भाग:257) सामाजिक समरसता के सबसे जीवंत प्रतीक हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का इतिहास
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने विशाल मनोबल वाली वनवासियों की सेना की सहायता से ही रावण का घमंड तोड़ा। रावण ने राम की अर्धांगिनी का अपहरण किया था। यह ऐसा मसला था, जिससे रघुवंश की कीर्ति सीधे-सीधे जुड़ी थी। राम चाहते, तो अयोध्या और मित्र राज्यों की सेना की सहायता ले सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कर संदेश दिया कि कितनी भी बड़ी समस्या हो, सामाजिक समरसता के सहारे उसे दूर किया जा सकता है।
अयोध्या में भव्य, दिव्य भगवान राम का राष्ट्र मंदिर दुनिया भर में रह रहे आस्थावान भारतीयों के लिए सबसे बड़ी ख़ुशखबरी है। भारत तेजी से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे समय में अयोध्या का राम मंदिर भारतीय चेतना में आत्मनिर्भरता का मूल मंत्र साबित होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। विश्व बिरादरी के सामने राम मंदिर निर्माण में व्यापक जन-सहयोग के संकल्प ने भारत में अनेकता में एकता के भाव को नए सिरे से न केवल परिभाषित किया, बल्कि भारतीयों को परस्पर प्रगाढ़ सकारात्मकता के आकर्षण में बांधने का अदृश्य स्थाई सूत्र भी साबित हुआ।
अयोध्या के राजकुमार राम को भगवान का दर्जा वनवासियों के बीच रहने के कारण ही मिला। राम का पूरा जीवन सामाजिक समरसता के सर्वोत्तम उदाहरण सामने रखता है। चाहे निषाद राज से मित्रता कर उन्हें बराबरी का स्तर देने का मामला हो या शबरी के झूठे बेर खाने का या अहिल्या के उद्धार का या जटायु को सम्मान देने की कथा या फिर बहुत सी वनवासी प्रजातियों को बराबरी का दर्जा देने का मामला, राम का पूरा जीवन समाज के सभी तबक़ों को एक बराबर समझने में ही बीता। उन्होंने ज्ञानी-विज्ञानी ऋषियों को निर्भय किया, उनको पूरा सम्मान दिया, अनेक क्षत्रिय राजाओं के साथ अच्छे संबंध स्थापित किए, तो वनवासियों को भी सम्मान की दृष्टि से देखा और अपने समकक्ष ही समझा।
पौराणिक साहित्य में बहुत बार वर्णन मिलता है कि त्रेता युग में अश्वमेध यज्ञ की परंपरा थी। अश्वमेध यज्ञ राज्य या शासन के विस्तार के लिए कराए जाते थे। यज्ञ आहूत कर मंत्रपूत अश्व यानी घोड़ा छोड़ दिया जाता था। जिन राज्यों में घोड़ा निर्विरोध गुजर जाता था, उन राज्यों को यज्ञ कराने वाले राजा के अधीन मान लिया जाता था और जो घोड़े को रोक लेते थे, उनके साथ युद्ध किया जाता था। मतलब यह हुआ कि राज्य विस्तार के लिए युद्ध की परंपरा तब थी। इसके लिए मित्र सेनाएं एक साथ भी आती ही होंगी। जैसा कि द्वापर युग में महाभारत महायुद्ध के समय भी हुआ था।
किंतु राम ने शक्तिशाली सप्तद्वीपाधिपति लंकेश रावण को परास्त करने के लिए अपने मित्र राज्यों की सेनाओं को एकजुट करने की नीति नहीं अपनाई, बल्कि विशाल मनोबल वाली वनवासियों की सेना के बल पर ही रावण का अहंकार चूर-चूर किया। रावण ने राम की अर्धांगिनी का अपहरण किया था। यह ऐसा मसला था, जिससे रघुवंश की कीर्ति सीधे-सीधे जुड़ी थी। राम चाहते, तो अयोध्या और मित्र राज्यों की सेना की सहायता ले सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कर सर्वोच्च संदेश दिया कि कितनी भी बड़ी बाधा हो, समस्या हो, कितना ही शक्तिशाली खलनायक हो, विपरीत परिस्थिति हो, सामाजिक समरसता के सहारे सभी पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
