होते हैं। दुख भोगना कोई व्यक्ति चाहता नहीं। इसलिए वे लोग ईश्वर से नाराज होते हैं। इस कारण से सर्वशक्तिमान होते हुए भी सबको प्रसन्न नहीं कर सकता।” अस्तु।

“जब ईश्वर भी सबको प्रसन्न नहीं कर सकता, तो मनुष्य तो अल्पशक्तिमान है, वह सबको प्रसन्न कैसे कर लेगा!” इसलिए व्यवहार कुशलता का सही अर्थ यह समझना चाहिए, कि “जो व्यक्ति धार्मिक परोपकारी सज्जन लोगों को प्रसन्न कर ले, वह व्यवहारकुशल है।” “ऐसा व्यक्ति स्वयं भी सुखी रहता है, और दूसरों को भी सुख देता है, इसीलिए उसे ‘व्यवहारकुशल’ कहते हैं।”

परंतु आजकल लोग व्यवहारकुशल शब्द का अर्थ ऐसा मानते हैं, “जो चालाक हो, धोखेबाज़ हो, सबको मूर्ख बनाने में चतुर हो, वह व्यवहारकुशल है।” यह परिभाषा ठीक नहीं है। क्योंकि इसकी पुष्टि प्राचीन काल के किसी भी ऋषि मुनि अथवा विद्वान ने नहीं की। “जो लोग धोखेबाज होते हैं, छली कपटी होते हैं, वे लोग स्वयं भी दुखी रहते हैं, और दूसरों को भी दुख देते हैं। इसलिए उनको व्यवहारकुशल नहीं कहना चाहिए।”

“पुरानी परिभाषाओं को बिगाड़ें नहीं, बल्कि उनकी सुरक्षा करें। “जिस अर्थ में जो शब्द पहले से चला आ रहा है, उसको उसी अर्थ में समझें और उसका प्रचार करें। इससे वैदिक ज्ञान की परंपरा सुरक्षित रहेगी और संसार में सबको सुख मिलेगा।”

“अब विद्वान लोग ऐसा भी कहते हैं, कि “जो व्यक्ति व्यवहारकुशल होता है, वह शीशे के समान चमकता है।” “अर्थात उसकी प्रसिद्धि यश कीर्ति बहुत अधिक होती है। सुकीर्ति होती है। उससे उसका भी सुख बढ़ता है, और दूसरों का भी।”

“यदि आप भी अपना और सबका सुख बढ़ाना चाहते हों, तो ‘सही अर्थों में व्यवहारकुशल’ बनें। स्वयं सुखी रहें और दूसरों को भी सुख देवें।आप भी शीशे की तरह खूब चमकेंगे।”

 

जन हितार्थ प्रस्तुति:-

स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।

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