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(भाग:159)गुरुकृपा से प्रवाहित ज्ञानधारा के कण एकत्रित करने के लिए दीप प्रज्वलन तथा गुरुवंदना के साथ सत्र शुभारंभ

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भाग:159)गुरु कृपा से प्रवाहित ज्ञानधारा के कण एकत्रित करने के लिए दीप प्रज्वलन तथा गुरु वंदना के साथ सत्र शुभारंभ

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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गीता जी की प्रेम ज्योति को गुरुदेव, हमारे अंतरंग में प्रज्वलित करना चाहते हैं। इस ज्योति के आलोक में वे हमारे जीवन का मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं, हमारे मार्ग को आलोकित करना चाहते हैं ताकि हम हमारे जीवन के निःश्रेयस तक पहुँच सके।

धर्म की एक व्याख्या की गई है।

अहो अर्जुनााचिये पांती । जे परिसणया योग्य होती ।
तिहीं कृ पा करून संतीं । अवधान द्यावे ॥ ६२॥

अभ्युदय निःश्रेयस हेतुर् य: सधर्म:, जो अपने जीवन में अभ्युदय भी प्रदान करें।

धर्म के दो पहलू हैं:- 1) अभ्युदय—- भौतिक प्रगति, यश तथा यश की प्राप्ति, जीवन के अलौकिक ध्येय की प्राप्ति।

2) निःश्रेयस–अंतिम गन्तव्य। जिसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि परम शान्ति या आत्मज्ञान।

लौकिक तथा अलौकिक दोनों मार्ग प्रदान करने वाली यह भगवद्गीता धर्म ग्रंथ है। जिस प्रकार संत श्री गुलाबराव महाराज ने कहा था कि एक दिन भगवद्गीता संपूर्ण विश्व का धर्म ग्रंथ बनेगी। आज एक सौ बयालीस देशों में विभिन्न प्रकार के गीता साधक एवम् गीता प्रेमी इससे जुड़ रहे हैं तथा तेरह भाषाओं में यह गीता महायज्ञ चल रहा है।

इस महायज्ञ के तीसरे स्तर पर हम पहुँच चुके हैं। इस स्तर में हम प्रथम अध्याय का अध्ययन कर रहे हैं। पिछले व्याख्यानों के अनुसार गीता किस प्रकार आकार में लघुत्तम है। सिर्फ सात सौ श्लोकों पर ही सिमटी हुई है और शुरुआत होती है धृतराष्ट्र के मुख से निकले एक श्लोक से जो धर्म शब्द से शुरू होता है और इसका अंतिम शब्द मम धर्म: है। मम धर्म: यानी मेरा कर्त्तव्य। गीता जी के परिप्रेक्ष्य में धर्म की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है।

हमारे जीवन में धर्म शब्द का जो अर्थ है और गीताजी से हम लेते हैं, वह है अपना कर्त्तव्य। एक शरीर में रहते हुए हम अलग-अलग भूमिकाओं का निर्वाहन करते हैं। जैसे- माँ, बेटी, राष्ट्र की एक नागरिक, समाज की एक नागरिक, ऐसे विभिन्न प्रकार के रिश्ते हम निभाते हैं। एक स्त्री का संदर्भ लें तो एक बहू, एक पत्नी, इत्यादि। हम यहाँ अनेक कार्य करते हैं। वह भी हमारे लिए कर्त्तव्य होता है। अनेक कर्त्तव्यों में से कौन सा कर्त्तव्य किस क्षण में हो यह महत्त्वपूर्ण है। यह विवेक की जागृति पर निर्भर करता है।

जिस प्रकार अर्जुन भगवान के सखा हैं और भगवान अर्जुन के सारथी हैं। फिर भी किस तरह से अर्जुन हतोत्साहित होते हैं, उनका मनोबल टूटता है और किस प्रकार से मोह से घिर जाते हैं। यह सारा दर्शन इसी अध्याय से हम प्राप्त कर सकते हैं, जिसमें अर्जुन हमारे प्रतिनिधि हैं। ज्ञानेश्वर महाराज ने भी कहा है- उनके लिए उनकी भगवद्गीता तथा ज्ञानेश्वरी सुनने का अधिकारी कौन है? वे कहते हैं कि अर्जुन के समान सुनने वाले की एकाग्रता, क्षमता होनी चाहिए।

यह भगवद्गीता भगवान ने संघर्षपूर्ण स्थिति में, शाश्वत ज्ञान की यह धारा अपने मुखारविंद से बहाई है। दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में यह उपदेश आरम्भ होता है। यह उपदेश तब आरम्भ होता है, जब अर्जुन भगवान का शिष्यत्त्व ग्रहण कर लेता है। भगवान की शरणागति में आ जाता है। भगवान के चरणों में समर्पित हो जाता है। तभी भगवान ने ऐसी शब्द ज्ञान की धारा बहाई है।

इसके पहले अर्जुन की मनोदशा भी हमें देखनी चाहिए। जैसा कि पहले कहा गया है कि अर्जुन हमारे प्रतिनिधि हैं। वे नरोत्तम हैं। नरोत्तम अर्जुन अपने जीवन में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हैं, धनुर्विद्या जो द्रोणाचार्य से अर्जुन ने दिन-रात अथक प्रयास के बाद ग्रहण की है। एकाग्रता में जो सर्वश्रेष्ठ हैं, ऐसे अर्जुन जो द्रौपदी के स्वयंवर में मत्स्य भेद भी कर सकते हैं, ऐसे अर्जुन जो जीवन की अन्तिम परीक्षा में हतोत्साहित हो जाते हैं।

