देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:। परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। —गीता 3/11
अर्थ : यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुम्हें प्रसन्न रखें। इस प्रकार एक-दूसरे की परस्पर उन्नति, प्रसन्नता अथवा सद्भावना के भाव से तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
आदर्श गृहस्थ जीवन के लिए कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण प्रेरक संकेत गीता के इस श्लोक से लिए जा सकते हैं।
यज्ञ भावना भगवत गीता की आदर्श प्रेरणा है। इसे अवश्य स्वीकार करें। हवन यज्ञ के रूप में भी इस भाव को लिया जा सकता है। गृहस्थाश्रम में यदि हवन यज्ञ की आस्था बने, तो घर-परिवार के लिए अच्छा लक्ष्ण है। किसी भी तरह के प्रदूषण, अशुभता, अशुद्धता, दुर्भाव आदि से मुक्ति का बहुत वैचारिक, व्यावहारिक साधन है- यज्ञ।
गीता में यज्ञ का अर्थ नि:स्वार्थ परहित की भावना से भी है। जैसे देवता- सूर्य, चंद्र, वायु, वरुण (जल) आदि नि:स्वार्थ भाव से परहित कर रहे हैं। देवता अर्थात जो देता है। इसी प्रकार हम भी केवल अपने स्वार्थों को पूरा करने या अपने सुख के लिए ही न जीएं। सुख देने की भावना बनाएं।
प्रकृति का नियम है, दो और लो। बांटने में जो शांति है, वह बटोरने में नहीं। नदियां बांटती हैं, उनका जल मीठा होता है, समुद्र केवल बटोरता है- खारा रह जाता है। प्यार दो-प्यार लो। केवल चाहने से सम्मान या सद्भाव नहीं मिलता, देने से मिलता है। सूर्य प्रकाश दे रहा है, हम भी सद्भावना का प्रकाश फैलाएं, चंद्रमा शीतलता दे रहा है, आप भी शीतल रहें, शीतलता बांटें, चिलम की तरह न रहें, जो तपे और तपाए। सुराही को आदर्श बनाएं, जो शीतल रहती है और ठंडे जल के रूप में शीतलता बांटती है। वायु गतिमान है- कर्तव्य पथ पर सदैव आगे बढ़ें। जल का तत्व रस है, जीवन में नीरसता नहीं सरसता हो। पृथ्वी से सहनशीलता का गुण सीखें, तथा आकाश से- खुलापन, खुले, खिले, खाली जीवन की आनंदमय प्रेरणा।
पारस्परिक सद्भाव का एक रूप यह भी है- बड़े छोटों के प्रति स्नेह रखें, छोटे माता-पिता, बड़े- बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव। बड़े-बुजुर्गों को किसी भी तरह घर का भार समझकर तिरस्कार नहीं करें, गृहस्थ जीवन का सौभाग्य है किसी बड़े-बुजुर्ग की उपस्थिति।
घर में आए अतिथि के प्रति सद्भावना-सम्मान का व्यवहार भी इसी का प्रेरक, आवश्यक भाव है। मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:, अतिथि देवो भव: की परम्परा का सजीव रहना गृहस्थ जीवन की शोभा एवं धन्यता है।
१. चार बातों को याद रखे :- बड़े बूढ़ो का आदर करना, छोटों की रक्षा करना एवं उनपर स्नेह करना, बुद्धिमानो से सलाह लेना और मूर्खो के साथ कभी न उलझना !
२. चार चीजें पहले दुर्बल दिखती है परन्तु परवाह न करने पर बढ़कर दुःख का कारण बनती है :- अग्नि, रोग, ऋण और पाप !
३. चार चीजो का सदा सेवन करना चाहिए :- सत्संग, संतोष, दान और दया !
४. चार अवस्थाओ में आदमी बिगड़ता है :- जवानी, धन, अधिकार और अविवेक !
५. चार चीजे मनुष्य को बड़े भाग्य से मिलते है :- भगवान को याद रखने की लगन, संतो की संगती, चरित्र की निर्मलता और उदारता !
६. चार गुण बहुत दुर्लभ है :- धन में पवित्रता, दान में विनय, वीरता में दया और अधिकार में निराभिमानता !
७. चार चीजो पर भरोसा मत करो :- बिना जीता हुआ मन, शत्रु की प्रीति, स्वार्थी की खुशामद और बाजारू ज्योतिषियों की भविष्यवाणी !
८. चार चीजो पर भरोसा रखो :- सत्य, पुरुषार्थ, स्वार्थहीन और मित्र !
९. चार चीजे जाकर फिर नहीं लौटती :- मुह से निकली बात, कमान से निकला तीर, बीती हुई उम्र और मिटा हुआ ज्ञान !
१०. चार बातों को हमेशा याद रखे :- दूसरे के द्वारा अपने ऊपर किया गया उपकार, अपने द्वारा दूसरे पर किया गया अपकार, मृत्यु और भगवान !
११. चार के संग से बचने की चेस्टा करे :- नास्तिक, अन्याय का धन, पर(परायी) नारी और परनिन्दा !
१२. चार चीजो पर मनुष्य का बस नहीं चलता :- जीवन, मरण, यश और अपयश !
१३. चार पर परिचय चार अवस्थाओं में मिलता है :- दरिद्रता में मित्र का, निर्धनता में स्त्री का, रण में शूरवीर का और मदनामी में बंधू-बान्धवो का !
१४. चार बातों में मनुष्य का कल्याण है :- वाणी के सयं में, अल्प निद्रा में, अल्प आहार में और एकांत के भवत्स्मरण में !
१५. शुद्ध साधना के लिए चार बातो का पालन आवश्यक है :- भूख से काम खाना, लोक प्रतिष्ठा का त्याग, निर्धनता का स्वीकार और ईश्वर की इच्छा में संतोष !
१६. चार प्रकार के मनुष्य होते है : (क) मक्खीचूस – न आप खाय और न दुसरो को दे ! (ख) कंजूस – आप तो खाय पर दुसरो को न दे ! (ग) उदार – आप भी खाय और दूसरे को भी दे ! (घ) दाता – आप न खाय और दूसरे को दे ! यदि सब लोग दाता नहीं बन सकते तो कम से कम उदार तो बनना ही चाहिए !
१७. मन के चार प्रकार है :- धर्म से विमुख जीव का मन मुर्दा है, पापी का मन रोगी है, लोभी तथा स्वार्थी का मन आलसी है और भजन साधना में तत्पर का मन स्वस्थ है