राम का जीवन समाज को सकारात्मक संदेश देता है। सामाजिक समरसता की भावना तभी बलवती हो सकती है, जब व्यक्ति अपने पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति सजग हो। राम ने बिना कोई आपत्ति जताए पिता की आज्ञा का पालन किया और 14 वर्ष का वनवास जिया। राम क्षत्रिय थे। लेकिन माता कैकेयी के षड्यंत्र पर उन्होंने धैर्य और संयम नहीं खोया। हर हाल में माता-पिता की आज्ञा माननी है, यह संदेश उन्होंने दिया। रामचरित मानस में राम को वनवास और भरत को राजगद्दी के निर्णय पर लक्ष्मण के कुपित होने का वर्णन तो है, लेकिन राम के मन में किसी तरह के विचलन का वर्णन बिल्कुल नहीं है। वाल्मीकि की रामायण में तो लक्ष्मण इतने कुपित होते हैं कि वे राम से वनवास का आदेश ठुकराने का निवेदन करते हैं। लक्ष्मण कहते हैं कि वे विद्रोह कर देंगे। वे इतने आक्रोश में आते हैं कि पिता दशरथ की हत्या तक की बात कर बैठते हैं। लेकिन राम उन्हें धैर्यपूर्वक शांत करते हैं।
माता-पिता की आज्ञा के पालन में राम कोई विचलन स्वीकार नहीं करते। वे चाहते, तो सुख-सुविधाओं से जुड़े बहुत से साधन साथ लेकर जा सकते थे, क्योंकि वनवास के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं थी। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं ले जाने का निर्णय किया। उन्होंने राजपुरुष वाला वेश और श्रृंगार भी त्याग दिया। वनवासी वल्कल पहनते थे, इसलिए राम ने भी वैसा ही किया। पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण को भी ऐसा ही करने को कहा।
निषादराज गुह ने उनसे निवेदन किया कि वनवास के 14 वर्ष वे श्रृंगवेरपुर में ही बिताएं, लेकिन वहां रात्रि विश्राम के लिए भी राम ने सुख-सुविधाएं नहीं लीं। घास के बिछौने पर ही सोए। कैकेयी ने स्वपुत्र भरत के लिए राज-पाठ तो मांग लिया था, लेकिन उस समय भरत अयोध्या में नहीं, बल्कि अपनी ननिहाल में थे। राम वन को निकले, तब भरत को अयोध्या लाने के लिए राजदूत अयोध्या से निकले। पूरे रास्ते भरत को अयोध्या के घटनाक्रम की जानकारी नहीं दी गई। अयोध्या पहुंचने पर जब उन्हें सब पता चला, तो वे मां कैकेयी पर बहुत क्रोधित हुए और राम को वापस लाने का निर्णय किया। भरत जब दल-बल के साथ राम से मिलने जंगल पहुंचे, तो तीनों माताएं भी उनके साथ थीं। कैकेयी को भी राम को वन भेजने के निर्णय पर पछतावा था। उन्होंने भी राम से अयोध्या लौट कर राजतिलक कराने का आग्रह किया, किंतु राम नहीं माने। राम वनगमन के शोक में दशरथ स्वर्ग सिधार चुके थे। ऐसे में राम ने हर हाल में पित्राज्ञा मानने का ही निर्णय किया। हां, दशरथ जीवित होते और वे लौटने का आदेश देते, तो राम उसका पालन कर सकते थे। इस तरह राम ने सनातन समाज को बताया कि बड़ों के आदेश का पालन हर हाल में होना चाहिए।
रावण का वध कर अयोध्या लौटने के बाद राम का राजतिलक हुआ। जनश्रुति है कि तब राम ने एक धोबी की बात सुनकर सीता का परित्याग कर दिया। इस पर सवाल भी उठाए जाते हैं। असल में कहा जाता है कि धोबी ने अपनी पत्नी को घर से निकालते हुए कहा था कि मैं राजा राम नहीं हूं, जो तुम्हारी बातों में आ जाऊंगा। कुछ ग्रंथों में यह उल्लेख भी है कि सीता अग्निपरीक्षा देकर ही अयोध्या लौटी थीं। बहुत से लोग इसकी भी आलोचना करते हैं। साथ ही बहुत से उपदेशक इसकी व्याख्या रूपक के रूप में करते हैं। ध्यान रखने वाली बात यह है कि राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। अर्थ यह हुआ कि उन्होंने सामाजिक परंपराओं को ध्यान में रखते हुए पुरुषोचित व्यवहार ही किया, उस समय जारी परंपरा का निर्वाह किया।