हम पाते हैं कि किस प्रकार यह युद्ध अटल हो रहा था। एक ओर धर्म का वृक्ष है तो दूसरी और अधर्म का। वेदों का संपूर्ण सार है महाभारत में, जबकि महाभारत का संपूर्ण सार भगवद्गीता में है। भगवद्गीता का विस्तार महाभारत और महाभारत का विस्तार वेद। इन सात सौ श्लोकों में मानो भगवान ने गागर में सागर समाहित कर दिया है और अर्जुन रूपी बछड़े को उपनिषदों का दोहन करते हुए दुग्ध रूप में प्रदान किया है। यहाँ भगवान गोपाल के रूप में उपस्थित हैं।

भगवद्गीता हमारे अंतरंग को शुद्ध करती है। इसका सुंदर व्याख्या है।

मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने-दिने |
सकृद्रीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम् ||

यह संसार का मल, बहिरङ्ग में, जब हम लोग इस संसार के साथ व्यवहार करते हैं तो अपने आप यह सब आँखों के माध्यम से, कानों के माध्यम से, नासिका के माध्यम से, स्पर्श के द्वारा ये सभी कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से संसार में विचरण करते हुए ग्रहण करते हैं। वह सब मानस पटल पर अंकित हो जाता है। इसे संसार का मल कहा गया है तथा इसे जिस प्रकार से हम ग्रहण करते हैं, चाहे वह निंदा होती हो, अच्छे या बुरे प्रसंग द्वारा यह सभी हमारे अंतःकरण में मिलकर उसे मैला कर देते हैं और उसी प्रकार का व्यवहार अपने आप होने लगता है।

इन सभी प्रसंगों के कारण जो हमारे चित्त में बैठ जाता है उससे हम वैसा ही व्यवहार करते हैं। जैसे – किसी के द्वारा निंदा किए जाने पर हमारा व्यथित चित्त हमें यह समझाने लगता है कि किस प्रकार इसने आपकी निंदा की है और उसके अनुरूप हम व्यवहार करने लगते हैं। एक न्यायधीश न्याय के सिंहासन पर बैठ कर अपने रिश्तेदारों से संबंधित न्याय प्रक्रिया में पूर्ण रुप से शुद्ध न्याय नहीं कर पाता। कुछ न कुछ पक्षपात या पूर्वाग्रह आ ही जाता है या हो ही जाता है। इसलिए हमें अंतरंग को शुद्ध करना चाहिए।

अंतरंग की शुद्धि कैसे होती है? कहते हैं कि मल निर्मोचनं नाशनम्। जिस प्रकार शरीर का मैल धोने के लिए मनुष्य प्रत्येक दिन जल से स्नान करता है, उसी प्रकार ‘गीतामृत स्नानम्’ यानी गीता अमृत से रोज स्नान करना चाहिए। कुछ न कुछ उसके श्लोकों का चिंतन करना चाहिए। कम से कम एक अध्याय का, नहीं तो पाँच श्लोकों का ही चिंतन अनिवार्य रूप से करना चाहिए। भगवद्गीता के श्लोक हमारे अंतरंग को शुद्ध कर देते हैं। संसार मल नाशनम्। संसार का जो मल हमारे अर्धचेतन मन में रह जाता है उसे धोने के लिए भगवद्गीता सर्वोपरि एवं अत्यंत सुंदर साधन है, इसलिए हमें इसका चिंतन करते रहना चाहिए।

इसकी पार्श्व भूमिका के अवलोकन में हम पाते हैं कि मनुष्य किस प्रकार अपनों से हारता है।

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

मनोबल टूटने के कारण मनुष्य अपने जीवन में हारता है। यहाँ अगर मनोबल को संभाल ले तो मनुष्य जीवन के पथ पर अग्रसर हो जाता है। इसलिए भगवद्गीता में यह कहा गया है कि यह ज्ञान मानव जीवन में बचपन से ही अनुकरणीय होना चाहिए।

वीर सावरकर महाराज जी की आज पुण्यतिथि है। उन्हें संपूर्ण भगवद्गीता कंठस्थ थी। उद्योग पर्व में जो सम्भाषण है, वह सभी उन्हें कण्ठस्थ थे। उनके मतानुसार उनके व्यक्तित्व में महाभारत का ही प्रकाश अवलोकित हो रहा था। उनके अनुसार बड़े-बड़े लोगों के व्यक्तित्व को भी भगवद्गीता निखारती है क्योंकि यह अम्बक है। यह भगवद्गीता माँ है। माँ यह नहीं देखती कि बालक छोटा है या बड़ा, यह भी नहीं देखती कि बालक कौन सी जाति का है या कौन से पद पर है। माँ यह भी नहीं देखती कि बालक ने स्नान किया है या नहीं। कहीं वह गंदगी में तो लिप्त नहीं है। जब कभी भी बालक दौड़ता हुआ आता है तो माँ उसे गोद में उठा ही लेती है। बालक की स्वच्छता या स्वच्छता का माँ के प्यार से कोई संबंध नहीं होता है। बालक तो सिर्फ और सिर्फ बालक ही है, माँ के लिए। माँ स्वयं उसे स्वच्छ करती है। इसी प्रकार भगवद्गीता हमारे लिए माँ स्वरूप हैं।

