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(भाग:323) भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गौओं की जननी सुरभी गायों की प्राकट्य लीला का वर्णन

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(भाग:323) भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गौओं की जननी सुरभी गायों की प्राकट्य लीला का वर्णन

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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जानिए सुरभि गाय की मंहिमां का वर्णन,कहते हैं एक बार ब्रह्माजी अपने एक मुख से अमृत पी रहे थे, उसी समय उनके दूसरे मुंह से अमृत फेन निकला और इससे धरा पर ‘सुरभि’ नामक गाय की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार दक्ष प्रजापति की पुत्रियों में ‘सुरभि’ को गौ माता का स्वरूप बताया जाता है। सुरभि अर्थात सुनहरे रंग की गाय, जिसके दूध से ‘क्षीर सागर’ बनने की मान्यता है।

 

जिस गाय के घर में रहने से भगवान राधा-कृष्ण का वास रहता है, ऐसी गोमाता की आज दुर्दशा हो रही है। पहले घर-घर में गाय का पालन पोषण, पूजन होता था, अब कुछ ही घर में गोमाता की देखभाल की जा रही है। गाय तो साक्षात भगवान है। सुरभि गाय के दूध की एक बूंद से भगवान प्रकट हुए हैं और संपूर्ण सृष्टि की रचना हुई है।

सुुरभि गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि एवं धरोहर मानी गई है, जिसकी रचना भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

 

गौओं की जननी, सम्पूर्ण गौओं की बीजस्वरूपा आदि गौ सुरभी का प्राकट्य

एक बार भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में श्रीराधा व गोपियों के साथ वृन्दावन में विहार कर रहे थे। सहसा परम कौतुकी

 

राधिकापति भगवान श्रीकृष्ण के मन में दूध पीने की इच्छा होने लगी। तब भगवान ने अपने वामभाग से लीलापूर्वक ‘सुरभी’ गौ को प्रकट किया। उसके साथ बछड़ा भी था जिसका नाम ‘मनोरथ’ था। उस सवत्सा गौ को सामने देख श्रीकृष्ण के पार्षद सुदामा ने एक रत्नमय पात्र में उसका दूध दुहा और उस सुरभी से दुहे गये गर्म-गर्म स्वादिष्ट दूध को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने पीया। मृत्यु तथा बुढ़ापा को हरने वाला वह दुग्ध अमृत से भी बढ़कर था। सहसा दूध का वह पात्र हाथ से छूटकर गिर पड़ा और पृथ्वी पर सारा दूध फैल गया। उस दूध से वहां एक सरोवर बन गया जिसकी लम्बाई-चौड़ाई सब ओर से सौ-सौ योजन थी। गोलोक में वह सरोवर ‘क्षीरसरोवर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोपिकाओं और श्रीराधा के लिए वह क्रीडा-सरोवर बन गया। उस क्रीडा-सरोवर के घाट दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित थे। भगवान की इच्छा से उसी समय असंख्य कामधेनु गौएं प्रकट हो गयीं। जितनी वे गौएं थीं, उतने ही बछड़े भी उस सुरभी गौ के रोमकूप से निकल आए। इस प्रकार उन सुरभी गौ से ही गौओं की सृष्टि मानी गयी है।

 

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने सुरभि गौ की पूजा की। इनकी पूजा का मन्त्र है–’ऊँ सुरभ्यै नम:’। यह षडक्षर मन्त्र एक लाख जप करने पर सिद्ध हो जाता है और साधक को ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति देने के साथ ही उनकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा करने वाला कल्पवृक्ष है। लक्ष्मीस्वरूपा, राधा की सहचरी, गौओं की आदि जननी सुरभी गौ की पूजा दीपावली के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में की जाती है। कलश, गाय के मस्तक, गौओं के बांधने के खम्भे, शालग्राम, जल अथवा अग्नि में सुरभी की भावना (ध्यान) करके इनकी पूजा कर सकते हैं।

 

एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र ने आदि गौ सुरभी की स्तुति की–

 

नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नम:।

गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।।

नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नम:।

नम: कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नम:।।

कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।

श्रीदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नम:।।

शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नम:।

यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नम:।। (देवीभागवत ९।४९।२४-२७)

 

अर्थात्–देवी एवं महादेवी सुरभी को नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हे नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिए कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।

 

इस स्तुति से आदि गौ सुरभि प्रसन्न हो गईं। फिर तो सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ होने लगे जिससे देवता भी प्रसन्न हो गए।

 

ललकते सुर भी सुरभी हेतु,

यही है धर्म-शक्ति का केतु।

नन्दिनी-कामधेनु का रूप,

घूमते जिनके पीछे भूप।।

 

एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’

 

इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।

 

धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।

 

कामधेनुकृष्णगो-सेवागोपालगोमातागोलोकगोविन्दगौनीलवृषभपशुपतिवृषभध्वजश्रीकृष्णश्रीकृष्ण और गायसुरभिसुरभी

 

भगवान श्रीकृष्ण का गोलोकधाम

परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ

 

भगवान श्रीकृष्ण और चंद्रावली सखी

भगवान की पूजा की गई है।

ब्राहमण अर्थात श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए तीन आचरण सर्वश्रेष्ठ हैं 1 गौमाता की सेवा 2 गंगा में स्नान ध्यान 3 गायत्री मंत्र का जाप. बहुत ही हृदय भेदी समाज में आज हम रह रहें हैं जहाँ माँ को दूध से ज्यादा मांस के रुप में देखा जा रहा है, कलुषित राजनीति में गौमाता को तबाह कर रहे हैं. दिल्ली शहर में गाय नहीं पाल सकते पोल्यूशन का बहाना है अजीब सी घुटन महसूस होती है. देवरहा बाबाजी से पूछा गया कि हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया कब बनेगा तब उन्होंने कहा कि जब हमारे देश में गौधन भरपूर होगा. गौमाता संसार के लिए चलता-फिरता वैद्य है, वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं कि ए2 दूध अठारह तरह की बीमारियां खत्म करता है जो सिर्फ और सिर्फ हमारे एशिया प्रदेश के गौ माता वंश में ही संभव है जबकि विदेशी नस्ल की एच एफ और जर्सी पशु का ए1 दूध अठारह तरह की बीमारियां पैदा करता है लेकिन हमारी राजनितिक सोच ना केवल गौमाता वंश को तबाह कर रही है अपितु खुद अपने संहार का रास्ता भी साफ कर रही है. गौबर खाद से कृषि द्वारा हम पानी का लेवल उठा सकते हैं बाढ़ की समस्या का हल भी ये है अगर गहराईयों में उतरें तो उर्जा विद्युत स्वस्थ खानपान बिमारियों से मुक्त समाज किसानो की आत्महत्या से बचाव और उन्नत अर्थव्यवस्था मात्र गौमाता वंश से संभव है. उद्गार तो पूरी लिखने लायक हैं पर यहाँ इतना संभव नहीं है.

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