कितना ही बड़ा नायक हो, उसे लेकर नकारात्मक बातें भी समाज में होती ही हैं। माता सीता की अग्निपरीक्षा को लेकर भी तत्कालीन समाज में खुसफुसाहट हुई हो, तो यह सामान्य परिघटना ही कही जाएगी। राम राजा थे, फिर भी उन्होंने धोबी के वचनों पर संज्ञान लिया और जीवन संगिनी को त्यागने का निर्णय किया। राम से जुड़े प्राचीन साहित्य में हालांकि इस बात का उल्लेख है कि राम से विवाह से पूर्व सीता ने नर-मादा तोतों के एक जोड़े को अलग कर दिया था। गर्भवती मादा ने साथी के वियोग में प्राण त्याग दिए थे। बाद में नर तोता भी मर गया। वही तोता अगले जन्म में धोबी बना और उसने सीता से बदला लिया। कथा कुछ भी हो, हम सिर्फ इस तथ्य का उल्लेख कर रहे हैं कि राजा होते हुए भी राम ने शक्तिहीन समझे जाने वालों को महत्व दिया। सीता उनकी जीवन-संगिनी थीं। उनके अपहरण के बाद परदेस जाकर उन्होंने रावण जैसे शक्तिशाली राजा का वध किया और छोटी सी बात पर उन्हीं सीता को त्याग दिया।
राम के जीवन से हम सामाजिक समरसता का संदेश ग्रहण कर सकें, तो इससे उत्तम कुछ नहीं। अयोध्या में राम का भव्य मंदिर इस संदेश के प्रचार-प्रसार का मुख्य बिंदु बनेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। सामाजिक समरसता का संदेश संपूर्ण भारत में फैले, इस कारण ही मंदिर निर्माण प्रबंधन ने हर देशवासी से सहयोग लेने का निर्णय किया था। राम मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण का संकल्प हर हिंदू के मन में जागृत होगा, ऐसा विश्वास किया जा सकता है
शादी के बाद राम ने सीता को दिया था एक वचन, धोबी के आरोप लगाने के बाद जब सीता को राम ने दिया था वनवास तब उन्होंने अपने लिए कठिन नियम बनाए थे।
अक्सर देखा जाता है कि भारतीय परिवारों में ज्यादातर व्रत-नियम आदि सिर्फ पत्नियों के लिए होते हैं। जिसकी समय-समय पर आलोचना भी होती रहती है। लेकिन, सनातन परंपरा में कभी ऐसा नहीं रहा है। पति-पत्नी दोनों के लिए कुछ कठिन नियम बनाए गए हैं. हालांकि आधुनिक युग में अब गृहस्थियों में काफी तनाव और बिखराव हो रहा है, जिसका मूल कारण एक-दूसरे प्रति समर्पण ना होना है। राम कथा में कुछ ऐसे प्रसंग आते हैं जो हमें सिखाते हैं कि वास्तव में पति-पत्नी का रिश्ता कैसा होना चाहिए।
रामायण में सीता स्वयंवर के बाद जब राम सीता का विवाह हुआ। सीता राम के साथ अयोध्या आईं तब राम ने सबसे पहले सीता को उपहार में एक वचन दिया। राम ने सीता को ये वचन दिया था कि उनके जीवन में सीता के अलावा कोई स्त्री नहीं आएगी। उस समय राजाओं में कई विवाह करने की परंपरा थी लेकिन राम ने सीता के प्रति अपना समर्पण दिखाते हुए उन्हें ये वचन दिया था कि वे हमेशा एक पत्नी व्रत का पालन करेंगे। साथ ही, ये भी भरोसा दिलाया था कि जिस स्थिति में सीता रहेंगी, खुद भी वैसे ही रहेंगे। इस बात का प्रमाण राम ने रावण वध के बाद दिया भी।
रावण को मारने के बाद जब अयोध्या आकर राम ने राज्य संभाला तो धोबी ने सीता के चरित्र पर सवाल उठाया। समाज में कोई बुरी परंपरा शुरू ना हो, इस कारण राम को सीता का त्याग करके उन्हें वनवास देना पड़ा। जब सीता वनवास पर गईं तब राम ने अपने लिए कुछ कठिन नियम बना लिए। राजा होने के बाद भी वो जमीन पर सोते, वैसा ही खाना खाते जैसा वनवास में रहने पर कोई इंसान खा सकता है, सारे उत्सव और विलासिता से उन्होंने खुद को दूर कर लिया। महल में रहकर भी उन्होंने सीता की तरह ही वनवासी जीवन बिताया। ये प्रसंग हमें समझाता है कि पति-पत्नी के बीच किस तरह का समर्पण होना चाहिए। सारे नियम सिर्फ महिलाओं पर ना थोपे जाएं, पुरुषों को भी अपनी गृहस्थी और पत्नी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझना और निभाना चाहिए।