हम सामान्य से हो तो भी भगवद्गीता हमारे व्यक्तित्व को निखारती हैं। यहाँ हम पाते हैं कि युद्ध तो अटल हो गया और धृतराष्ट्र हैं जो कहते हैं कि, ‘मामकाः पाण्डवाश्चैव’, इस प्रकार धृतराष्ट्र के मन में यह पक्षपात है और यह पक्षपात ही धृतराष्ट्र के विनाश का कारण बना। वे केवल चर्म चक्षु से ही अंधे नहीं थे। उनके ज्ञान चक्षु भी बंद हैं, पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को दुर्योधन के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। केवल पाँच हजार वर्ष पहले ही धृतराष्ट्र नहीं थे, आज भी है। आज के धृतराष्ट्र यह नहीं देखते हैं कि मेरे पुत्र में योग्यता है या नहीं। वह चाहते हैं कि मेरा पुत्र ही मेरी गद्दी को संभाले, मेरे पुत्र ही मेरी जगह बैठे। इस प्रकार के धृतराष्ट्र हमारे अंदर भी बैठे हुए हैं। हम यह देखते है कि धृतराष्ट्र जितना तो नहीं पर अर्जुन भी मोहग्रस्त है, आंशिक रूप से।

अर्जुन पाते हैं कि कौरव तो संख्या में सौ थे और पांडव केवल पाँच थे। यहाँ हमें धर्म और अधर्म के मार्ग की विभिन्नता का पता चलता है। अधर्म के मार्ग पर सैकड़ों लोग चलायमान होंगे तो धर्म के मार्ग पर केवल पाँच ही लोग चलेंगे। इस संसार में इस कथा से हम यह सीखते हैं कि, अंदरूनी सद्गुण पाँच तथा दुर्गुण सौ होंगे तब भी इन पाँच सद्गुणों के आधार से हम सौ दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। अपने दुर्गुणों को हम धो सकते हैं। यह तभी संभव है जब हम अपने मन की डोर श्रीभगवान के हाथों में या फिर श्रीभगवान के गीता रूपी ज्ञान के हाथों में सौंप दें।

हम पाते हैं कि किस प्रकार नारायण का प्राकट्य हुआ और उसके साथ ही दुर्योधन के उत्साह वर्धन के लिए उन भीष्म पितामह ने स्वयं सिंहनाद किया और सिंहनाद के पश्चात अपना शंख बजाया, जिनकी आयु डेढ़ सौ वर्ष हो चली थी। उस समय अर्जुन की आयु सत्तर वर्ष की थी जो उस समय के युवा थे।

अर्जुन के रथ में चार सफेद घोड़े जुते हैं और यह रथ उसे अग्निदेव ने प्रदान किया था। भगवान स्वयं इस रथ के सारथी हैं। वह भी निशस्त्र बनकर। इस प्रसंग से पता चलता है कि किस प्रकार अर्जुन तथा दुर्योधन दोनों ही भगवान से कृष्ण कृपा प्राप्ति हेतु एक साथ प्रार्थना करने पहुँचे थे। अर्जुन जो बाद में आए थे, चरणों की ओर बैठे थे। भगवान जब सो कर उठे तो सर्वप्रथम उनका ध्यान चरणों की ओर बैठे अर्जुन की तरफ गया। भगवान ने जैसे ही अर्जुन को कुछ कहना चाहा तो दुर्योधन ने कहा कि वह पहले आया है सहायता मांगने के लिए। तब भगवान ने कहा- ठीक है, पहले तुम आए हो पर मैंने पहले अर्जुन को देखा है। वैसे भी चयन के लिए छोटों का अधिकार पहले होता है। श्रीभगवान ने पूछा कि हे अर्जुन! बताओ, मेरे पास दो विकल्प हैं, तुम्हें क्या चाहिए? निशस्त्र मैं और दूसरी ओर मेरी नारायणी सेना। अर्जुन ने कहा कि युद्ध में तो मुझे आप स्वयं ही चाहिए क्योंकि मेरा युद्ध तो मैं खुद ही लड़ लूँगा।

भगवान केवल हमारे जीवन में विवेक जागृत करने के लिए, क्या सही है और क्या गलत निर्णय हेतु, अंतरंग अवस्था में जीवन की बागडोर संभालने हेतु, नियुक्त किए गए हैं। रथी के रूप में अपना युद्ध तो स्वयं ही लड़ना पड़ता है। यह इस बात का परिपेक्ष्य है कि दुर्योधन को तो भगवान नहीं चाहिए थे। भगवान तो मनुष्य को सही रास्ते पर ले जाते हैं और दुर्योधन गलत रास्ता, अधर्म वाले रास्ते को त्यागना नहीं चाहता था क्योंकि उसके मूल में उसके अंधे पिता धृतराष्ट्र की महत्वाकांक्षाऐं थी। दुर्योधन के अधर्म रूपी वृक्ष का तना कर्ण, शाखाएं शकुनि और फल-फूल दुशासन और उसके अन्य भाई थे। इस प्रकार दुर्योधन का अधर्म रूपी वृक्ष फलीभूत था। साथ ही पाण्डवों का धर्म वृक्ष जिसमें पाँच पाण्डव तथा भगवान श्रीकृष्ण स्वयम् उपस्थित थे।

अब आगे हम यह देखते हैं कि भगवान ने किस प्रकार अर्जुन के रथ की बागडोर संभालते हुए उसे विजयपथ की ओर अग्रसर किया। अर्जुन का रथ अत्यंत दिव्य है क्योंकि इसमें नौ बैल गाड़ियों जितना अस्त्र-शस्त्र समाहित हो सकता था। इसकी ध्वजा जिस पर हनुमान जी विराजमान थे, वह चार कोस तक फहराती थी। अपने-अपने दिव्य शंख दोनों पक्षों ने बजाए। पाण्डवों की सेना आपसी स्नेह से बंधित है और यहाँ मुख्य भूमिका में श्रीभगवान हैं इसलिए पाण्डवों की सेना में कई लोगों ने शंख बजाए। जबकि कौरवों की सेना में केवल उनके सेनापति ने ही शंख बजाया। पाण्डवों की सेना में पहला शंख श्रीभगवान कृष्ण ने बजाया।

1.15
पाञ्चजन्यं(म्) हृषीकेशो, देवदत्तं(न्) धनञ्जयः।
पौण्ड्रं(न्) दध्मौ महाशङ्खं(म्), भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक (तथा) धनञ्जय अर्जुन ने देवदत्त नामक (शंख बजाया और) भयानक कर्म करने वाले वृकोदर भीम ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
विवेचन:–भगवान जो इंद्रियों के स्वामी हृषिकेश हैं, उन्होंने पाञ्चजन्य नामक शंख बजाया। अर्जुन का नाम धनञ्जय भी है क्योंकि राजसूय यज्ञ के समय उन्होंने धन को एकत्रित करने की जिम्मेदारी ली थी। पर यहाँ युद्ध के मैदान में युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही अर्जुन की इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं। उसके हाथ से धनुष छूटने लगता है। इसे भगवान संभालते हैं। अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया तथा पौण्ड्र नामक शंख भीम ने बजाया। फिर एक-एक करके सभी ने अपने-अपने शंख बजाए।
1.16
अनन्तविजयं(म्) राजा, कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः(स्) सहदेवश्च, सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक (शंख बजाया तथा) नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक (शंख बजाये)
विवेचन:–राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक, नकुल और सहदेव ने सुघोष तथा मणिपुष्पक नामक शंख बजाए। विजयश्री की प्राप्ति के लिए रणवाद्य बजाए गए थे जिससे सेना में लड़ाई के प्रति जोश जागृत हो। इसी प्रकार जब शिवाजी महाराज की सेना युद्ध के लिए जाती थी तो उनकी सेना का रण वाक्य होता था। हर-हर महादेव, हर-हर महादेव, ऐसा कहते हुए वे आगे बढ़ते रहते थे।
1.17
काश्यश्च परमेष्वासः(श्), शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
हे राजन्! श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु (इन सभी ने) सब ओर से अलग-अलग (अपने- अपने संख बजाए
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च, सर्वशः(फ्) पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः(श्), शङ्खान्दध्मुः(फ्) पृथक्पृथक्।।1.18।।
विवेचन:–यहाँ महारथियों का वर्णन आया है। अत्यंत श्रेष्ठ धनुष धारण करनेवाले काशिराज, शिखण्डी पूर्व जन्म में जो अम्बा थी, उसका स्वयंवर से अपहरण किया गया था लेकिन बाद में लौटा दी गई थी, पर उस राजा ने भी उसे अस्वीकार कर दिया था, जिससे वह प्रेम करती थी। उसी अम्बा ने उग्र तपस्या कर, भीष्म पितामह के वध के लिए इस जन्म में शिखण्डी का रूप धारण किया था। धृष्टद्युम्न, द्रौपदी का भाई हैं, जिसकी उत्पत्ति यज्ञ कुण्ड से हुई थी। द्रोणाचार्य के वध के लिए उसे अवतरित किया गया था। राजा विराट जिनके यहाँ पाण्डवों ने अपना अज्ञातवास बिताया, सात्यकि जिन्होंने अर्जुन से धनुर्विद्या प्राप्त की। राजा द्रुपद, द्रौपदी के पिता तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्र श्रुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक, श्रुतसेन तथा श्रुतविंध्य ने भी अपने-अपने शंख बजाए। अभिमन्यु, (सुभद्रा तथा अर्जुन) का पुत्र सभी ने अपने अपने शंख बजाए। उनकी आवाज से वहाँ की धरती कम्पायमान हो उठी।
1.19
स घोषो धार्तराष्ट्राणां(म्), हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं(ञ्) चैव, तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।
और (पाण्डव-सेना के शंखों के) उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक राज्य हड़पने वाले दुर्योधन आदि के हृदय विदीर्ण कर दिये।
विवेचन:–अत्यंत भयंकर भीषण आवाज वहाँ की शंख ध्वनि से हुई। आकाश तथा पृथ्वी दोनों ही मानों हिल गए थे। धरती भी कम्पायमान हो उठी थी। धृतराष्ट्र के पुत्र तथा कौरव पक्ष से लड़ने वाले सभी के हृदय कम्पित हो रहे थे। उसी प्रकार, जिस प्रकार जिसके मन में पाप होता है वह भय से कम्पित हो जाता है। यह पहली बार था कि दोनों पक्षों की सेना आमने-सामने युद्ध क्षेत्र में डटी थी। इसके पूर्व जब भी कौरवों तथा पाण्डवों का युद्ध हुआ था, वह प्रपञ्च से भरा हुआ रहता था। जैसे द्यूत क्रीड़ा इत्यादि। हमेशा कौरव दल द्वारा ही पाण्डवों को धन तथा जन की हानि पहुँचाई जाती थी। यह पहली बार था कि जब सभी धर्म क्षेत्र में एकत्रित हुए थे, युद्ध के लिए। यहाँ जो वीर थे उनका उत्साहवर्धन हो रहा था तथा जो कायर थे उनका हृदय विदीर्ण हो गया था।
1.20
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
हे महीपते धृतराष्ट्र! अब शस्त्रों के चलने की तैयारी हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्य को धारण करने वाले राजाओं और उनके साथियों को व्यवस्थित रूप से सामने खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुन ने (अपना) गाण्डीव धनुष उठा लिया (और) अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण से यह वचन बोले।
ऋषिकेशं(न्) तदा वाक्यम्, इदमाह महीपते। अर्जुन उवाच सेनयोरुभयोर्मध्ये, रथं(म्) स्थापय मेऽच्युत।।1.21।।
अर्जुन बोले – हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को (आप तब तक) खड़ा कीजिये, जब तक मैं (युद्धक्षेत्र में) खड़े हुए इन युद्ध की इच्छा वालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
विवेचन:–यहाँ संवाद चल रहा था– धृतराष्ट्र और संजय के बीच। पूरी सेना का अवलोकन करते हुए संजय यह व्याख्या कर रहे थे कि अर्जुन जिसके रथ की ध्वजा पर स्वयं हनुमान जी विराजमान है, उसने अपना गाण्डीव उठाकर श्रीकृष्ण से कहा, मेरा रथ दोनों सेनाओं के मध्य स्थित कीजिए।

श्रीभगवान को यहॉं अच्युत कहा गया है, जो कभी भयभीत न हो। सभी परिस्थितियों में अचल खड़ा रहे, अच्युत संबोधन भगवान की उत्कृष्टता का संबोधन है क्योंकि यहाँ भगवान धर्म स्थापना करने के लिए पूरे युद्ध का भार अर्जुन के कंधों पर डालते हैं। यहाँ अधर्म पर धर्म की विजय होती है। यहाँ श्रीभगवान का उद्देश्य भी इस युद्ध के प्रति यही था। लेकिन जब अर्जुन ही हतोत्साहित हो गए तब श्रीभगवान ने जो अच्युत हैं, उनका मनोबल गिरने नहीं दिया, उसे संभाले रखा था।

यह मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ मन में स्फुरणा पैदा करता है और हतोत्साहित हुए व्यक्ति में पुनः चेतना का संचार हो जाता है। जीव को सदा इस बात का स्मरण रहना चाहिए कि यह मनुष्य देह उसे अंतिम गन्तव्य तक पहुँचने के लिए प्राप्त हुई है। चौरासी लाख योनियों को पार करने के बाद इस मनुष्य-शरीर की प्राप्ति यथेष्ट कार्य को सिद्ध करने के लिए ही होती है। इस मनुष्य जीवन में कैसे भी विकट स्थिति क्यों न हो, अगर अच्युत आपके साथ हो तो वह आपको कभी च्युत नहीं होने देते। वह आपको कभी गिरने नहीं देंगे। इसीलिए तो भगवद्गीता को वाङमयी कृष्णमूर्ति कहा गया है। इसका प्रत्येक श्लोक एक मंत्र है। इस भगवद्गीता के श्लोक सिर्फ श्लोक ही नहीं है, इस ग्रंथ की बांहें हैं जो आत्मा का आलिंगन करती हैं।

कीं निजकांता आत्मया | आवडी गीता मिळावया |
श्लोक नव्हती बाह्या | पसरु का जो ॥ १६७४ ॥

ऐसी सुंदर भगवद्गीता के श्लोकों का हम चिंतन कर रहे हैं। उसके अंतरंग में झाँकने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही उसे अपने जीवन में लाने के लिए प्रयासरत हैं। अगर हम अर्जुन की तरह ही उसे समझें तो हम पाते हैं कि यह गीता का ज्ञान किस प्रकार अपनी अंतरंग बातें हमारे सामने खोलता है।
1.22
यावदेतान्निरीक्षेऽहं(य्ँ), योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यम्, अस्मिन्रणसमुद्यमे॥1.22
विवेचन:–अर्जुन कहते हैं, हे हृषीकेश! दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ स्थापित करें। अर्जुन वीर हैं और वे चाहते हैं कि इस युद्ध के उद्योग में रत होने वाले योद्धाओं का वे दर्शन करें। जो मेरे साथ युद्ध करने योग्य योद्धा हैं, उनका मैं निरीक्षण कर लूँ, यह मेरी आकाँक्षा है। भगवान तो यहाँ रथ चलाने वाले हैं।

भगवान तो निष्काम कर्मयोगी हैं। उनको जो भी कर्म कर्त्तव्य के रूप में प्राप्त होता है, उसे वे बुद्धि युक्त होकर करते हैं।

एक सुंदर गीत हैं जो गुरुदेव अक्सर गाते हैं——

कर्मयोगी कृष्ण जैसे, वीर हो हम पार्थ से।

भगवान यहाँ सारथी हैं तो सारथी की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाते हैं। वह गोपाल रूप में होते हैं तो गौएं चराते हैं। भगवान ने राजसूय यज्ञ में सेवा कार्य का भार लिया तो झूठी पत्तलें भी उठाईं और अभ्यागतों के पैर भी धोए। इस प्रकार श्रीभगवान ने अपने प्रत्येक कर्त्तव्य का निर्वाह प्रेम पूर्वक तथा निष्ठा से किया।

हम जब भी महाभारत युद्ध का वर्णन सुनते हैं, तब हमें यह पता चलता है कि चाहे जयद्रथ वध हो या कर्ण वध हो, अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने पूरी तरह से मानसिक सम्बल प्रदान किया था।
1.23
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं(य्ँ), य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धे:(र्), युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥1.23॥
दुष्टबुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय करने की इच्छा वाले जो ये राजा लोग इस सेना में आये हुए हैं, युद्ध करने को उतावले हुए (इन सबको) मैं देख लूँ।
विवेचन:–दुष्ट बुद्धि धृतराष्ट्र के पुत्रों के प्रति अभी भी अर्जुन को मोह था। इतनी विशाल सेना दुर्योधन के पक्ष में खड़ी थी। दुर्योधन जो दुष्ट बुद्धि था, उसके हित के लिए भी इतनी बड़ी सेना को देखकर अर्जुन हतप्रभ रह गए थे, यह महागठबन्धन है। अच्छे लोगों का हराने के लिए किस प्रकार से लोग एकत्रित हो जाते हैं, महागठबन्धन बना देते हैं।

दुष्ट बुद्धि धृतराष्ट्र तथा उसके पुत्रों के प्रति हित चाहने वाले को देखने के लिए अर्जुन लालायित हो गए थे कि संसार में आखिर वे कौन से लोग हैं जो दुष्ट बुद्धि वालों का भी हित चाहते हैं।

इस युद्ध के प्रति पहले ही नियम बना दिए गए थे कि युद्ध सूर्योदय के बाद शुरू होगा और सूर्यास्त के बाद बंद हो जाएगा। महारथी का महारथी के साथ, रथी का रथी के साथ युद्ध होगा। जो दस हजार योद्धाओं के साथ युद्ध कर सकें, ऐसे लोगों को महारथी कहते हैं। अर्जुन तो महारथियों के महारथी हैं इसलिए तो वह सब के साथ युद्ध नहीं कर सकते थे। तभी अर्जुन ने सोचा कि पहले निरीक्षण कर लूँ कि मेरा किनके साथ युद्ध करना उचित होगा।
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो, गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये, स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।1.24।।
संजय बोले – हे भरतवंशी राजन्! निद्रा विजयी अर्जुन के द्वारा इस तरह कहने पर अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य भाग में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने श्रेष्ठ रथ को खड़ा करके इस तरह कहा कि ‘हे पार्थ! इन इकट्ठे हुए कुरुवंशियों को देख’। (1.24-1.25)
विवेचन:–आगे संजय कहते हैं कि भगवान जो अर्जुन के सारथी हैं, उन्होंनेअर्जुन की आज्ञा का पालन करते हुए रथ दोनों सेनाओं के मध्य स्थित कर दिया।

भगवान ने अर्जुन को यहाँ गुडाकेश कह कर संबोधित किया, जिसका अर्थ होता है अनिद्रा, अर्थात जिन्होंने अज्ञान रूपी निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली हो। अर्जुन ने रात- रात भर जागकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया था। इस प्रकार उन्होंने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली थी, लेकिन आगे के कुछ क्षणों बाद अर्जुन मोह की निद्रा में जाने वाले हैं।

फिर भी श्रीभगवान ने उनको यहाँ गुडाकेश कहा। निद्रा रूपी अज्ञान पर विजय प्राप्त करने वाले वही अर्जुन अपने मोह के प्रति आसक्त होकर अपना गाण्डीव छोड़ने के लिए उद्यत हो गए हैं। धनुष को रथ के पीछे रख देते हैं। ऐसे अर्जुन का रथ उन्होंने दोनों सेनाओं के मध्य स्थापित किया है।

भगवान अंतर्यामी हैं, भगवान मनोवैज्ञानिक हैं क्योंकि भगवद्गीता मनोवैज्ञानिक ग्रंथ है। पाँच हजार साल बाद भी हमें प्रेरणा देने वाला यह अद्भुत ग्रंथ है। पाँच हजार साल बाद परिस्थिति भले ही बदल गई हो, पूरी दुनिया एक मोबाइल नेटवर्क पर आकर सिमट गई हो। यह केवल वैज्ञानिक प्रगति है, पर मनुष्य का मन तो वैसा ही है।

मन का विकार बहुत तीव्र हो गया है। आज बच्चों को भी नहीं सुनना पसंद नहीं है। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यह सभी विश्व के विकार अपनी यथावत् स्थिति में आज भी हैं। मनुष्य की बुद्धि, विवेक आज भी उसी स्थिति में हैं क्योंकि मन चंचल हो गया है। इसलिए गीता का यह ज्ञान आज भी उतना ही प्रभावी है क्योंकि मन ने अपना विवेक खो दिया है। मनुष्य का मनोबल छोटी-छोटी बातों पर टूट जाता है। संजय आगे बताते हैं।
1.25
भीष्मद्रोणप्रमुखतः(स्), सर्वेषां(ञ्) च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्, समवेतान्कुरूनिति।।1.25।।
विवेचन:–अर्जुन का मन कहाँ टिक सकता है यह भगवान जानते हैं। अर्जुन के संवेदनशील बिंदु कौन से है यह भगवान भली प्रकार से जानते हैं।

भगवान को पता था कि भीष्म पितामह तथा आचार्य द्रोण दोनों अर्जुन के संवेदनशील बिंदु हैं। पाण्डु पुत्र वन में जन्मे थे। राजा पाण्डु जो श्राप ग्रस्त थे, उनका जब निधन हो गया तो माता माद्री भी उनके साथ सहगमन होकर गई थी। तब माता कुन्ती अपने सभी पुत्रों के साथ हस्तिनापुर आई थी। इस राज महल में अर्जुन को पिता तुल्य प्रेम भीष्म पितामह द्वारा ही प्राप्त हुआ था इसलिए उनका बहुत आदर करते थे और उनके प्रति अत्यन्त संवेदनशील थे। अर्जुन के अंदर नम्रता, संवेदनशीलता, इन गुणों की भरमार थी। अर्जुन वीर थे पर अत्यंत संवेदनशील भी थे। ज्यादातर वीरों के अंदर संवेदनशीलता का गुण नहीं पाया जाता है क्योंकि जब वीर संवेदनशील होने लग जाते हैं तो उनके जीवन में कई प्रकार की कठिनाईयाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

अर्जुन के जीवन से हम देखते हैं कि अर्जुन का यह विषाद भी योग बन जाता है। योग का अर्थ है जुड़ना। जो राष्ट्र के प्रति समर्पित है, जो परिवार के प्रति समर्पित हैं, जो जिस भी व्यवस्था में है उसके प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ समर्पित है तो उसका विषाद भी विषादयोग बन जाता है। भगवान ने अर्जुन को एक ही वाक्य कहा है कि हे पार्थ! जो यहाँ उपस्थित कुरु हैं, उनको देख लो। पर अर्जुन ने जो वहाँ अपने सभी रिश्तेदार तथा सगे- संबंधियों को देखा तो उसके चेहरे का रंग ही बदल गया। उसके अंदर जो विजयश्री की ललक थी अब उसकी जगह व्याकुलता आ गई थी। अर्जुन का रस से युक्त ओजस्वी चेहरा व्याकुलता से घिर गया था।
1.26
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः(फ्), पितृ़नथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्, पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।।1.26।।
उसके बाद पृथानन्दन अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिताओं को, पितामहों को, आचार्यों को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा।
विवेचन:–अर्जुन ने अपने सभी सगे संबंधियों को वहाँ देखा तो उसके मन के भाव बदलने लगे थे। उसका चेहरा बदलने लगा था। कुछ कौरवों की सेना में थे, तो कुछ पाण्डवों की सेना में, दोनों सेनाओं में बँट गए थे, विभाजित हो गए थे। उन स्वजनों के समूहों को देखकर अर्जुन के मन के भाव बदल गए थे। दोनों सेनाओं में चाचा, मामा, पितामह, गुरु, पुत्र, पौत्र, मित्र, ससुर अर्थात हित कर्ता, इन सभी को देखकर अर्जुन विचलित हो उठा था।
1.27
श्वशुरान्सुहृदश्चैव, सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः(स्), सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।।1.27।।
अपनी अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बान्धवों को देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त कायरता से युक्त होकर विषाद करते हुए ऐसा बोले।
विवेचन:–अचानक से अर्जुन के स्वर में व्याकुलता आ गई थी। अब अर्जुन व्यथित मन से अपनी मनोदशा भगवान को बताने वाले हैं। अब वहाँ एकत्रित अपने सगे संबंधियों को देखकर अर्जुन का मन व्याकुल हो गया, क्योंकि माता कुन्ती से संवेदनशीलता तो उन्हें भी मिली थी। माता कुन्ती के पुत्र होने के कारण अत्याधिक करुणा से भर गए थे। अत्यंत शोकाकुल होते हुए अर्जुन ने यह वचन कहे जो आत्यंतिक करुणा से भरे थे। यह वचन उनके मुख से प्रस्फुटित होने लगे। वीर रस से व्याप्त रहनेवाले अर्जुन के चेहरे पर कालिमा आ गई थी।

वे सोचने लगे थे, क्यों हम इस युद्ध के लिए प्रविष्ट हुए हैं? क्या मिलने वाला है हमें? इस युद्ध से अपने स्वजनों की हत्या करके हम क्या प्राप्त करेंगे? यह विजयश्री भी क्या हमें आनंदित करेगी, उत्साहित करेगी? क्या हमारे जीवन में सुख प्रदान करेगी?

अर्जुन जब यह सोच रहे थे तो उनकी यह सोच किस कारण हुई इसका बहुत ही सुंदर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण स्वामी जी ने अपने गीता साधना शिविर में प्रवचन करते हुए दिया था। इस पर प्रकाश डाला था कि अर्जुन की यह मनोवैज्ञानिक दशा किस कारण हुई थी। अर्जुन कहते हैं—
1.28
कृपया परयाविष्टो, विषीदन्निदमब्रवीत्। अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं(ङ्) कृष्ण, युयुत्सुं(म्) समुपस्थितम्।।1.28।।
अर्जुन बोले – हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी (आ रही है) एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और (मैं) खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।
सीदन्ति मम गात्राणि, मुखं(ञ्) च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे, रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।
विवेचन:–मुझे यह क्या हो रहा है? सारे शरीर के अवयव ढीले पड़ रहे हैं। मेरा मुँह सूख रहा है। सारे शरीर में कंपकंपाहट हो रही है। रोमांच के कारण सारे शरीर के रोएं खड़े हो गए हैं। इतना ही नहीं है, केशव! मेरे हाथ से गाण्डीव छूट रहा है जो कभी भी छूटता नहीं था क्योंकि अर्जुन का प्रण था कि कोई भी गाण्डीव को धिक्कारेगा तो मैं उसका वध कर दूॖंगा। ऐसा गाण्डीव मुझसे छूट रहा है और मेरी त्वचा में जलन हो रही है। मुझसे ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा है। मेरा सिर भी चकरा रहा है। मानो भ्रमित हो रहा हो।

अर्जुन की इस अवस्था के वर्णन पर ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं कि मनुष्य की ऐसी अवस्था कब होती है—

जेणे संग्रामी हरू जिंतिला ।
निवातकवचांचा ठावो फेडिला ।
तो अर्जुन मोहें कवळिला । क्षणामाजिं ॥ २०० ॥

अर्जुन तपस्वी हैं। उन्होंने पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था। स्वर्ग में जाकर दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को प्राप्त किया था, जो त्रिकाल संध्या करते थे और तप करते थे। सभी महापुरुष अपने समय के तपस्वी रहे हैं जैसे– श्रीराम। अर्जुन भी पूजा-पाठ करते थे, स्वाध्याय करते थे, काल पूजा भी करते थे।

एक बार महादेव स्वयं अर्जुन की परीक्षा लेने आए भील के रूप में। एक सूअर जो अर्जुन की पूजा में बार-बार व्यवधान उत्पन्न कर रहा था तो अर्जुन ने उस पर बाण चलाया। उधर महादेव जी ने भी उस सूअर पर बाण चलाया। दोनों के ही बाण सूअर को लगे। दोनों में इस बात पर बहस हो गई कि पहले किसका बाण सूअर को लगा। इस बात का निर्णय आपस में द्वंद युद्ध पर स्थित हो गया। जैसे-जैसे अर्जुन महादेव पर बाण चलाते थे तो महादेव उसे काट देते थे। इसी बीच अर्जुन के संध्या पूजन का समय हो गया तो अर्जुन ने युद्ध स्थगित कर दिया। अर्जुन पूजा में बैठे तो जैसे ही उस शिवलिंग पर पुष्प चढ़ाते थे, वह पुष्प उस भील तक पहुँच जाता था। तब अर्जुन की समझ में आया कि अप्रत्यक्ष रूप से ये हर अर्थात महादेव हैं। अर्जुन ने उनका मन जीत लिया था। इस प्रकार महादेव की कृपा से अर्जुन को पाशुपतास्त्र प्राप्त हुआ था।

एक बार जब अर्जुन स्वर्ग को गए थे तो वहाँ निवात नामक राक्षस देवताओं को कष्ट देता था और छुप जाता था। राजा इंद्र के अनुग्रह करने पर अर्जुन ने उसे ढूँढ निकाला और अकेले ही उस राक्षस को समाप्त कर दिया।

ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि ऐसे अर्जुन की स्वजनों को देखने के बाद यह दशा हो गई। उसका मुँह सूख गया। उसका गाण्डीव हाथ से फिसलने लगा। उसकी त्वचा जलने लगी। ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। ऐसी अवस्था उसकी क्यों हो गई?

जैसा भ्रमर भेदी कोडें । भलतैसें काष्ठ कोरडें ।
परि कळिकेमाजीं सापडें । कोवळियें ॥ २०१ ॥

तेथ उत्तीर्ण होईल प्राणें । परीं ते कमळदळु चिरूं नेणे ।
तैसे कठीण कोवळेंपणे । स्नेह देखा ॥ २०२ ॥

भ्रमर के उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। भ्रमर लकड़ी में आसानी से छेद कर देता है, पर जब यही भ्रमर पराग के लिए कमल पर बैठ जाता है और सूर्यास्त के समय जब कमल कालिकाएं अपने पंखुड़ियों को समेट लेती हैं तो वह उसी में अटक जाता है। जो कठिन काष्ठ का भेद कर सकता है वह कमल को भेद कर बाहर नहीं आ सकता है? यही विडम्बना है जीव की। कितना भी कठिन व अशिष्ट व्यवहार कोई कर ले, हम उसे तोड़ देते हैं पर हमारे स्वजनों के कोमल बंधन को को हम नहीं तोड़ पाते हैं। इन कोमल बंधनों को तोड़कर मनुष्य आसानी से मुक्त नहीं हो पाता है।

अर्जुन की ऐसी अवस्था का यही कारण है। अर्जुन पर यह मनोवैज्ञानिक परिणाम क्यों हुआ, यह आगे की विवेचना में समझेंगे। इस प्रकार हमने यहाँ अर्जुन के विभिन्न रूप जैसे तपस्वी, विषाद योगी तथा वीर के दर्शन किए। हमें यह मनुष्य जीवन विजय के लिए मिला है। हमें अपने जीवन का सारथी भी भगवान को ही चुनना चाहिए।

इसके साथ ही आज का सत्र समाप्त हुआ व प्रश्नोत्तर हुए।

प्रश्नोत्तरी

प्रश्नकर्ता:- जयवंत जोशी जी

प्रश्न :-दूसरे अध्याय का नाम सांख्य योग है तो सांख्य का अर्थ क्या है?

उत्तर :–सांख्य तत्त्वज्ञान अर्थात फिलॉसफी है। इस तत्त्वज्ञान की मुख्यतः छह शाखाएँ हैं जो आस्तिक शाखाएँ कहलाती हैं। आस्तिक अर्थात जो वेदों को मानते हैं, वेदों को मानने वाली शाखाओं में है— सांख्य तथा योग, न्याय, वैशेषि, मीमांसा तथा वेदांत। हम वेदांत पढ़ रहे हैं। इसमें तीन ईश्वर वादी हैं और तीन निरीश्वरवादी हैं। जो वेदों को नहीं मानते, वह नास्तिक तीन शाखाएं हैं जैसे –बौद्धधर्म, जैन तथा चार्वाक इत्यादि। इन आस्तिक शाखाओं में कुछ सांख्य फिलासफी भी है। वह है- सृष्टि की रचना किस प्रकार हुई इसे संख्या में बताया गया है। इसमें बहुत सारे नंबर सम्मिलित किए गए हैं, यह ज्ञान की शाखा है। इसमें प्रकृति तथा पुरुष यानी जड़ तथा चेतन इन दोनों के सहयोग से इस सृष्टि का कार्य चलता है,का तत्त्वज्ञान प्रतिपादित किया गया है।

भगवान ने भगवद्गीता में आत्मा की अमरता को प्रतिपादित करते हुए, आत्मा की विशेषता बताते हुए भी यह सांख्य ज्ञान का आधार प्रतिपादित किया है। सांख्ययोग यानी ज्ञानयोग। इसमें हमें मैटर तथा एनर्जी का ज्ञान मिलता है। हमारा विज्ञान भी कहता है कि जड़ तथा चेतन के सहयोग से यह सब संभव है। परंतु हमारा विज्ञान कहता है, पहले मैटर आया फिर एनर्जी आई है, लेकिन वेदांत कहता है पहले एनर्जी यानि consciousness आया फिर मैटर आया। इसके ज्ञान में पहले भगवान ने अविनाशी तत्त्व का प्रतिपादन किया। अर्जुन के सामने श्रीभगवान ने प्रकृति तथा पुरुष को आधार लेकर इस सांख्य ज्ञान का दर्शन कराया है, अर्जुन को अपनी बात समझाई है इसलिए इसे सांख्ययोग कहा गया है।

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